विष्णु पुराण

By: Sep 9th, 2017 12:05 am

तावदार्त्तिस्तथा वांछा तावमोस्तथासुखम्।

यावन्न याति शरणै त्वामशेषाधन शनम्।।

त्वंप्रसाद प्रसन्नात्मन् प्रपन्नानां कुरुष्व न।

तेजसां नाथ सर्वेषां स्वशक्त्याप्यायन कुरु।।

एवं सस्तूयमानस्तु प्रणतैरमेरेहरिः।

प्रसन्नदृष्टि र्भगवानिदमाह स विश्वकृत्।।

तेजसो भवतां देवाः करिष्याभ्युवर्बृहणन्।

वदाम्यहं यत्क्रियतां भवद्भिस्तदिद सुराः।

आनीय संहिता देत्यै क्षीराब्धौ सकलौषधीः।।

प्रक्षिप्यात्रामृतार्थ ता सकला दैत्यदानवैः।

मंथान मंदर कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम्।।

मथ्यताममृत देवाः सहाये मध्य वस्थिते।

सामपूर्व च दैतेयास्तन्न सहाथ्मर्मणि।।

सामान्य फलभीक्तारो यूयं वाच्या भविष्यथ।

मध्यमाने च तत्राब्धौ यत्समुत्पत्स्तेऽतम्।।

तत्पानाद्वलिनो यूयसमराश्च भविष्यथ।

तथा चाहं करिष्यामि ते यथा त्रिदशद्विषः।

न प्राष्स्यग्त्यमृतं देवाः केवलं क्लेशभागिनः।।

हे नाथ! आपका जो आश्रम सभी प्राणियों के पापों को नष्ट कर देने में असमर्थ है, उसका यह प्राणी जब तक प्राप्त नहीं करता, तब तक वह हीनता, इच्छा, मोह और दुखादि से मुक्त नहीं होता। हे प्रसन्नात्मन हम शरणागतों पर प्रसन्न होकर हमारे नष्ट हुए तेज को अपनी शक्ति से पुनः प्रबुद्ध कीजिए। श्री पाराशरजी ने कहा, विनम्र हुए देवगण द्वारा इस प्रकार स्तुत होकर जगत्स्रष्टा भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर कहा, हे देवताओ! मैं तुम्हारे तेज की पुनः वृद्धि करूंगा। अब मैं जो कुछ कहूं वही तुम करो। तुम दैत्यों से मिलकर सभी औषधियां लाकर अमृत प्राप्ति के निमित्त उन्हें क्षीर सागर में डाल दो, मंदराचल की रई और वासुकि नाग की नेती बनाओ फिर दैत्यों और दानवों  के सहयोग से समुद्र मंथन करो और उससे अमृत निकालो। इस समय तुम साम नीति के अवलंबन पूर्वक दैत्यों के पास जाकर उनसे कहो कि इस कार्य में हमारी सहायता करने के कारण इसके समानीश पर सार्प जोगों का भी अधिकार होगा। हे देवगण! समुद्र मंथन से जिस अमृत की प्राप्ति होगी, उसे पीकर तुम बलवान एवं अमर हो जाओगे। हे देवताओ! उस समय मैं ऐसी युक्ति निकालूंगा, जिससे तुम्हारे बैरी दैत्यगण अमृत प्राप्त न कर सकेंगे और उनके भाग में केवल समुद्र मंथन के परिश्रम से प्राप्त क्लेश ही रहेगा।

इत्युक्ता देवदेवेन सर्व एव तदा सुराः।

संधानमसुरै कृत्वा यत्नवंतोऽभवन्।।

नानौषधीः समानीय देवदतेदानवाः।

क्षिप्त्वा क्षीराब्धिपयसि शरभ्रामलत्विषि।। मंथार मंदरं कृत्वा च वासुकिम्।

ततो मथितमारपब्धा मैत्रेय तरसामृतम्।।

बिबुधाः सहिताः सर्व यतः पुच्छ ततः कृत्वाः। कृष्णेन बसुकेर्दत्या पूर्वकाये निवेशिताः।।

ते तस्य मुखिन श्वासैवह्नितापहतत्विषः।

निस्तेजसोऽसुराः सर्व वभूबुरमितोजसः।।

तेनैव मुखनिः श्वासवायुनास्तबलाहकैः।

पुच्छप्रदेशे वर्षभित्स्तवा चाप्याथिताः सुराः।।

श्री पाराशरजी ने कहा, देव भगवान के ऐसे वचन सुनकर सभी देवताओं ने दैत्यों के पास जाकर संधि कर ली और अमृत प्राप्ति में प्रयत्नवान हुए। हे मैत्रेयजी! देवताओं, दानवों और दैत्यों ने नाना प्रकार की औषधियां ला-लाकर एकत्र की और क्षीर सागर के जल में डाल दिया।


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