कुंडलिनी साधारण शक्ति नहीं

By: Oct 14th, 2017 12:05 am

कुंडलिनी शक्ति को साधारण शक्ति समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। कुंडलिनी उस शक्ति का नाम है, जो हजारों परमाणु ऊर्जा केंद्रों की शक्ति से भी प्रबल है। इसके जागरण के अनेक विधि-विधान  हैं और सभी मार्गों का गंतव्य एक है, अतः अनेक होते हुए भी वे सभी मार्ग एक-दूसरे के अनुरूप, अनुकूल व अनुपूरक हैं…

कुंडलिनी के ज्ञान के बिना साधना संभव नहीं है। इसका विस्तार से ज्ञान होना जरूरी है। योग व तंत्र के शास्त्रों में इसका वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है। यह बात और है कि प्रायः अर्थ सभी का एक समान निकलता है। जैसे-गुदा व लिंग के बीच शरीर की समस्त क्रियाओं एवं गतियों का आधार योनिमंडल है।  उसे कंदस्थान कहते हैं। यह कुलकुंड भी कहा जाता है। मूलाधार  पद्म की कर्णिका में इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मक त्रिकोण है। यही अकथ त्रिकोण है। जपाकुसुम व गुड़हल जैसी उसकी आभा है। इसी त्रिकोण का बिंदु ज्योतिर्लिंग है और इससे लिपटी है कुंडलिनी। उसका अधोमुख है व साढ़े तीन वलय हैं। ज्योतिर्लिंग प्रकाशमय है और कुंडलिनी भी प्रकाशमय है। करोड़ों दामिनी की प्रभा जैसी चमक उस कुंडलिनी में है, किंतु वह कमल नाल में से निकलने वाली रेखा के समान अत्यंत पतली है। इसलिए कुंडलिनी को कुलकुंडालया व कौलमार्ग तत्पर सेविता भी कहा गया है। अपनी पूंछ को अपने मुख में लिए हुए और सुषुम्ना के छिद्र को बंद करके सर्पिणी के समान यह कुंडलिनी शक्ति निद्रित रहती है, किंतु वह अपनी दीप्ति से स्वयं दीप्तिमयी है। वह परमात्मा की शक्ति है। वही शब्द जननी है। वह वर्णमयी है, वाक्रूपा है, मूलमंत्रात्मिका है अर्थात पंचदशी के पंद्रह बीज ही जिसका विग्रह हैं। यही त्रिगुणात्मिका और प्रकृति का आधार है। तांत्रिक गं्रथों में उसे अनेक प्रकार से समझाया गया है। किंतु मूल बात यह है कि सर्पिणी के बिंब के द्वारा ज्ञेय संपूर्ण विश्व ही है यह कुंडलिनी तत्त्व। ठीक उसी प्रकार से जैसे षट्चक्र बिंब के द्वारा यह विश्वविद्या ही है, जो योगियों और उपासकों के ज्ञान और ध्यान का विषय है। यह अध्यात्म विद्या है। यह अध्यात्म शक्ति सोई है और जो समर्थ संकल्प वाला है, वह उसे गुरुकृपा से जगा लेता है। कुंडलिनी शक्ति को साधारण शक्ति समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। कुंडलिनी उस शक्ति का नाम है, जो हजारों परमाणु ऊर्जा केंद्रों की शक्ति से भी प्रबल है। इसके जागरण के अनेक विधि-विधान  हैं और सभी मार्गों का गंतव्य एक है, अतः अनेक होते हुए भी वे सभी मार्ग एक-दूसरे के अनुरूप, अनुकूल व अनुपूरक हैं। उनमें भेद नहीं समझना चाहिए। भेद बुद्धि को हटाकर मूल तत्त्व का साधन करना ही अभीष्ट है। आत्मशक्ति का जागरण, जो शक्ति परम आनंद, परम ऊर्जा व परम सौंदर्य का धाम है, उसी का चिंतन करना है। इसमें संशय नहीं कि यदि आनंद है तो परम आनंद भी है और परम आनंद है तो उसका धाम भी है ही। वही धाम ऊर्जा व सौंदर्य का भी धाम है। वह धाम ही योगियों का कुंडलिनी जागरण है और सहस्रार में रमण है। कुंडलिनी साधन वस्तुतः जीवभाव से उठकर शिवभाव तक पहुंचने की साधना है। जब करोड़ों पूर्व जन्मों का पुण्य-फल संचित होता है और गुरु कृपा करते हैं, तब कुंडलिनी का जागरण अनायास भी हो जाता है। कुंडलिनी का जागरण होते ही सभी तरह के कष्ट खत्म हो जाते हैं। भक्त अथवा साधक परमात्मा के करीब हो जाता है। उसे परम धाम की प्राप्ति हो जाती है। वह दिव्यता को अनुभव करने लगता है।


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