सौभाग्य का प्रतीक सायर

By: Sep 10th, 2017 12:05 am

हिमाचल प्रदेश में तीज-त्योहार पहाड़ी संस्कृति के परिचायक हैं। यहां हर त्योहार और उत्सव का अपना विशेष महत्त्व है। क्रमानुसार भारतीय देशी महीनों के बदलने और नए महीने के शुरू होने के प्रथम दिन को संक्रांति कहा जाता है। लगभग हर संक्रांति पर हिमाचल प्रदेश में कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है,  जो कि हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी संस्कृति का प्राचीन भारतीय सभ्यता या यूं कहें तो देशी कैलेंडर के साथ एकरसता का परिचायक है…

सायर में नाई का महत्त्व

हर शहर में त्योहारों को अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। कांगड़ा के सनौरा गांव के कृपाल सिंह ने बताया  सायर में नाई का महत्त्व। पहले गांव-गांव में अच्छे- बुरे की खबर नाई देता था। उसे सूचना वाहक भी कहा जाता था। इस प्रकार  बरसात खत्म होने और सर्दी का आगमन होने की सूचना भी नाई ही देता था। सदियों पुराना यह रिवाज अभी भी कांगड़ा में प्रचलित है। आज भी नाई  घर-घर सायर माता को सुबह के 4-5 बजे के करीब एक  टोकरी में इस तरीके से सजाकर लाता है मानों दुल्हन डोली में बैठी हो। फिर घर के सभी सदस्य सायर माता को प्रणाम करके कुछ भी मीठा बनाया हो, नाई को दिया जाता है।

सायर पूजन की सामग्री

सायर से एक दिन पहले घर में कुछ जरूरी चीजों को इकट्ठा कर लिया जाता है। इन जरूरी चीजों को अपने घर के आंगन में इष्ट देव के पास एक टोकरी में रख दिया जाता है। कहीं- कहीं इसे तुलसी के पास भी रखा जाता है। सायर से एक दिन पहले जो चीजें इकट्ठा करनी होती हैं, वे निम्नलिखित हैं

धान का पौधा, तिल का पौधा, कोठा का पौधा, एक दाडू, एक पेठा, एक मक्की, कुछ अखरोट, ककड़ी, एक पुराना सिक्का, एक खट्टा, एक कचालू का पौधा आदि। अगली सुबह सवेरे ही सायर की सामग्री वाली टोकरी को घर के अंदर लाया जाता है। इस टोकरी में गणेश जी को स्थापित कर सारी सामग्री की पूजा की जाती है। रक्षा बंधन को बंधी डोरी को भी आज ही के दिन खोला जाता है और उसे भी सायर के पात्र में रख दिया जाता है। परिवार के सभी सदस्य एक-एक करके सायर के पात्र को माथे से लगा लेते हैं और प्रार्थना करते हैं कि जिस प्रकार इस बार सुखपूर्वक आई है आगे भी ऐसे ही आते रहना। सायर पूजन के बाद उसे गौशाला में घुमाया जाता है और फिर पानी में विसर्जित कर दिया जाता है।

पकवानों का महत्त्व

प्राचीन काल में सायर का  उत्सव आठ दिनों तक मनाया जाता था। लोग अपने सगे- संबंधियों के पास अखरोट व पकवानों की भेंट ले जाते हैें और इस उत्सव को बड़े ही प्यार और ख़ुशी के साथ मनाते हैें। इस दिन लोग कई तरह के पकवान बनाते हैं। पकवानों में पतरोडू, कचौडि़यां, भल्ले, खीर, बबरू, छोटी-छोटी डिजाइन डालकर मीठी रोटी आदि बनाए जाते हैं।  इन पकवानों को अपने गांव के हर घर में बांटा जाता है। परिवार के लोग दूध, दही, घी, मक्खन और शहद के साथ बड़े ही स्वाद के साथ खाते हैें।

सोलन  के अर्की  का सायर मेला

अर्की की अनिता जी ने बताया कि भादों का महीना समाप्त होते ही आश्विन महीना शुरू होता है। इस संक्रांति को जो उत्सव पड़ता है वह है सायर उत्सव। यह उत्स्व हिमाचल के सीमित जिलों में मनाया जाता है। हां, मनाने का ढंग अलग-अलग हो सकता है। सोलन के अर्की में यह उत्सव राजाओं के जमाने से चला आ रहा है। कहा जाता है कि बरसों पहले महोत्सव के पहले दिन झोटों की बलि दी जाती थी। उसके पश्चात झोटों की लड़ाई आरंभ हुई परंतु गत 2 वर्षों से माननीय न्यायालय के आदेशों पर इस लड़ाई को बंद कर दिया गया। अब केवल झोटों की प्रदर्शनी आयोजित की जाती है तथा दूसरे दिन दंगल का आयोजन किया जाता है। काली मां के पूजन से सायर उत्सव का शुभारंभ होता है। इस दिन लोग सुबह उठकर नजदीकी किसी बावड़ी से जल भर कर लाते हैं तथा इस जल को सभी पारिवारिक सदस्यों के ऊपर छिड़का जाता है। इसके साथ ही मक्की तथा गेहूं के सिल्ले का पूजन भी किया जाता है।

कांगड़ा की  सायर

कांगड़ा की सविता दत्ता का कहना है कि भादों में जो नई नवेली दुल्हनें अपने मायके गई होती हैं, वे भी आश्विन महीने में वापस आ जाती है। तीज त्योहार पहाड़ी संस्कृति के परिचायक हैं। यहां पर हर उत्सव का अपना विशेष महत्त्व होता है। लगभग हर संक्राति में हिमाचल प्रदेश में कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। सायर उत्सव को कांगड़ा में इस प्रकार मनाते हैं कि सुबह तड़के पहले पहर नाई आएगा, जो परंपरा अनुसार सायर की पूजा करवाएगा। हम लोग सुबह- सुबह फसल की पूजा करते हैं उसके बाद भगवान को फल अर्पित किए जाते हैं। उसके बाद तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। मसलन ः पतरोड़, पकौड़ू और साथ में बहुत सारी सब्जियां और भटूरू बनाए जाएंगे। फिर आस-पड़ोस में ये पकवान बांटे जाते हैं।

मंडी की  सायर

मंडी की आंचल का कहना है कि सायर के अवसर में मंडी में अनेक मेलों का आयोजन किया जाता है। मंडी जनपद की मशहूर नलवाड़ का आगाज भी सायर मेले में किया जाता है। मंडी में सायर के दिन आस-पड़ोस में अखरोट की भेंट दी जाती है। कचौड़ी मंडी भाषा में (स्वालु) बिना दाल वाले जो होते हैं, वे बनाए जाते हैं और घर-घर बांटे जाते हैं।

बडों का आशीर्वाद

हमारी जिंदगी में त्योहर खास महत्त्व रखते हैं। त्योहार ही हमें  एक- दूसरे के करीब लाते हैं, मनमुटाव को मिटाते हैं। सायर का त्योहर आ रहा है। अपनेपन की भावना का प्रतीक है सायर। कुछ इलाकों में सबसे ज्यादा मंडी में इस खेलों को अखरोट से खेल कर मनाया जाता है। इस दिन घर के सभी सदस्य बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी अखरोट एक साथ खेलते हैं और घर के बड़ों को अखरोट देकर उनसे आशीर्वाद लेते हैं। बड़े भी आशीर्वाद के तौर पर अपने से छोटों को अखरोट देते हैं, लेकिन अब धीरे-धीरे यह रिवाज खत्म हो रहे हैं।

सैरू घास का महत्व

इस दिन पालतू पशुओं को सैरू घास चराया जाता था। सैरू घास वह घास होता है जिसे बरसात में जंगल में पशुओं के लिए बचा कर रखा जाता था और सायर के दिन पशुओं को उस स्थान पर चराया जाता था, लेकिन अब कहां वह जंगल और वह सैरू घास। अब तो घर में घास खिलाकर इस रीत को निभाया जाता है।

अब वह बात कहां

अब कहां ऐसे त्योहार मनाए जाते हैं। सब अपनी  जिदंगी में अस्त-व्यस्त हो गए हैं कि किसी को यह भी पता नहीं होता है कि कौन सा त्योहार कब है। अब एक-एक बच्चा होता है, तो उसको भी घर से बाहर नहीं निकालते, तो आज की पीढ़ी को क्या पता होगा कि कौन सा त्योहार कैसा है। आज की पीढ़ी इन सब बातों से किनारा कर रही है, जोकि प्राचीन संस्कृति के लिए घातक है।

अखरोट की बाजी

सायर उत्सव में अखरोट का विशेष महत्त्व है। सायर से कुछ दिन पहले ही अखरोट पेड़ से उतार लिए जाते हैं उनका छिलका निकालने के बाद उन्हें धूप में सुखाया जाता है और सायर उत्सव के लिए उन्हें संभाल कर रख लिया जाता है। सुबह- सुबह ही लोग गांव में अखरोट खेलने के लिए भीड़ लगा देते हैं और दिन भर हार जीत की बाजी चलती है। अखरोट खेलने के लिए भी एक विशेष जगह कुछ दिन पहले तैयार की जाती है, जिसे खीती कहते हैं। कुछ  दूरी पर क्रमानुसार अखरोट फेंके जाते हैं, जिसे अपनी पहाड़ी मंडियाली भाषा में (मीर) देना कहते हैं। खीती से अखरोट की दूरी के अनुसार खेलने वाले की बारी आती है। इस दिन जुर्माना भी रखा जाता है। अगर किसी का निशाना चूक जाता और किसी और अखरोट में निशाना लग जाता तो जुर्माने के रूप में अखरोट देना पड़ता है। एक व्यक्ति के पास विशेष प्रकार का बड़ा अखरोट होता है, जिसे भुट्टा कहते हैं। यह बड़ा अखरोट न हो तो उसकी जगह हम पत्थर का इस्तेमाल कर लेते हैं। भुट्टा मालिक अपना भुट्टा उधार नहीं देता है, बल्कि उसके बदले अखरोट लेता है।

सिक्कों से खेलना

कुछ इलाकों में  इस खेल को सिक्कों से भी खेला जाता है। जमीन में एक छोटा सा गड्ढा दो या तीन इंच किया जाता है। साथ एक लकीर भी खींची जाती है। उस लकीर से पीछे सिक्का फेंकने पर फाउल माना जाता है। सभी खिलाड़ी एक-एक करके इस गढ्ढे में सिक्का डालने की कोशिश करते हैं। जिसका सिक्का डल गया उसको पहले अपनी बारी खेलने का मौका मिलता है, फिर वह भुट्टे से किसी एक सिक्के पर निशाना लगाता है और निशाना सही लगा तो सभी सिक्के उसी के हो जाते हैं।


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