हिमाचली फासले

By: Sep 16th, 2017 12:02 am

टूटे पंख की पीड़ा सहलाने से दूर नहीं होती और न ही फुसलाने से कम होते हैं फासले। हिमाचल के फासले कितने सामाजिक-कितने राजनीतिक, इस पर चिंतन की आवश्यकता है। सोशल मीडिया में किसी ने उछाल दिया कि प्रदेश के किस हिस्से की धाम अव्वल है और प्रश्नावली के ठीक नीचे हम हिमाचली बंट गए। हमारी सोच की सीमा ही विवाद है, वरना शिमला के समारोह में हिमाचल की टोपी न उछलती। प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पसंदीदा टोपी का रंग हरा हो सकता है, लेकिन हमारे व्यवहार पर किसी तरह का रंग नहीं चढ़ना चाहिए। एक विशेष रंग की टोपी को पहनने से इनकार करना भी एक फासला है और इसकी व्यथा भी। आश्चर्य है कि हिमाचली फितरत में पनप रहा क्षेत्रवाद खाने व पहनने तक को बांट रहा है, तो हमारी संकीर्णता का सार क्या होगा। हिमाचल की संपूर्णता इसके सांस्कृतिक धरातल की पहचान है, लेकिन राजनीति ने स्थापित मूल्य, व्यवहार व आदतों को बंधक बना लिया। ऐसे प्रयास नहीं होते कि हम एक साथ और एक जैसे दिखें। आज भी हम पत्तल पर धाम के जरिए जो नक्शे बनाते हैं, वहां चंबियाली, मंडयाली, कांगड़ी, कुल्लवी या बिलासपुरी देख सकते हैं। हमारा स्वाद हमें विभक्त कर दे, तो भी पांत में हिमाचली होने को अलग दिखाई नहीं देना चाहिए। सिड्डू ने यह कमाल किया और अब यह पकवान पूरे हिमाचल की शान बन गया। कुल्लू शाल ने पूरे हिमाचल के रंगों को एक साथ बुन डाला, तो यह हिमाचल का ब्रांड बन गया। ऐसे में जब हम किसी को टोपी या शाल देते हैं, तो देश में ये उत्पाद पूरे हिमाचल की विशेषता प्रकट करते हैं। आश्चर्य है कि प्रदेश सरकार के मुखिया ने टोपी की शान के बजाय, रंग को आन मान लिया। ऐसे में कब हम एक बोली, एक भाषा व एक रंग में समाहित होंगे। क्या हिमाचल अब क्षेत्रवाद की हकीकत बन चुका है और अगर सियासत यह कर रही है तो समाज भी पीछे नहीं। गली-नुक्कड़ तक सीमित हमारा वजूद क्या जाने कि अगर हम चाहें तो पूरा हिमाचल एक मोहल्ले की तरह नजदीक होगा। हिमाचल सेब राज्य है, लेकिन पूरा प्रदेश सेब नहीं उगा सकता। चाय के बागीचे अगर सीमित हैं, तो भी कहीं हिमाचल की उत्पादकता का जिक्र होता है। देश के लिए शहीद होते सैनिक को हम अपने प्रदेश की छाती से लगा सकते हैं, तो टोपी के लिए एक रंग से क्यों माहौल बदरंग हो सकता है। चंबा की चप्पल का उत्पादन अगर कांगड़ा में होता है, तो भी उसका ही नाम होता है। इसी तरह भुट्टिको ने अगर शाल-टोपी को अंतरराष्ट्रीय बाजार दिया, तो इस कला का गौरव हिमाचली हो जाता है। जाति-धर्म के आधार पर बंटना अगर गैर जरूरी है, तो केवल क्षेत्र के आधार पर बंट जाना भी घोर अपराध है। विडंबना यह है कि हिमाचल को अब तक सीमित परिधि में देखा जाने लगा है। यहां सियासत ने सरकारों को मजबूर किया या मजदूरी यह रही कि जनता की खुशामद की जाए। इसलिए कर्मचारी स्थानांतरण की कोई पद्धति नहीं बनी और नौकरी हमारे क्षेत्रवाद की बुनियाद बन गई। प्रदेश की जरूरतों के लिहाज से कर्मचारी-अधिकारी चयन या स्थानांतरण की बागडोर भी अगर क्षेत्रीय अधिकार पर चले, तो हिमाचल का आधार कितना सिकुड़ या सिमट जाएगा। विडंबना भी यही है कि हमारे होने की पहचान गली-मोहल्ला कर रहा है, जबकि राज्य स्तरीय सोच के पैमाने समाज से राजनीति तक एक समान होने चाहिएं। समाज के बीचोंबीच सियासी युद्ध क्षेत्र बने और इसीलिए सरकारी नीतियां भी बदल-बदल कर टोपी पहन या पहना रही हैं। आश्चर्य यह कि जो सामाजिक परिवेश में असुरक्षित है, उसके राजनीतिक परिदृश्य में जिंदा रहने की उम्मीद रखी जा रही है। इसलिए हमारी संस्कृति भी राजनीतिक प्रतीक बन गई और हमने मंच सजा कर स्वांग रचे। पहले एकमात्र कुल्लू दशहरा होता था, अब हर नेता के मैदान पर होता है। पहले केवल सुजानपुर का होली मेला हर रंग से भर जाता था, अब हर नेता की होली का अलग रंग होता है। जिस टोपी की रंग से पहचान हो रही है, पहले हिमाचल की यही पहचान होती थी। यह मेरी पसंद है कि मैं कैसी टोपी पहनूं, मगर यहां तो कोई हिंदू-कोई मुसलमान बन जाता है। आश्चर्य यह कि हिमाचल में टोपी का रंग सियासत का ढंग बता रहा है, लेकिन कोई यह नहीं सोच रहा कि राजनीति का यह  आलम बदरंग-बदसूरत है।


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