एक-दूसरे के पूरक हैं शिव-शक्ति

By: Oct 21st, 2017 12:05 am

यह संपूर्ण विराट जगत 36 तत्त्वों से बना है। शिव के बिना शक्ति नहीं और शक्ति के बिना शिव नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते। समस्त जगत का मूल कारण शक्ति है। शक्ति ही अपने भीतर समस्त जगत को धारण किए रहती है। शक्ति द्वारा जगत की अभिव्यक्ति होने के समय शिव के दो रूप प्रकट होते हैं…

साधना में शिव-शक्ति के तत्त्व निरूपण को समझना जरूरी है। यह संपूर्ण विराट जगत 36 तत्त्वों से बना है। शिव के बिना शक्ति नहीं और शक्ति के बिना शिव नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते। समस्त जगत का मूल कारण शक्ति है। शक्ति ही अपने भीतर समस्त जगत को धारण किए रहती है। शक्ति द्वारा जगत की अभिव्यक्ति होने के समय शिव के दो रूप प्रकट होते हैं। पहली अवस्था में इस प्रकार का ज्ञान होता है कि मैं ही शिव हूं, वही सदाशिव तत्त्व है। दूसरी अवस्था ईश्वर तत्त्व है, जो जगत को अपने से भिन्न रूप में देखता है। जगत मैं ही हूं, इस प्रकार ईश्वर की वृत्ति का नाम माया है। शुद्ध विद्या को आच्छादित करने वाली को अविद्या कहते हैं, यह सातवां तत्त्व है। इस विद्या से आच्छन्न होकर सर्वज्ञ अपने को अल्पज्ञ व सर्वकर्तृत्त्वशक्ति कुछ करने की  शक्ति बन जाती है, यह कला है। नित्यतृप्ति संकुचित होकर अपूर्ण तृप्ति बन जाती है, यही राग (तत्त्व) है। उनका नित्यत्त्व संकुचित होकर सीमित होकर काल तत्त्व कहलाता है। सर्व-व्यापकता का संकुचित होकर नियत देश में संकीर्ण हो जाना ही नियति तत्त्व है। ये छह संकोचनकारी तत्त्व हैं। इन्हें छह कंचुक भी कहते हैं। इन छह कंचुकों से बद्ध शिव ही जीव रूप में तेरहवें तत्त्व के रूप में प्रकट होता है। चौदहवां तत्त्व प्रकृति है, अर्थात सत्, रज, तम तीनों की साम्यावस्था। रजोगुण प्रधान अंतःकरण संकल्प का हेतु है, यही मन है। जब सत्वप्रधान होता है, तो वह बुद्धि है, निश्चयात्मक ज्ञान का हेतु। तमोगुणप्रधान अंतःकरण अहंकार है। इसके बाद पांच ज्ञानेंद्रिय, पांच कर्मेंद्रिय, पांच तन्मात्रा और पांच स्थूल महाभूत मिलकर छत्तीस तत्त्व होते हैं। इन 36 तत्त्वों को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है। शिव तत्त्व में शिव व शक्ति तत्त्व की गणना होती है, जिनमें सत्, चित् और आनंद तीनों अनावृत हैं। सदाशिव, ईश्वर और शुद्धविद्या-ये तीन विद्या तत्त्व हैं। इनमें आनंद अंश आवृत रहता है और सत्चित् अनावृत। शेष 21 तत्त्व आत्मतत्त्व हैं, क्योंकि इनमें आनंद और चित् दोनों ही आवृत हैं। मानव शरीर इन्हीं तत्त्वों से युक्त है, इस शरीर में स्थित छह चक्रों के बारे में बहुत कुछ बताया जा चुका है। कुंडलिनी का ज्ञान अत्यंत गूढ़ एवं रहस्यमय है तथा जिस पर गुरुकृपा हो तथा भगवती जिसके अनुकूल हो, वही आत्मशक्ति के मूल रूप कुंडलिनी के तत्त्व को समझ पाता है। जो व्यक्ति इस तत्त्व को जान लेता है, वह स्वयं में स्वयं को पा जाता है, अर्थात वह पूर्णकाम शिवरूप हो जाता है। इसके बाद भक्त की कोई इच्छा शेष मात्र नहीं रहती है। वह संपूर्णता को प्राप्त हो जाता है। संपूर्णता वह स्थिति है जहां राग-द्वेष और अहंकार की कोई जगह नहीं है। इस स्थिति में पहुंचकर भक्त अथवा साधक परमात्मा के निकट हो जाता है। वह उसी परमात्मा के चरणों में लीन होकर परमानंद को प्राप्त करता है। यहां पहुंचकर भौतिक पदार्थों का महत्त्व क्षीण हो जाता है। यहां सिर्फ अध्यात्म का महत्त्व है। इसे परमानंद की स्थिति भी कहते हैं। यहां तक पहुंचने के लिए साधक को कठिन परिश्रम करना पड़ता है, लेकिन जब उसे परमानंद मिल जाता है तो उसे छीन भी कोई नहीं सकता है।


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