हिंदी के साथ हिमाचली

By: Sep 14th, 2017 12:08 am

शब्द सागर के बीच भाषायी सरिताओं के द्वंद्व अगर भौगोलिक पहचान है, तो भारतीय परिप्रेक्ष्य में हिमाचली पहचान का यह रूप संगठित नहीं है। हिमाचली समाज व संस्कृति की आत्मा ने अपनी बोलियों को प्रकृति के आलोक में बुनियादी स्वरूप दिया, तो प्रगति के बदलते परिदृश्य में भाषा का संघर्ष भी शुरू हुआ। हिमाचल में पंजाब के पर्र्वतीय क्षेत्र शामिल न होते या सियासी जरूरतों के नए समीकरण न उभरते, तो आज भी बोलियों के बीच नागरिक समुदाय के झुंड भी अलग-अलग दिखाई देते। उस दौर में आकाशवाणी जालंधर ने पंजाबियत के बीच पहाड़ी क्षेत्रों को ‘पर्वत की गूंज’ का तराना दिया, तो उस संगीत की विरासत को हिमाचल में शामिल करने से इसका प्रभाव बढ़ा। ऐसे में जब हिमाचल अपनी बोलियों को पर्वतीय अस्मिता के शब्दों में ढाल रहा था, तो कहीं प्रदेश ने भाषायी राष्ट्रवाद का अलख जलाकर हिंदी को अपने वजूद की पहचान बना लिया। शांता कुमार के इस दौर का हिंदी प्रेम बेशक राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी राज्य की संख्या में वृद्धि कर गया, लेकिन विभिन्न बोलियों के संपर्क से हिमाचली भाषा की साधना थम गई। कहना न होगा कि हिंदी राज्य की प्रशासनिक कसौटी पर शांता कुमार सरकार का ऐलान भाषायी स्तर पर जो हासिल कर पाया, उसकी संगत में साहित्य सृजन तो हुआ, लेकिन तहजीब में हिमाचल हिंदी और गैर हिंदी राज्य की सीमा पर खड़ा हो गया। हमारी हिंदी का असर न पाठ्यक्रम को रट पाया और न ही समाज को दृष्टि दे पाया। अगर ऐसा होता तो अध्ययन तथा प्रयोग की परिभाषा में हिंदी का प्रारूप सभी को मोहित कर लेता। हिंदी राज्य केवल एक हुकूमत की पहचान में देखा गया, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर अहिंदी राज्य होते हुए भी पड़ोसी पंजाब व जम्मू-कश्मीर के लेखक समुदाय का स्थान बड़ा हो गया। गैर हिंदी राज्यों की हिंदी रचनाओं की पहचान का राष्ट्रीय अवलोकन जो ऊर्जा पैदा करता है, उससे हटकर हिमाचल को ठेठ हिंदी राज्यों की पांत में पांव जमाने की मेहनत करनी पड़ती है। बहरहाल हिंदी के साथ चलते हुए हिमाचल ने सृजनशीलता के नए आयाम स्थापित किए और इस दौरान राज्य के कुछ प्रकाशन, सरकारी सान्निध्य की पहचान बन गए। हिंदी के फलक पर हिमाचली दायित्व की भाषायी कहानी से ओत-प्रोत प्रकाशन, अपने औचित्य को सहेज पाए, तो यह दौर प्रदेश के अधिकारियों-कर्मचारियों का साहित्यिक उत्थान से हरा-भरा भी रहा। हिमाचल का साहित्यिक समुदाय किसी न किसी रूप में सरकारी नौकरी का प्रतिनिधित्व भी करता रहा और इसीलिए कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग या अकादमी ने इन्हीं शब्दों को लगातार रेखांकित किया। साहित्य जगत में हिमाचली लेखकों ने अपने हस्ताक्षर मजबूत किए हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं कि हिंदी राज्य होने से कोई विकासवाद चिन्हित हुआ, बल्कि पर्वतीय सृजन ने अपने आयाम स्थापित किए। साहित्य के खेत में हिमाचली फसल कितनी पकी, उसका जिक्र हुआ, लेकिन पहाड़ की बोलियों में लेखन का अभिप्राय भाषा में नहीं बदला। हिमाचल के साथ हिंदी चली, तो कुछ लेखक मीलों आगे निकल गए, फिर भी उन धागों को आज तक नहीं बुना गया जहां बोलियों से भीगे शब्द हिमाचली भाषा को मुकम्मल कर पाते। भाषायी राष्ट्रवाद के सहचरी होने के नाते हमारी शिनाख्त मजबूत हो गई, लेकिन तिनकों पर बैठी हिमाचली अभिव्यक्ति आज भी सारी बोलियों को एकसूत्र में पिरोने से शर्माती है। हिमाचल के हिंदी सृजन की अगर एक-एक शाखा भी बोलियों को जोड़ती तो यकीनन हिमाचली भाषा के लफ्ज पारंगत हो जाते। बेशक जब हम एसआर हरनोट सरीखे लेखकों की कहानियों को दिल से महसूस करते हैं तो वहां प्रादेशिक एहसास होता है, लेकिन शब्दों को चुनने व बुनने के महाप्रयास के बीच लड़खड़ाती बोलियां आज भी भाषायी क्षेत्रफल का विस्तार नहीं कर पाईं। हिंदी के साथ चलते हिमाचल ने अपने मीडिया और मंच को सशक्त किया है और इसीलिए अब सहजता से कही हुई बात दूर तक सुनी जाती है। राष्ट्र भाषी तिलक के ठीक नीचे अगर हिमाचली भाषा की एकरूपता को संगठित करती बिंदी लग जाए, तो सृजन की रूह के दर्शन भी हो सकते हैं, क्योंकि बोलियों के प्रभाव और प्रवाह से ओत-प्रोत हिमाचल कहीं अनपढ़ व अधूरा है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App