हफ्ते का खास दिन

By: Sep 10th, 2017 12:05 am

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय

15 सितंबर, 1876

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म, 15 सितंबर, 1876 ई. को हुगली जिले के एक देवानंदपुर गांव में हुआ था। शरतचंद्र अपने माता-पिता की नौ संतानों में एक थे। शरतचंद्र ने अठारह साल की उम्र में बारहवीं पास की थी। शरतचंद्र ने इन्हीं दिनों ‘बासा’ नाम से एक उपन्यास लिख डाला, पर यह रचना प्रकाशित नहीं हुई। कालेज की पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर वह तीस रुपए मासिक के क्लर्क होकर बर्मा (वर्तमान में म्यांमार)पहुंच गए। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की कथा-साहित्य की प्रस्तुति जिस रूप-स्वरूप में हुई, लोकप्रियता के तत्त्व ने उनके पाठकीय आस्वाद में वृद्धि ही की है। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय अकेले ऐसे भारतीय कथाकार भी हैं, जिनकी अधिकांश कालजयी कृतियों पर फिल्में बनीं तथा अनेक धारावाहिक सीरियल भी बने। इनकी कृतियां देवदास, चरित्रहीन और श्रीकांत के साथ तो यह बार-बार घटित हुआ है। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय यथार्थवाद को लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे थे। यह लगभग बांग्ला साहित्य में नई चीज थी। उनकी कहानियों में भी उपन्यासों की तरह मध्यमवर्गीय समाज का यथार्थ चित्र अंकित हैं। शरतचंद्र प्रेम कुशल के चितेरे थे। इनकी कुछ कहानियां कला की दृष्टि से बहुत ही मार्मिक हैं। ये कहानियां शरत के हृदय की संपूर्ण भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन्होंने कहानियां अपने बालपन के संस्मरण से और अपने संपर्क में आए मित्र व अन्य जन के जीवन से उठाई हैं। ये कहानियां जैसे हमारे जीवन का एक हिस्सा हैं, ऐसा प्रतीत होता है। महात्मा गांधी ने कहा था, पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। विश्वविख्यात बांग्ला कथाशिल्पी शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने गांधी जी के उपरोक्त कथन को अपने साहित्य में उतारा था। उन्होंने पतिता, कुल्टा, पीडि़त दबी-कुचली और प्रताडि़त नारी की पीड़ा को अपनी रचनाओं में स्वर दिया। शरतचंद्र के मन में नारियों के प्रति बहुत सम्मान था। वह नारी हृदय के सच्चे पारखी थे। उनकी कहानियों में स्त्री के रहस्यमय चरित्र, उसकी कोमल भावनाओं, दमित इच्छाओं, अपूर्ण आशाओं, अतृप्त आकांक्षाओं, उसके छोटे-छोटे सपनों, छोटी-बड़ी मन की उलझनों और उसकी महत्त्वाकांक्षाओं का जैसा सूक्ष्म, सच्चा और मनोवैज्ञानिक चित्रण-विश्लेषण हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। शरतचंद्र का संपूर्ण साहित्य नारी के उत्थान से पतन और पतन से उत्थान की करुण कथाओं से भरा पड़ा है। शरतचंद्र अपनी कहानियों में केवल पीडि़त-प्रताडि़त नारी की पतनगाथा नहीं गाते, सिर्फ  उसके पतिता और कुल्टा हो जाने की कथा नहीं कहते, उसके स्नेह, त्याग, बलिदान, ममता और प्रेम की पावन कथा भी सुनाते हैं। उसके मन में यह प्रश्न कहीं गहरे घर कर जाता है कि एक ही स्त्री के दो रूप कैसे हो सकते हैं और वह यह नहीं समझ पाता कि आखिर वह नारी के किस रूप को स्वीकार करे। शरतचंद्र अपनी कहानियों में नारी हृदय की गांठों और गुत्थियों को जिस कुशलता से खोलते हैं, उनकी रचनाओं में नारी का जो बहुरूप सामने आता है, वैसी झलक विश्व साहित्य में कहीं नहीं मिलती।

 


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