राहुल गांधी का विदेशी अहंकार

By: Sep 14th, 2017 12:05 am

क्या कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इस तरह देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं? क्या विदेशी जमीन पर भारत को नफरत, गुस्से, हिंसा का देश करार देने से कांग्रेस को जनमत मिल सकता है? क्या देश वाकई बर्बादी के कगार पर है? क्या भारत में ध्रुवीकरण, असहिष्णुता और असुरक्षा का ही माहौल है? क्या वंशवाद के सहारे हिंदोस्तान यूं ही चलता रहेगा? क्या राहुल गांधी की तुलना देश और संस्कृति के महानायक स्वामी विवेकानंद से ही जा सकती है? क्या  राहुल ने अमरीका की धरती पर भारत का मान-सम्मान उसी तरह बढ़ाया है अथवा क्या वह ऐसा करने में सक्षम हैं, जिस तरह 1893 में विवेकानंद ने ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में सभी को सम्मोहित कर दिया था? क्या राहुल गांधी वाकई बेवकूफ हैं? यह सवाल खुद राहुल को देश से पूछना चाहिए। राहुल गांधी से जुड़े ये सवाल अमरीका की सरजमीं पर उभरे हैं। यदि ये सवाल देश के भीतर ही किए जाते, तो परोक्ष रूप से जनता जवाब दे सकती थी। अखबारों और टीवी चैनलों के जरिए राहुल गांधी को जनता का अभिमत मिल सकता था। दरअसल कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मंच पर राहुल गांधी ने भारत को अपमानित करने की कोशिश की है कि आखिर देश का यथार्थ क्या है? लेकिन राहुल चाहें, तो दुनिया भर में दुष्प्रचार करें कि हिंदोस्तान असल में कैसा देश है, लेकिन देश की बुनियाद की एक ईंट तक नहीं हिलेगी और न ही भारत की छवि पर कालिख की एक लकीर तक खिंचेगी। यह देश सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी का ही नहीं है। यह प्राचीन सभ्यता-संस्कृति का देश है। यह धार्मिक सहिष्णुता, भाईचारे और विविधता में एकता का देश है। यह संतों,ऋषि-मुनियों और महानायकों का देश है। यह क्रांतिकारियों और कुर्बानियों का देश है। यह चांद और मंगल तक वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल करने वाला देश है। अमरीका कोई अखाड़ा है, जो राहुल गांधी वहां मोदी-विरोध की कुश्ती लड़ने गए थे। विदेशी जमीन पर राहुल ने जो कुछ भी बोला है, वह उनका अहंकार ही है। यह अहंकार तब भी प्रकट हुआ था, जब राहुल ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आकर एक अध्यादेश का कागज फाड़ दिया था और ‘नॉनसेंस’ कहा था। इस तरह उन्होंने कैबिनेट के फैसले को खारिज किया था। राहुल ने अपने कबूलनामे के जरिए भी अहंकार को स्वीकार किया है। उन्होंने माना है कि 2012 से कांग्रेस से कुछ गलतियां हुई थीं और पार्टी ने लोगों से बातचीत करना ही बंद कर दिया था। नतीजतन 2014 में पार्टी की करारी पराजय हुई। यह समूची कांग्रेस पर सवालिया निशान है, जिसके वह खुद उपाध्यक्ष और उनकी मां सोनिया गांधी अध्यक्ष हैं। अब अक्तूबर में राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन सकते हैं, वह प्रक्रिया जारी है। बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने विदेशी जमीं पर कांग्रेस पार्टी, गांधी परिवार और दूसरे नेताओं, उनकी योजनाओं की आलोचना की है। कई बार ‘मिमिक्री’ के अंदाज में भी वह बोले हैं। उन्होंने विदेशों में बसे भारतीयों को संबोधित करते हुए बीते कल और मौजूदा भारत की एक तुलनात्मक तस्वीर पेश की है। उनका यह कथन बुनियादी तौर पर गलत रहा है कि 70 साल में देश के भीतर कुछ नहीं किया गया। इस दौरान एक दशक से ज्यादा समय तक गैर कांग्रेसी सरकारें रही हैं। यदि भारत ने अंतरिक्ष की गहराइयां छेदी हैं और परमाणु शक्ति हासिल की है, तो वह कमोबेश मोदी सरकार की देन नहीं है। लेकिन सवाल तो यह है कि राहुल गांधी सिर्फ मोदी विरोध के लिए विदेशी मंच तक गए। प्रतिशोध की ऐसी राजनीति के मायने क्या हैं? क्या इसी आधार पर देश उन्हें अपना प्रधानमंत्री चुन लेगा? इस देश ने वंशवाद की राजनीति को भी खारिज किया है। यदि ऐसा नहीं होता, तो आज कांग्रेस लोकसभा में 44 सांसदों तक न लुढ़कती और देश के पांच-छह राज्यों तक ही उसकी सत्ता सीमित न रह जाती। हास्यास्पद है कि अमरीका में राहुल गांधी ने वंशवाद की पैरवी की है और दावा किया है कि हिंदोस्तान में ऐसा ही चलता है। यह भारत का अपमान है। यदि देश में वंशवाद ही जारी रहता, तो देश के सर्वोच्च तीन संवैधानिक पदों पर एक दलित, गरीब, एक किसान और एक दरिद्र चायवाला विराजमान न होते। राहुल गांधी ने दलील दी है कि देखो, वे भी चोर हैं, यदि मैं भी चोर हूं तो क्या हुआ? करीब 134 करोड़ के देश में वंशवाद के उदाहरण कितने हैं? खुद राहुल गांधी अंगुलियों पर गिन सकते हैं। बहरहाल यदि भारत सिर्फ नफरत, गुस्से, हिंसा, असहिष्णुता का देश होता और बर्बादी के कगार पर होता, तो अमरीका समेत दुनिया के सभी बड़े देश लपलपाते हुए भारत की ओर न बढ़ते। जापान सरीखा समृद्ध देश 88,000 करोड़ रुपए खर्च करके भारत में बुलेट टे्रन न बना रहा होता। चीन सरीखा प्रतिद्वंद्वी देश का कारोबार 160 अरब डालर तक न पहुंचता। कोसना और गालियां देना एक पराजित मनोवृत्ति है। देश की व्यवस्था में संसद से बढ़कर कोई नहीं है। उस संसद पर काबिज होने के लिए ही राहुल गांधी और कांग्रेस छटपटा रहे हैं। मोदी उस संसद से महान नहीं हैं। लेकिन हमारी परंपरा रही है कि विदेशी जमीन पर और विदेशी मेहमान के सामने हम अकसर अपनी सरकार की निंदा या बेइज्जती नहीं करते हैं। राहुल गांधी अपनी दादी इंदिरा गांधी और प्रतिपक्ष के नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी के समीकरणों और उदाहरणों से ही कुछ सीख सकते हैं।


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