सत्य को जानना

By: Sep 16th, 2017 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे… 

शिष्य होना आसान नहीं है। बड़ी तैयारियों की आवश्यकता है; बहुत सी शर्तें पूरी करनी होती हैं। वेदांतियों ने मुख्य शर्तें चार रखी हैं। पहली शर्त यह है कि जो शिष्य सत्य को जानना चाहता है, वह इस लोक अथवा परलोक में कुछ प्राप्त करने की सभी इच्छाओं को त्याग दे। जो हम देखते हैं, वह सत्य नहीं है, जो हम देखते हैं, वह उस समय तक सत्य नहीं है, जब तक हमारे मन में इच्छाएं घुस आती रहती हैं। ईश्वर सत्य है और यह संसार सत्य नहीं है। जब तक हृदय में संसार के लिए तनिक भी इच्छा है, सत्य का उदय नहीं होगा, मेरे चारों ओर का संसार खंडहर हो जाए, मुझे चिंता नहीं। आगामी जीवन में भी ऐसा ही हो, मुझे स्वर्ग जाने की चिंता नहीं है। स्वर्ग क्या है? इस पृथ्वी का ही एक प्रस्तार है। यह स्वर्ग न होता, पृथ्वी पर के इस मूर्खतापूर्ण जीवन का प्रस्तार न होता, तो हम आज की अपेक्षा अच्छी स्थिति में होते और आज जो मूर्खतापूर्ण स्वप्न हम देख रहे हैं, वे जल्दी भंग हो जाते। स्वर्ग जाकर हम केवल इन दुःखमय भ्रमों की अवधि ही बढ़ाते हैं। स्वर्ग में तुमको क्या मिलता हे? तुम देवता हो जाते हो, अमृत पीते हो और तुमको गठिया हो जाता है। वहां पृथ्वी की अपेक्षा दुःख कम है, पर सत्य भी कम है। बहुत धनी लोक सत्य को गरीबों की अपेक्षा कम समझ पाते हैं। ‘सूई के छेद से ऊंट का निकल जाना संभव हो सकता है, पर ईश्वर के राज्य में धनी का प्रवेश संभव नहीं।’ धनी मनुष्य के पास अपनी संपत्ति और शक्ति, अपनी सुविधा और विलास के अतिरिक्त और किसी वस्तु के विषय में सोचने का समय ही नहीं होता। बहुत कम धनी धार्मिक बन पाते हैं। क्यों? इसलिए कि वे सेचते हैं कि यदि वे धार्मिक हो जाएंगे, तो उन्हें जीवन का आनंद नहीं मिलेगा। इसी प्रकार स्वर्ग में आध्यात्मिक हो सकने की संभावना बहुत कम है, वहां अत्यधिक सुविधा और सुख है। स्वर्गनिवासी अपना सुख छोड़ने को तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि स्वर्ग में कभी रुदन नहीं होगा। जो मनुष्य कभी रोता नहीं, मैं उस पर विश्वास नहीं करता, उसके हृदय के स्थान पर कठोर चट्टान का एक बड़ा टुकड़ा होता है। यह स्पष्ट है कि स्वर्ग के लोगों में बहुत सहानुभूति नहीं होती। वहां न जाने कितने लोग हैं और हम दुःखी इस विकट स्थान में कष्ट भोग रहे हैं। वे हमें इस सब में से बाहर निकाल सकते हैं, पर निकालते नहीं। वे रोते नहीं। वहां शोक अथवा दुःख नहीं है, इसलिए वे किसी के दुःख की चिंता नहीं करते। वे अपना अमृत पीते रहते हैं, नृत्य चलते रहते हैं; सुंदर पत्नियां और शेष सब। शिष्य को इन बातों से परे जाकर कहना चाहिए, ‘मैं इस जीवन में किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता और न किसी स्वर्ग की, वे जितने भी हों, मैं उनमें से किसी में नहीं जाना चाहता। मैं किसी रूप में भी इंद्रिय जीवन को नहीं चाहता। अपने को शरीर नहीं समझना चाहता। जैसा मैं अभी अनुभव करता हूं, मैं यह शरीर, मांस का यह बृहत पिंड हूं। यह मैं अनुभव करता हूं कि मैं हूं। मैं इसमें विश्वास करने को तैयार नहीं हूं।’ यह संसार और यह स्वर्ग, ये सब इंद्रियों से बंधे हैं। यदि तुम्हारे इंद्रियां नहीं होतीं, तो तुम संसार की चिंता नहीं करते। स्वर्ग भी संसार है। पृथ्वी, स्वर्ग और वह जो सब बीच में है, उसका केवल एक नाम है, पृथ्वी। इसलिए जो शिष्य अतीत और वर्तमान को जानते हुए और भविष्य की सोचता है, जानता है कि समृद्धि क्या है,  सुख का क्या अर्थ है, वह इन सबको छोड़ देता है, सत्य और केवल सत्य को जानना चाहता है। यह पहली शर्त है।


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