गौरी लंकेश से सीखें पत्रकार

By: Oct 16th, 2017 12:05 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

यह सच है कि गौरी को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कई बार पूर्व चेतावनियां मिलती रहीं और अंत में उन्हें भयावह सच्चाई झेलनी भी पड़ी। हालांकि उनके कदम मौत के आगे भी डगमगाए नहीं। इसमें पत्रकारों के लिए एक सबक छिपा हुआ है। देश के पत्रकारों को आने वाले समय में कई अवसरों पर इससे भी जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। इसके बावजूद उन्हें विभिन्न सच्चाइयों पर आंख मूंद लेने से बचना होगा। अंततः इनका पेशा भी पत्रकारों से यही उम्मीद रखता है…

अभी कुछ दिन पहले ही एक स्मृति सभा के आयोजन के दौरान मुझे बेहद हताशा हुई। मैं तो सोच बैठा था कि हाल में कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में जंतर-मंतर पर आयोजित वह सभा अपनी ओर खासा ध्यानाकार्षण करेगी। खास तौर पर वरिष्ठ पत्रकारों से उम्मीद थी कि वे उस सभा में शिरकत करेंगे। अंततः उस सभा में 30-35 लोगों से ज्यादा लोग एकत्रित नहीं हो सके और उनमें पत्रकारों की संख्या तो और भी कम थी। वरिष्ठ पत्रकारों की तो यह आदत सी बन गई है कि वे आम लेखकों या जनता के साथ घुलने-मिलने के बजाय अपने-अपने कक्षों में बैठे रहना पसंद करते हैं। मैं इस बात को भी समझ सकता हूं कि संपादक समाचार-पत्रों के नियोजन और संपादन में काफी व्यस्त रहते हैं। लेकिन क्रम में उनके बाद जो लोग आते हैं, उनकी क्या परेशानी हो सकती है? उनका आचार-व्यवहार तो यही दर्शाता है कि वे भी संपादक जितने ही व्यस्त हैं। इस व्यस्तता के बीच उन्हें इस तरह की महत्त्वपूर्ण सभाओं में जाने तक की फुर्सत नहीं मिलती, चाहे ये प्रत्यक्ष-अथवा परोक्ष रूप से उनकी खुद की बिरादरी से ही क्यों न ताल्लुक रखती हों। सेवानिवृत्ति के बाद ये लोग खुद-ब-खुद घुटनों पर आ जाते हैं, क्योंकि तब तक उनकी उपयोगिता काफी सिमट चुकी होती है। उनमें बहुत से ऐसे लोग हैं, जो कॉलम लिखकर समाचार-पत्रों में स्थान पाने को आतुर रहते हैं। इसमें भी बहुत से विफल हो जाते हैं, क्योंकि पाठक की रुचि ऐसे स्तंभकारों में होती है, जो ताउम्र सिद्धांतों की खातिर संघर्ष करते रहे। ऐसे स्तंभकारों की गिनती बहुत कम है, जो इस सेवा में अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहते हैं।

गौरी लंकेश इन्हीं लोगों में से एक थीं। वह समाज पर होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ मुखर होकर असंतोष की आवाज उठाती रहीं। अपने आदर्शों पर अडिग रहकर पत्रकारिता या समाजसेवा का कार्य करते हुए वह कन्नड़ भाषा में प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘गौरी लंकेश पत्रिका’ का भी संपादन करती रहीं। आज भले ही वह हमारे बीच न हों, लेकिन उनको भुला पाना आसान नहीं होगा। गाहे-बगाहे गौरी को धमकी भरे संदेश मिलते रहे, लेकिन वह कभी उनसे सहमी नहीं, डरी नहीं। साफ तौर पर वह अपने कार्य के लिए किसी भी बलिदान के लिए तैयार थीं, भले इसकी कीमत उनके प्राण क्यों न हों। हिंदुत्व की ओर झुकी राजनीति का लंकेश मुखर विरोध करती रहीं। उनके बंगलूर स्थित निवास के प्रवेश द्वार पर ही कुछ अज्ञात हत्यारों ने गोली मारकर उनकी दहला देने वाली हत्या कर दी। निस्संदेह शुरू-शुरू में उनकी हत्या की निंदा के तौर पर कई जगह विरोध प्रदर्शन भी हुए। खुद प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने इस घटना की यह कहकर निंदा की थी, ‘कई मुद्दों को आवाज देने वाली और हमेशा ही न्याय के पक्ष में खड़ी रहने वाली एक निर्भिक व स्वतंत्र पत्रकार को बेहद निर्मम ढंग से शांत करा दिया गया।’ ऐसा भी नहीं है कि इस तरह का यह कोई पहला हमला हुआ हो। लोकतंत्र में हमेशा कानून के शासन की अपेक्षा रहती है, लेकिन हमें देखने को क्या मिलता है कि बेकाबू भीड़ कानून हाथ में लेकर किसी की हत्या कर देती है या दूसरे तरीकों से इन लोकतांत्रिक अपेक्षाओं का गला घोंट दिया जाता है। इस संदर्भ में अलवर, दादरी और ऊधमपुर जैसी घटनाएं आंखें खोलने वाली साबित हो सकती हैं। इसे यदि और गहराई से समझा जाए, तो देश में सांस्कृतिक, अकादमिक और ऐतिहासिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों, खासकर नालंदा विश्वविद्यालय और नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइबे्ररी पर ऐसे ही हमले हुए हैं।

अब गौरी की हत्या के मामले को वर्ष 2015 के कन्नड़ पत्रकार एमएम कलबुर्गी की हत्या मामले के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। उनकी भी ठीक इसी तरह से उनके घर पर ही हत्या कर दी गई थी। गौरी अपने गृह राज्य में भी सियासत के खिलाफ खुलकर अपने विचार अभिव्यक्त करती रहीं। उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व आगाह करते हुए कहा था कि कर्नाटक का प्रगतिशील एवं सेकुलर राज्य से सांप्रदायिक राज्य में बदलने की प्रक्रिया का एक मजेदार किस्सा है, जिसने राज्य को पंगु बना डाला है। इसकी शुरुआत तभी शुरू हो गई थी, जब भाजपा राज्य में सत्तासीन थी। इसके आगे वह कहती हैं कि कर्नाटक राज्य हिंदुत्व के नाम पर बढ़ते हमलों का साक्षी बन रहा है और साथ ही सांप्रदायिक, भ्रष्ट और जातिवाद में जकड़ी भाजपा सरकार के तहत राज्य लगातार पिछड़ता जा रहा है। राज्य में घृणित राजनीति के एजेंडे के खिलाफ बोलने वाली आवाजों को दबाने के विरोध में भाजपा, संघ और अन्य हिंदुत्ववादी ताकतों के खिलाफ भी गौरी लंकेश बेबाकी से बोलती रहीं। कलबुर्गी की हत्या की पहेली दो वर्ष बाद भी अनसुलझी है। इस तरह के हमले हैरान करने वाली दर के साथ बढ़ते जा रहे हैं। सितंबर, 1995 में मानवाधिकारों के संरक्षक जसवंत सिंह खालरा की हत्या का वाकया आज भी याद है और उसके साथ भारत में विकसित हुआ ‘मेरे अनुसार, अन्यथा गोली’ का प्रतिमान भी अच्छी तरह से

याद है।

बतौर पत्रकार गौरी लंकेश अच्छी तरह जानती थीं कि अपनी बेबाकी और निर्भीकता के कारण उसने अपने बहुत से शत्रु बना लिए हैं। भारत के नागरिक के नाते वह और मैं, दोनों ही भारतीय जनता पार्टी की फासीवादी और सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करते रहे हैं। अपने साक्षात्कारों में उन्होंने कहा, ‘मैं हिंदू धर्म की अनुचित व्याख्या के कारण इसके आदर्शों का विरोध करती हूं। मैं हिंदू धर्म में प्रचलित जाति प्रथा का भी विरोध करती हूं, जो कि अनुचित, गैर न्यायवादी और लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देती है।’ ऐसे ही कई अन्य सामाजिक मसलों पर वह विवेकपूर्ण ढंग से अपना पक्ष रखती रहीं। यह सच है कि गौरी को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कई बार पूर्व चेतावनियां मिलती रहीं और अंत में उन्हें भयावह सच्चाई झेलनी भी पड़ी। यह सब ठीक उसी रूप में हुआ, जैसा यह अब तक तब होता रहा है। हालांकि उसके कदम मौत के आगे भी डगमगाए नहीं। इसमें पत्रकारों के लिए एक सबक छिपा हुआ है। देश के पत्रकारों को आने वाले समय में कई अवसरों पर इससे भी जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। इसके बावजूद उन्हें विभिन्न सच्चाइयों पर आंख मूंद लेने से बचना होगा। अंततः इनका पेशा भी पत्रकारों से यही उम्मीद रखता है। गौरी लंकेश पत्रकारों की एक अनूठी प्रजाति से संबंध रखती थीं। अपने अलग-अलग लेखों में अपनी भावनाओं को जाहिर करते हुए उन्होंने संकेत कर दिया था कि अपने इंडिया के लिए लड़ते हुए वह कोई भी कीमत चुकाने को पूरे मन से तैयार है। इसके लिए उन्हें किसी तरह का कोई पश्चाताप भी नहीं होगा। आगे एक जगह वह लिखती हैं, ‘मुझे अपना कार्य करते हुए पूर्ण

संतुष्टि की अनुभूति है।’ ये शब्द बेहद दुर्लभ माने जाएंगे।

ई-मेलः kuldipnayar09@gmail.com


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