चुनावी लक्ष्मण रेखा

By: Oct 13th, 2017 12:02 am

चुनाव की तारीखी घोषणा ने हिमाचल को पुनः मतदाता के जागरूकता कक्ष में पहुंचा दिया। हालांकि चुनाव में कूदी राजनीति काफी समय से प्रतिस्पर्धा से आगबबूला थी, लेकिन अब रणनीतिक खुलासों में जनता के आगे शीर्षासन होगा। चुनाव आयोग ने भले ही गुजरात से अलहदा करके हिमाचल में पहले घोषणा की, लेकिन आचार संहिता के दरम्यान पहाड़ी राजनीति का दरिया लंबे समय तक बहेगा या बर्फ की तरह जमकर इंतजार करेगा। नौ नवंबर के मतदान के बाद अठारह दिसंबर तक परिणाम घोषणा के बीच एक लंबी अस्थिरता भरा माहौल। करीब सवा महीना डिब्बे में बंद लोकतांत्रिक आस्था का चुनावी पहरावा और पहरा, प्रदेश को एक तरह से अछूत बना देता है। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि हिमाचल की चुनावी रंगत में गुजरात के साथ खड़ा होना सही है या सवा महीने का इंतजार एक आवश्यक कवायद है? गुजराती त्योहारों की सियासी भिन्नता तो समझ में आती है, लेकिन हिमाचल के देवभूमि होने के अर्थ को वर्तमान चुनावी समयसारिणी सही ढंग से अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है। बेशक मौसम का खलल एक बड़ा विषय बन सकता है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि नौ नवंबर के बाद बर्फानी तूफान आ जाएगा या सारी प्रक्रिया को निपटाने के लिए किसी भी तरह मतदान कराना ही उचित होगा। हमारा मानना है कि जिन तर्कों से गुजरात-हिमाचल चुनावों की घोषणा एक साथ नहीं हुई, उनका धार्मिक असर एक बराबर है। दिवाली से पहले पर्व की अभिलाषा अगर राजनीतिक पूजन में व्यस्त हो गई तो समाज के अक्स में त्योहारों की संहिता क्या होगी। बहरहाल चुनावी बंधन में हिमाचल को तयशुदा आचार संहिता के साथ उस दिन तक चलना है, जब तक गुजरात भी पूरी तरह चुनाव की लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं आता। हालांकि चुनाव आयोग की दृष्टि में हिमाचल की शालीन व्यवस्था और नागरिक व्यवहार की आगामी कड़ी में कई नई सुविधाएं जोड़ी जा रही हैं। पहली बार वीवीपैट के जरिए मतदाता अपने वोट को अंकित होते देखकर यह सुनिश्चित कर पाएंगे कि सही मतदान हुआ है। सूचना प्रौद्योगिक से जुड़े कई अभिनव प्रयोग भी इस दौरान पारदर्शिता, निष्पक्षता तथा स्वतंत्र चुनावी व्यवस्था की पैरवी करेंगे। राज्य सरकार द्वारा की गई तमाम व्यवस्था पर तारीफ छिड़कते हुए चुनाव आयोग ने यह स्वीकार किया कि प्रदेश इस बार नए मतदाताओं के संगम पर जरूर नहाएगा। हर विधानसभा क्षेत्र के दो मतदान केंद्रों का महिलाओं द्वारा संचालन करने से आधी दुनिया की सक्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। लगभग सवा दो महीनों की आचार संहिता के बीच हिमाचल की नेक नीयत का पता चलेगा और यह भी कि इसके पहरे में मतदाता, राजनेता, प्रशासन और मीडिया तक को साबित करना होगा। यानी कि दिशा-निर्देशों के फलक पर चुनावी घड़ी चलती रहेगी और बदलते समय के बीच घंटियां और अलार्म भी बजेंगे। चुनावी खर्च की सीमा रेखा पर राजनीतिक चरित्र और मीडिया का अभिप्राय भी समझा जाएगा। इस बार मुख्य मीडिया के अलावा सोशल मीडिया का इस्तेमाल कितना संयमित हो पाता है यह अनुमान लगाना कठिन है, फिर भी इन दो महीनों की पड़ताल में हिमाचली चरित्र की पहचान होगी। हिमाचल में चुनाव हमेशा क्रांतिकारी रहे हैं और यहां की राजनीति में विचारों और विषयों की जंग बदलाव की बयार बनती रही है। चुनाव की इस पारी में वीरभद्र सिंह अपने जीवन की अति कठिन परीक्षा में उतर रहे हैं, तो गुजरात घोषणा से पूर्व यह देखना होगा कि प्रधानमंत्री किस अनुपात में हिमाचल से दिल की बात करते हैं।


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