स्वच्छता से पहले सुरक्षा की जरूरत

By: Sep 16th, 2017 12:02 am

डा. सीमा परिहार

लेखिका, राष्ट्रीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, शिमला से संबद्ध हैं

हर साल हम रावण को जलाते हैं, लेकिन आज हर कोने में दुबके उस रावण का क्या करें, जो हर वक्त नारी की अस्मिता से खेलने को आतुर बैठा है? हालांकि दुष्कर्म सरीखी आपराधिक व अमानवीय घटनाएं तो हमारे एक जिम्मेदार नेता के अनुसार रोज घटती हैं…

असहाय सा आदमी बेमौत मर रहा है और आप स्वच्छता अभियान में लगे हैं। स्वच्छता पखवाड़ा मना रहे हैं। सही तो है। हिंदू संस्कारों में आदमी की मृत्यु के बाद जब उसकी अर्थी घर से उठती है, तो घर के लोग पीछे से सफाई शुरू करते हैं। घर के पूरे बरतनों से लेकर झाडू, पोंछा सब लगाया जाता है। बरतन मांजे जाते हैं और गांवों में तो यह भी परंपरा है कि चूल्हे में पानी से जलती हुई अग्नि भी बुझा दी जाती है। बडे़ बुजुर्ग बताते हैं कि ऐसा इसलिए किया जाता है कि मरने वाले के पीछे अगर गंदगी फेंक दी जाए तो उसका अपने प्रियजनों के लिए मोह समाप्त हो जाता है और वह दुःखी होकर अपनों और इस संसार का मोह त्याग देता है। पिछले दो तीन वर्षों से आदमी की जान की कीमत घट गई है और ध्येय है तो महज आदमी के बैंक खातों और स्वच्छता पर। आज वस्तुएं महंगी और आदमी की जान इतनी सस्ती हो गई है कि बच्चा हो, बूढ़ा हो, महिला हो या पुरुष हो, कोई भी सुरक्षित नहीं है। पता नहीं किन कारणों से कहीं पर भी आपको कोई भी कभी भी अपना शिकार बना सकता है। पता नहीं कौन, किस कोने में घात लगाकर बैठा है और समाज में रहने वाले आम आदमी के पास उस बेमौत मारे जाने वाले के लिए श्रद्धांजलि स्वरूप रह गया है, तो सिर्फ कैंडल मार्च और अपने रोष जताने के लिए थोड़ी-बहुत तोड़-फोड़। क्योंकि समाज के कुछ लोगों के पास आदमी के दुःख में वह सांत्वना नाम की दवा आज भी है। पर इस बात की भी कोई गांरटी नहीं कि आज के कैंडल मार्च में शामिल वह शख्स क्या पता कल खुद ही कैंडल मार्च का कारण बन जाए यानी अपराधी बन जाए। एक समय था

जब बच्चों को स्कूल जाते हुए सिखाया जाता था, बेटा गांव के कुत्तों और जंगली जानवरों से बच कर रहना। आज वह समय है जब सिखाया जाता है कि बेटा किसी के हाथ का खाना मत खाना, कोई बुलाए तो जाना मत और किसी से बात भी मत करना। आखिर क्यों, क्यों बदल गई हमारे समाज की यह तस्वीर और कहां गए हमारे वे संस्कार जिनमें कहा जाता था कि विश्व एक कुटुंब है। स्वामी विवेकानंद जी तो 1893 में आज से लगभग 125 वर्ष शिकागो कहकर आए थे कि ‘हम सब भाई-बहन हैं’। सुबह -सुबह स्कूलों में शपथ दिलाई जाती है कि हम सब भाई-बहन हैं और यह शपथ हर एक भारतीय ने ली है, चाहे वह किसी भी स्कूल की उपज क्यों न हो। फिर क्या यह सब ढोंग है जो हम करते हैं। शक्तिपीठों पर श्रद्वालुओं की भीड़ है और एक आम लड़की अगर अकेली घर से निकल गई, तो मौका देखकर उसे शिकार बना लिया जाएगा। ऐसा भी नहीं है कि उसको मारने वाले कभी दुर्गा के मंदिर में उनकी आराधना के लिए न गए हों। तो यह दोगली सोच क्यों और हमारी कथनी और करनी में इतना अंतर क्यों? अरे जंगल तो दूर, कभी दिन में अगर आपको अपनी सोशल साइट्स फेसबुक आदि चैक करने का समय न मिल पाए और आप रात को 10-11 बजे के बाद ऑनलाइन हो जाओ तो हाय-हैलो 100 मैसेज आ जाएंगे। मतलब कुछ लोगों की सोच है कि रात को सोशल साइट्स पर सिर्फ गलत लड़कियां ही हो सकती हैं। बस कुछ ही दिनों बाद हम हर वर्ष कि भांति इस वर्ष रावण को जलाएंगे। सीता का अपहरण करने के कारण आज भी हम रावण को जलाते हैं, पर हममें से कोई भी बुद्धिजीवी आज तक यह नहीं सोच पाया कि यदि रामायण सत्य है, तो यह भी सत्य है कि रावण एक महाज्ञानी और तपस्वी था।

उसने सिर्फ अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए सीता का अपहरण किया और जिस मर्यादा के साथ उसने माता सीता को रखा, वह आज के दौर के लिए एक मिसाल है। फिर भी हर साल हम रावण को जलाते हैं। लेकिन आज हर कोने में दुबके उस रावण का क्या करें, जो हर वक्त नारी की अस्मिता से खेलने को आतुर बैठा है? यह सब संयोग मात्र नहीं है। हालांकि दुष्कर्म सरीखी आपराधिक व अमानवीय घटनाएं तो हमारे एक जिम्मेदार नेता के अनुसार रोज घटती हैं। खैर, रावण को तो पूरा देश फिर से जलाएगा, लेकिन बलात्कारियों और हत्यारों से आज इस देश की जेलें भरी पड़ी हैं। कुछ अपराधी तो सिद्ध न होने के कारण खुले घूम रहे हैं। उनको कैसे सजा देंगे? यह मेरा नहीं उस रावण का प्रश्न है। क्या हम सक्षम नहीं हैं आज भी एक आदर्श समाज का निर्माण करने में? नहीं कहते हम कि कानून बना लो और अपराधी को सख्त से सख्त सजा दो, पर कम से कम समाज को एक नारा तो दो अपने भीतर छिपे हुए किसी शैतान से दूसरों की रक्षा करने का। एक प्रयास सरकार करे और उस प्रयास पर अमल लोग करें। इस समाज को जितनी आवश्यकता साफ-सुथरा रहने की है, उससे भी कहीं ज्यादा सुरक्षित रहने की है। आप बात करते हैं ‘स्वच्छ संकल्प से स्वच्छ सिद्धि’ की, हम बात करते हैं स्वच्छ संकल्प से सामाजिक सुरक्षा की। समाज में एक ऐसी सोच विकसित करने की कि आदमी-आदमी से भयभीत न हो, बल्कि जंगल के किसी रास्ते से जब आप अकेले गुजर रहे हों, तो किसी आदमी को देखकर आपको यह न लगे कि काश मुझे कोई जानवर मिल जाता, तो इस आदमी का ध्यान बंट जाता। क्या हममें से हर कोई एक ऐसी सोच के साथ नहीं चल सकता कि हमारे दिल में प्रत्येक के लिए अपने परिवार के सदस्य की तरह ही सुरक्षा का भाव हो। सभी अपनी सोच बदल लेंगे तो समाज खुद ही स्वच्छ और सुरक्षित हो जाएगा।


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