क्यों न पटाखों का उत्पादन ही बंद किया जाए

By: Oct 17th, 2017 12:05 am

कंचन शर्मा

लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

हमें पर्यावरण की चिंता है तो पहले तो पटाखा उद्योग को व्यवस्थित तरीके से बंद किए जाने की व्यवस्था करनी होगी। इसका मतलब यह भी कदापि नहीं होना चाहिए कि अपने देश में तो पटाखा उद्योग बंद करके लाखों के पेट पर लात मार दी जाए और चीन जैसे देशों से खिलोनों के कंटेनरों में पटाखे देश में घुसपैठ करते रहें…

कोई भी त्योहार जहां एक ओर हमारी आस्था से जुड़ा होता है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति व संस्कृति में भी हमारे विश्वास को पुष्ट करता है। अगर कोई भी पर्व या त्योहार मनाने का तरीका प्रकृति व संस्कृति संरक्षण में अवरोधक है, तो उस पर पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि जब भी राष्ट्र में कुछ सकारात्मक पहल शुरू होती है, कट्टरपंथियों का धर्म-कर्म के नाम पर विरोध शुरू हो जाता है। एक ओर जहां विकास व तकनीकी के नाम पर पहले ही संपूर्ण विश्व पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से जूझ रहा है, दूसरी ओर परंपरा के नाम पर दिवाली पर, शादियों में, खुशियों में, त्योहार व नव वर्ष के आगमन पर भारत ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व में पटाखों से वायु व ध्वनि प्रदूषण को बढ़ावा दिया जाता है। खुशियों व परंपराओं के नाम पर यह संपूर्ण मानव जाति से छलावा है। ऐसी परंपराओं के निर्वहन का क्या फायदा जो  भविष्य की पीढि़यों को असंतुलित पर्यावरण की बलिवेदी पर चढ़ा दे।

पटाखों से निकलने वाले मेग्नीशियम की धूल से बुखार होने का खतरा, जिंक से उल्टी, नाइट्रिट से कोमा की संभावना, सोडियम से चर्म रोग, नाइटे्रट से मानसिक रोग, कॉपर से श्वास रोग, लेड से नर्वस सिस्टम पर कुप्रभाव व केडमियम से एनिमिया और किडनी फेल होने की संभावना रहती है। पटाखों की बात करते हैं, तो दीपावली का त्योहार हमारे जहन में तैर जाता है। दीपावली का तात्पर्य दीपों की कतार से है, लेकिन इसमें पटाखे जलाने का रिवाज कब और क्यों आया, यह समझ से परे है। आज दीपावली दिखावों का पर्व बनकर रह गया है। दमघोंटू पटाखों के धुएं व आवाज से सारा वातावरण भयाक्रांत हो जाता है। सारा आकाश वायु प्रदूषण से धूमिल हो जाता है। दिवाली के कचरे से हर वर्ष हमारी मिट्टी को नुकसान पहुंचता है, जहरीले रसायन मिट्टी से होते हुए पानी में रिसकर जल स्रोतों को विषैला कर रहे हैं। इस रात कितने ही बच्चे या युवा पटाखों से जलकर घायल, अपंग या अंधे तक हो जाते हैं। कई बार पटाखों से हुई मृत्यु किसी भी परिवार के लिए मातम का पर्व बन जाती है। अस्थमा के रोगियों के लिए दिवाली जानलेवा साबित होती है। इसकी ध्वनि से न केवल कुछ देर के लिए कान सुन्न हो जाते हैं, अपितु कई बार कुछ लोग बहरेपन का भी शिकार हो जाते हैं। यही नहीं, पशुओं के लिए यह त्योहार उन्हें मुश्किलों में डाल देता है। पशु, प्रकृति व मानव जहां सभी इन पटाखों से कुप्रभावित होते हैं, ऐसे में हमें जागरूक होने की सख्त जरूरत है।

धार्मिक रुढि़वादिता व परंपराओं की दुहाई देने वालों को यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि त्रेता युग के राम के काल में पटाखों का प्रचलन था ही नहीं। पटाखों व आतिशबाजी का आविष्कार 7वीं सदी में चीन में हुआ था। पटाखों के सबसे बड़े उपभोक्ता हम भारतीय ही हैं। एक ओर हम चीन में निर्मित वस्तुओं का विरोध करते हैं, वहीं दूसरी ओर उसके उपभोक्ता भी बने हुए हैं। दुनिया के नब्बे प्रतिशत पटाखे चीन में बनते हैं व इस तरह पटाखों का सबसे बड़ा उत्पादक चीन है। पटाखों से होने वाले नुकसान को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली और एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर पहली अक्तूबर से रोक लगा दी है, जो पर्यावरण के लिए एक अच्छा सूचक है। मगर ध्यान देने योग्य बात यह है कि केवल बिक्री पर रोक लगाने से क्या पटाखे छोड़ने की प्रक्रिया पर भी रोक लग पाएगी? खरीदने वाले तो कहीं ओर से भी पटाखे खरीद सकते हैं। यही नहीं, दिवाली के समय आतिशबाजी उद्योग व प्रदूषण विभाग बेहद सक्रिय हो जाते हैं। आतिशबाजी न करें व प्रदूषण मुक्त दिवाली, जिसे ग्रीन दिवाली की भी संज्ञा दी गई है, इस तरह के विज्ञापनों की भरमार रहती है। मगर गौर करने वाली बात तो यह है कि जब पटाखे जलाने ही नहीं, तो फिर इसके उत्पादन पर ही रोक क्यों नहीं लगाई जाती है। जिस वस्तु का उत्पादन होगा, उसकी बिक्री तो निश्चित तौर पर होगी ही होगी। क्या कोई भी उद्योग करोड़ों रुपए लगाकर केवल इसलिए उत्पादन करता है कि उसके उत्पाद की बिक्री न हो। जिन वस्तुओं के प्रयोग पर पाबंदी लगाने के लिए सरकार व प्रदूषण तथा पर्यावरण विभाग को इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, उसके उत्पादन पर ही रोक क्यों नहीं लगा दी जाती?

हमें पर्यावरण की चिंता है तो पहले तो पटाखा उद्योग को व्यवस्थित तरीके से बंद किए जाने की व्यवस्था करनी होगी। इसका मतलब यह भी कदापि नहीं होना चाहिए कि अपने देश में तो पटाखा उद्योग बंद करके लाखों के पेट पर लात मार दी जाए और चीन जैसे देशों से खिलौनों के कंटेनरों में पटाखे देश में घुसपैठ करते रहें। साथ ही पटाखा उद्योग बंद कर रोजगार खोए व्यक्तियों के लिए वैकल्पिक उद्योग की व्यवस्था की जाए, क्योंकि यह स्वयं व पर्यावरण के साथ बहुत बड़ा छलावा है कि एक तरफ तो वस्तु का  उत्पादन किया जाए और दूसरी तरफ उस पर प्रतिबंध लगाया जाए। इससे बड़ी विरोधाभास की स्थिति और हो ही नहीं सकती। यूं भी सैकड़ों वर्षों से चली आ रही पटाखे छोड़ने की रिवायत को एकदम से बंद करना भी आसान नहीं और पटाखे छोड़ने की इस अनवरत यात्रा का थम जाना भी असंभव है। इसके लिए बेहद सख्त कानून बनाने होंगे। वह घड़ी भी निश्चित तौर पर आएगी, क्योंकि पर्यावरण पदूषण अपना फन फैलाकर जहरीली फुफकार निरंतर मार रहा है। ऐसे में पटाखों के उपयोग से छुटकारा पाना अत्यंत लाजिमी हो जाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि बरसों से हम भारतीय दिवाली की रात पटाखे छोड़ते चले आए हैं। मगर यह न हमारी परंपरा थी, न ही संस्कृति। लिहाजा ऐसे चलन पर रोक लगाने में ही बुद्धिमता है।

ई-मेल : kanchansharma210@yahoo.com


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