खुद के मानवीय सरोकारों को पहचानना होगा

By: Oct 8th, 2017 12:05 am

रचना-प्रक्रिया में घर-परिवार कहां फिट होता है? मेरे हिसाब से यह रुचि और समय का सवाल है। लिखने में मन रमा हो तो खाना-वाना किसे याद रहता है। जो भी करती हूं, इच्छा से करती हूं, मजबूरी से नहीं। जबरदस्ती दोनों के बीच तालमेल नहीं बिठाती हूं। कभी कोई एक उपेक्षित होता है, तो कभी दूसरा। चलने देती हूं। सुपर वूमेन बनकर सारी जिम्मेदारियां निभाने का दंभ नहीं करती, क्योंकि स्त्री की यही आत्म बलिदानी वृत्ति उसके शोषण का कारण है। वर्तमान संदर्भ में मौलिक लेखन में अंचल-विशेष के लोकशास्त्र की भूमिका क्या है? कवि-मानस जिस अंचल में पल-बढ़ और पनप रहा है, वहां के लोक-अनुभवों को संस्कार रूप में ग्रहण करेगा ही। इसलिए लोकशास्त्र साहित्य में खुद-ब-खुद आ जाता है। लेखन के मुद्दे हों या विचार, या फिर अभिव्यक्ति के तमाम रूप, परिवेश से ही उत्प्रेरित-संचालित होते हैं, लेकिन मेरे लिए जो सवाल महत्त्वपूर्ण है, वह यह है कि लोक का परिवेश, परंपरा, विरासत रचनाकार कैसे उद्घाटित करता है? आस्था में आंखें मूंदकर क्या वह लोक की हर चीज को स्वीकार करता है या लोक की जड़ रूढि़यों और मृत परंपराओं पर प्रहार भी करता है? रोचक बात तो यह है कि लोक और रचनाकार खुद को और एक-दूसरे को बार-बार रचते हैं। यह अनुभव बहुत गहराई से मुझे हो रहा है। हिमाचल की लोक गाथाओं पर लिखी जा रही किताब पर काम करते हुए। पानी के लिए दी गई बलि हर बार और प्रदेश के किसी भी स्थान में, स्त्री के ही हिस्से में आई है। पर दमन की उन्हीं कथाओं में विद्रोह के स्वर भी अत्यंत मुखर हैं। मानव-मन का सच्च समझाती हैं ये गाथाएं। स्त्री-विमर्श को सभ्यता-विमर्श के आलोक में एक वंचित एवं शोषित मानवीय इकाई की, चिंता की परिधि में लाना कितना आवश्यक है? दरअसल यह सवाल विस्तृत विमर्श की अपेक्षा रखता है, लेकिन संक्षेप में कहूं तो सभ्यता विमर्श को स्त्री के नजरिए से देखने को ही जरूरत है। चाहे यह सुनकर मेरे प्रिय पुरुष साथियों को बुरा लगे पर सच तो यही है कि हमारी सभ्यता आज स्वार्थ, संघर्ष और विनाश के जिस कगार पर आ खड़ी हुई है, उसे यहां तक लाने में पुरुष का ही हाथ रहा है। हुक्म उसका, नियम भी उसके और आदर्श भी उसके। 21वीं सदी में भले ही स्त्री-जाति उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हो या उससे आगे निकल रही हो, वह पुरुष की सोच का ही अनुपालन करते हुए उसी के बनाए रास्तों पर अपनी मंजिल तलाश रही है। जब तक स्त्री अपने खुद के मानवीय सरोकारों को नहीं पहचानती, जब तक वह गृह-युद्धों और सीमा-पार की लड़ाइयों, आतंकवाद, धर्म-जाति-नस्ल-लिंग-वर्गीय आधार पर अधिकार-हनन की  राजनीति, जल-जमीन-जंगल-हवा से जुड़े पर्यावरण के संकट जैसे जिंदगी के तमाम मुद्दों पर अपनी स्वतंत्र राय नहीं बनाती, निर्णय का अधिकार नहीं अर्जित करती, तब तक वह शोषित ही रहेगी, क्योंकि इन सभी आपदाओं का असर सबसे ज्यादा उसी के अस्तित्व और घर-परिवार पर पड़ता है। तब तक वह खुद तो वंचिता रहेगी ही, सभ्यता भी मानव-मूल्यों से वंचित रहेगी। अपने संदर्भ में कहना चाहूंगी कि मैंने स्वयं को घिरने नहीं दिया, युवावस्था में बहुत सारी किताबे पढ़ीं। वह साहित्य मैं कितना समझ पाई, नहीं कह सकती, पर इतना जानती हूं कि उनसे संस्कारों की विरासत जरूर मिली।

यद्यपि लगता है कि बहुत कुछ समझ में आने से रह गया है। साहित्य ऐसा ही होता है। उसका कभी आखिरी पाठ या अंतिम पाठ नहीं होता। ठीक जिंदगी की तरह….। यह सीखने और समझने का क्रम निरंतर चला और चल रहा है। कालेज की पत्रिका के लिए अटल बिहारी वाजपेयी, कमलापति त्रिपाठी व राज नारायण जैसे कई दिग्गज नेताओं के साक्षात्कार लिए। वे देश की सत्ता संभालने के लिए तैयारी कर रहे थे और मैं अठारह साल की उम्र में अपना मुकाम खोज रही थी। यही जरूरी है स्त्री के लिए कि वह स्वयं को घर-परिवार के सीमित दायरे से बाहर की बड़ी दुनिया के लिए भी तैयार करे। मैंने हिंदी साहित्य पढ़ा तो रूसी साहित्य के सत्य को भी समझना चाहा। हिंदी के समर्थ कथाकार व चर्चित संपादक राजेंद्र यादव जी के साथ हंस पत्रिका में काम किया। उनके लिए कांटे की बात के 11 खंडों और दो अन्य किताबों का संपादन-समायोजन भी किया। मैं यह मान कर चली कि पढ़े बिना मुक्ति नहीं। स्त्री समाज को निरंतर आधुनिक बोध से संपन्न रहने के लिए अध्ययन-मनन आवश्यक है। अन्याय के विरोध में शब्दों की धार को पैना बनाए रखने की जरूरत है। भोगे-देखे-समझे हुए यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्वंद्व कह पाने में क्या स्त्री दबाव या संकोच अनुभव करती है? यह सवाल स्त्री की अपनी सोच, हालात, चेतना और स्वभाव से ज्यादा जुड़ा है। बाहरी संघर्ष और मानसिक द्वंद्व उसके जीवन का हिस्सा है। उसकी अभिव्यक्ति साहित्य में कैसे होती है, संकोच-दबाव या स्वछंद उन्मुक्तता के साथ, इसके बारे में सरलीकरण नहीं किया जा सकता। असल कठिनाई तो समझने वाले को लेकर है। स्त्री का तो मौन भी मुखर होता है।

-डा. विद्यानिधि छाबड़ा,  सुन्नी, शिमला

परिचय

* नाम : डा. विद्यानिधि छाबड़ा, पिछले 23 वर्षों से हिमाचल सरकार के विभिन्न महाविद्यालयों में कार्य

* पत्रकारिता :  अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए फ्री-लांसिंग लेखन। 50 के लगभग लेख, आलोचनाएं प्रकाशित

* पटकथा लेखन : केदारनाथ सिंह तथा गिरिजा कुमार माथुर पर वृत्त चित्रों का पटकथा लेखन

* अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद : पुस्तकें-बालमुकुंद अग्रवाल की ‘आजादी के मुकदमे’ (नेशनल बुक ट्रस्ट) तथा पॉलकारूस की ‘बुद्ध गाथा’ (प्रकाशन विभाग)। नारी सशक्तिकरण रिपोर्ट1996-97

* लेख : उपन्यास तथा कहानियों का अनुवाद। मुख्य हैं : मधुमिता राय का भारत छोड़ो, एमिल जोला का नाना, रुखावत हुसैन का सुलताना का सपना, फिल्म में कविता का तर्क (तारकोव्स्की) आदि

* संपादन :   राजेंद्र यादव की कांटे की बात के 11 खंडों का समायोजन व भूमिका लेखन वाणी प्रकाशन तथा अनुभव और अभिव्यक्ति (कहानी) तथा साक्षात्कार (किताबघर) का संपादन


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