वंदे भारत मातरम्

By: Sep 12th, 2017 12:02 am

स्वामी रामस्वरूप

लेखक, वेद मंदिर, योल से हैं

प्रत्येक भारतवासी को यह सदा याद रहे कि यह आजादी हमें खैरात में नहीं मिली। आजादी की लड़ाई में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन सभी भाई-बहनों ने कंधे से कंधा मिलाकर भाग लिया था। जिसके पास जो कुछ था-रुपया, पैसा, जेवर, घर-बार, जमीनें आदि वह सब कुछ आजादी की लड़ाई में लगा दिया गया। इस दुर्लभ आजादी को कायम रखने के लिए आजादी के बाद भी हमने चीन और पाकिस्तान से युद्ध में दो-दो हाथ किए हैं तथा आजादी को सुरक्षित रखा। इसमें हमारी प्रत्येक सेना के जवानों ने शहादतें दी हैं। अब भारत को उन्नति के शिखर पर पहुंचाकर आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से सुदृढ़ किया जाए, ऐसा करना हर भारतीय का धर्म-कर्त्तव्य है। आजादी की यादों व मायनों को हमेशा जीवंत रखने के लिए प्रतिवर्ष देश के प्रधानमंत्री, देश की राजधानी दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से तिरंगा फहराते हैं। भविष्य में तिरंगे के प्रति अथवा पृथ्वी माता के प्रति कोई अनहोनी न हो, इसके लिए हमें तत्पर रहना होगा। एक राष्ट्र का निर्माण प्रजा द्वारा ही तो संभव होता है, अतः राष्ट्र प्रजा है और प्रजा ही राष्ट्र है। समझदार प्रजा द्वारा राष्ट्र सुदृढ़ बनता है और सुदृढ़ राष्ट्र में प्रजा चैन से, सुख से, निर्भय होकर निवास करती है और विचरण करती है। यजुर्वेद मंत्र 23/22 में कहा है कि जिस देश में राजा राष्ट्र की रक्षा में असमर्थ है, वहां प्रजा एक छोटी सी निर्बल चिडि़या के समान निर्बल हो जाती है। यहां हम ध्यान दें कि वेद में उपदेश है कि प्रजा को समझदार बनाने का कर्त्तव्य राजा का होता है। राजा घर-घर वैदिक संस्कृति और सुशिक्षा को पहुंचाने की व्यवस्था करता है, जो कि अपने समय में श्रीराम, हरिश्चंद्र, मनु भगवान, ययाति राजा, दशरथ राजा, श्रीकृष्ण और पांडवों आदि ने की थी। फलस्वरूप जनता सब प्रकार से सुखी थी। दुख की बात है कि आज यह व्यवस्था पूर्णतः नजरअंदाज कर दी गई है, जिस कारण देश के टुकड़े हुए और अब भी देश का भविष्य अंधकारमय है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि जिस देश की सनातन संस्कृति नष्ट कर दी जाती है, उस देश की स्थिरता भी डगमगा जाती है। ‘वंदेमातरम्’ वाक्य का जो आदर, मान-सम्मान स्वतंत्रता संग्राम में सभी वर्गों के नर-नारियों ने किया, उसी सम्मान को मैं आज यहां फिर दोहराना चाहता हूं। ‘वंदेमातरम्’ का उद्घोष एकता, सुरक्षा, अहिंसा और भाईचारे को बढ़ाने वाला है। संस्कृत में ‘वंद’ धातु होती है। जब इसका प्रयोग अपने लिए होता है तो ‘वंदे’ पद बनता है, जिसका अर्थ होता है-मैं वंदना, प्रणाम, स्तुति, आदर, नमस्कार आदि करता हूं। वंदे पद से पहले ‘अहम’ (मैं) पद स्वतः ही जुड़ा होता है, इसलिए इसको ‘अहम वंदे’ कहा जाएगा। ‘अहम वंदे’ का अर्थ हुआ मैं वंदना अर्थात आदर-सम्मान आदि करता हूं। इसका प्रयोग हम ‘अहम् वंदे मातरम्’ के रूप में करेंगे तो इसका अर्थ होगा, मैं अपनी मातृभूमि का आदर, मान-सम्मान करता हूं। अतः मातृभूमि पर बसने वाले जब सब मनुष्य प्रेम से मिलकर वंदेमातरम् बोलते हैं, तब धन, अन्न, औषधि इत्यादि अनेक पदार्थों को देने वाली इस भूमि का हम मान-सम्मान करते हैं। ईश्वर ने वेदों में पृथ्वी के लिए कहा है कि सृष्टि रचना के आरंभ में बिना माता-पिता के बेटा-बेटियों को सहारा देने वाली और उनका औषधियों से पालन करने वाली पृथ्वी, माता के रूप में है। धरती मां आज भी निष्पक्ष होकर हिंदू, मुस्लिम आदि सभी वर्गों को अन्न, धन, फल-फूल, औषधियां, जल आदि अनेक वनस्पतियों के रूप में भोजन देने वाली, हमारे जीवन की रक्षा करने वाली माता है। वर्तमान में भी हमें जो माता-पिता जन्म देते हैं, वे माता-पिता भी पृथ्वी माता से ही जीवन प्राप्त करते हैं, उसी पर वास करते हैं तथा अन्न आदि सभी औषधियां पृथ्वी माता से ही प्राप्त करके हमें भी देते हैं। इसी आदर, मान-सम्मान को अभिव्यक्त करने के लिए एक शब्द और भी आता है-‘पूजा’। पूजा शब्द का अर्थ है-आदर, मान-सम्मान, स्तुति आदि। अब यदि कोई पूजा शब्द का अर्थ अपनी मर्जी से मूर्ति की आरती उतारना या साकार जड़ तत्त्व की पूजा-पाठ अपने स्वयं के नियम और सुविधानुसार करने लगता है, तो यह उसकी अपनी इच्छा है। वह इसके लिए हर तरह से स्वतंत्र है, परंतु जब हम अपनी संस्कृति यानी वेदों के आधार पर वंदेमातरम् कहेंगे तो वंदेमातरम् लिखने वाले का भाव यही था, यही है और यही रहेगा कि मैं अपनी मातृभूमि का आदर, मान-सम्मान करता हूं। इसकी रक्षा हेतु अपने प्राणों तक की आहुति देने में तत्पर हूं। भारत माता की रक्षा के लिए हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सभी योद्धाओं ने समय-समय पर यह शहादत देकर इस विचार को सत्य सिद्ध किया है, परंतु अथर्ववेद मंत्र 12/1/12 में वही अपरिवर्तनशील परमेश्वर सारी पृथ्वी पर बसने वाले मनुष्यों को आज्ञा दे रहे हैं कि ऐ नर-नारियों! कहो कि भूमि माता अर्थात भूमि मेरी माता है। अहम पृथिव्याः पुत्रः अर्थात मैं पृथ्वी का पुत्र हूं। अतः ईश्वर आदेश देता है कि पृथ्वी पर बसने वाले सभी प्राणी, अपनी माता के तुल्य, पृथ्वी के सभी कष्टों को दूर करें। मंत्र का हिंदी में पूरा अर्थ है-हे पृथ्वी! जो तेरा न्याययुक्त कर्म है और जो क्षत्रियों का हितकारी कर्म है और जो बलदायक अन्न आदि पदार्थ तेरे शरीर से उत्पन्न हुए हैं, उन सब (क्रियाओं) के भीतर हमको तू रख तथा हमें सब ओर से शुद्ध कर। भूमि मेरी माता के समान है। पृथ्वी को जल द्वारा सींचने वाला मेघ पिता तुल्य पालक है, वह भी हमें पूर्ण करे। आज यदि कोई भी भाई-बहन इस नारे को बोलना पसंद नहीं करता या इसे फिजूल के विवाद का विषय बना देता है, तो यह उसकी अपनी सोच है। यह भी याद रहे कि अंग्रेजी हकूमत हमें कोड़े मार-मारकर, लालच दे देकर हमारे देश के खिलाफ कई-कई बातें उगलवाती रही या आज भी यदि कोई हिंसक पुरुष किसी मनुष्य पर सख्ती के प्रभाव से कुछ भी झूठ-सच बुलवा ले, तो वह आत्मा की आवाज नहीं होती। अतः धर्म के सही स्वरूप, उसके अर्थ और भाव को इनसान पहले समझे तथा जो ईश्वर ने वैदिक संस्कृति दी है, उसके विस्तार से प्रेमपूर्वक जनता को जब भी यह सच्चाई समझाई जाएगी, तब वहां अवश्य सत्य, भाईचारा और प्रेम उपजेगा। अन्यथा यह जो रोज दूरदर्शन पर किसी विषय को लेकर झड़पें होती हैं, क्रोधाग्नि प्रज्वलित होती है, इससे कोई सत्य सिद्ध नहीं होता, अपितु आपस में विभिन्न समूहों में क्रोध, राग-द्वेष, नफरत आदि की भावना बढ़ जाती है।


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