किसान के आर्थिक पक्ष को मजबूत बनाइए

By: Oct 25th, 2017 12:02 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

किसान की उपज के मूल्यों में 1947 से अब तक 19 गुना बढ़ोतरी हुई है, जबकि उसके निवेश की कीमतों में 100 गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हो गई है। नौकरीपेशा कर्मियों के वेतन में 150 से 320 गुना तक वृद्धि हो गई है। मजदूरी के स्तर की नौकरी करने वाले की स्थिति भी किसान से बेहतर है…

एक समय था, जब कहावत हुआ करती थी, उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निकृष्ट चाकरी, करे गंवार। आज स्थिति बदल चुकी है। उत्पादक अर्थव्यवस्था की रीढ़ यानी किसान की हालत बद से बदतर होती जा रही है। आज किसान कहलाना सम्मान की बात नहीं रह गई है। भारत में आज भी 55 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है यानी यह अकेला क्षेत्र सबसे ज्यादा रोजगार पैदा करता है। गलत कृषि नीतियों के कारण ही किसान बदहाल है।  हालांकि कृषि उपज बढ़ाने के लिए बेहतरीन वैज्ञानिक प्रगति हुई है। देश अनाज आयात करने की मजबूरी से निकल कर निर्यात करने की स्थिति में आ गया है, लेकिन किसान की हालत नहीं सुधरी। इसका सबसे बड़ा कारण तो किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य न मिलना है। किसान की उपज के मूल्यों में 1947 से अब तक 19 गुना बढ़ोतरी हुई है, जबकि उसके निवेश की कीमतों में 100 गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हो गई है। इसके साथ ही नौकरीपेशा कर्मियों के वेतन में 150 से 320 गुना तक वृद्धि हो गई है। इस तरह मजदूरी के स्तर की नौकरी करने वाले की स्थिति भी किसान से बेहतर है। यह व्यापारी, औद्योगिक और शहरी समझ पर आधारित नीतियों का ही दुष्परिणाम है कि कृषि को अकुशल व्यवसाय की तरह देखा जाता है। फैक्टरी में काम करने वाला मजदूर, तो कुशल मजदूर है, लेकिन किसान नहीं। जबकि सदियों से संचित और आधुनिक ज्ञान पर आधारित उद्यमिता के बिना कृषि कार्य संभव ही नहीं है।

एक ओर किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता, दूसरी ओर लागत में लगातार वृद्धि होती जा रही है। मौसम पर निर्भरता में भी कोई खास कमी नहीं आई है। भंडारण की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण भी किसान अपनी फसल को औने-पौने दाम पर बेचने को विवश रहता है। महंगी कृषि पद्धति स्थिति को और बिगाड़ने में मददगार साबित हो रही है। इन परिस्थितियों में किसान ऋण जाल में फंसता जा रहा है। आखिर किसान भी उसी समाज का हिस्सा है, उसे भी बीमारी-हारी और सामाजिक रस्मो-रिवाज के बोझ को ढोना पड़ता है। समाज में विद्यमान प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है। जब खेती के खर्च की ही भरपाई नहीं होगी, तो बाकी सामाजिक खर्चों के साथ कैसे जूझे। इन हालात से तंग आकर किसान आज सड़कों पर उतरने को मजबूर है। यह कहना अपनी जगह सही हो सकता है कि किसानों के आंदोलन को हिंसक बनाने में कुछ राजनीतिक दलों का हाथ है। हालांकि आजादी के बाद 90 फीसदी समय तो कांग्रेस और उसकी सहायक पार्टियों का ही शासन रहा है। इसलिए किसान की बदहाली के लिए भी उसकी जिम्मेदारी ज्यादा बनती है। इस सबके बावजूद इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है कि किसान की दशा वर्तमान शासन में भी सुधरी नहीं है। जहां भी किसान आंदोलन चलते हैं, वहां नेता अपनी अपनी वोट की राजनीति चमकाने के लिए पहुंच ही जाते हैं। इसमें कुछ हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए, लेकिन आंदोलन को यह समझना जरूरी है कि आंदोलन को दिया जाने वाला कोई भी हिंसक मोड़ आंदोलन को कमजोर करने का ही काम करेगा। हिंसक आंदोलन में मुख्य मुद्दे तो गुम हो जाते हैं और वोट बैंक की राजनीति आंदोलन को हाई जैक कर लेती है। किसान आंदोलन को इस खतरे को भांपते हुए सावधानी से आगे बढ़ना होगा। प्रशासनिक अमले  का अर्थव्यवस्था में योगदान अप्रत्यक्ष होता है और महत्त्वपूर्ण भी, लेकिन किसान तो प्रत्यक्ष उत्पादन कार्य में लगा है। उसका महत्त्व प्रशासनिक अमले से कम नहीं हो सकता।

वह जीवनयापन के लिए अन्न के साथ-साथ बहुत से उद्योगों के लिए कच्चे माल का भी उत्पादन करता है। इसलिए देश के औद्योगिक विकास में भी उसकी अहम भूमिका है। अतः उसकी आय को भी आजादी के बाद कम से कम 100 गुना  तक बढ़ाने का  लक्ष्य सरकारों और किसान आंदोलन के सामने  होना चाहिए। ऋण माफी तक ही किसान आंदोलन सीमित नहीं हो सकता। असली प्रश्न तो यह है कि आखिर किसान ऋण ग्रस्त क्यों हुआ है? इस बात का जवाब राजनीतिक दलों को देना चाहिए। ऋण माफी आपात स्थिति में तनिक राहत से ज्यादा कुछ नहीं है। राहत के रूप में तो इसका प्रयोग होना ही चाहिए, परंतु यह किसान की समस्याओं के समाधान का पर्याय नहीं हो सकता। कृषि उत्पाद को लाभकारी मूल्य मिलना ही चाहिए, परंतु कृषि लागत को कम करना भी उतना ही जरूरी होता जा रहा है। अंधाधुंध मशीनीकरण और रासायनिक कृषि से किसान की कमाई कृषि मशीनें बनाने वाले उद्योगों और बैंक ब्याज के माध्यम से बैंकों की जेबों में जा रही है। कृषि पद्धति को वैज्ञानिक समझ से अनावश्यक मशीनीकरण से बचना होगा। छोटे किसान बैलों से खेती करें। बैलों से चलने वाले उन्नत उपकरण बनाए जाएं, जो किसान को ट्रैक्टर से खेती जैसी सुविधा दे सकें। रासायनिक कृषि पद्धति ने कृषि की लागत को बहुत बढ़ा दिया है। जैविक कृषि के माध्यम से किसान के खेतों के अपशिष्ट और गोबर एवं गोमूत्र से किसान की खाद और दवाई की अधिकांश जरूरतें पूरी हो सकती हैं। यह कार्य किसान स्वयं अपने श्रम से ही बिना ऋण लिए कर सकता है। रासायनिक कृषि को जरूरत से ज्यादा फैलाने का कार्य करने वाले कृषि विश्व विद्यालयों को ही कम लागत वैज्ञानिक कृषि का वाहक बनाया जाना चाहिए। उत्पादक अर्थव्यवस्था का आधार होने के नाते किसान के लिए 60 वर्ष की आयु के बाद अनिवार्य पेंशन का हकदार माना जाना चाहिए। यदि अनुत्पादक प्रशासनिक अमले का बोझ देश उठा सकता है, तो उत्पादक किसान का क्यों नहीं?


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