जनादेश खोजने का द्वंद्व

By: Oct 9th, 2017 12:02 am

रैलियों में जनादेश खोजने का द्वंद्व हिमाचल भाजपा बनाम कांग्रेस को सोशल मीडिया की ताकझांक का जरिया बना रहा है। रैली के अंगारे, खाली कुर्सियों के नजारे और विषयों के विषाद ने इस बार चुनाव की समझ को सोशल मीडिया के लट्टू पर घुमाना शुरू किया है, तो इस एंगल को समझना पड़ेगा। जागरूकता के जिस कचूमर पर, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त वर्ग अपनी बड़ाई में प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ रहा है, उससे परिणामों की अनिश्चितता विकराल होगी। बिलासपुर और मंडी की रैलियों का फर्क सोशल मीडिया की खाली या भरी हुई कुर्सियों के बजाय उस अर्थ में है, जो कांग्रेस के एकतरफा इतिहास में पुनः वीरभद्र सिंह को पिरो रहा है। इस लिहाज से मंडी की रैली में कांग्रेस की धूल भरी परत या तो दुबक जाएगी या पड्डल मैदान की बागी घास उखड़ जाएगी। हालांकि कांग्रेस का इतिहास भिन्न है और आपसी खिंचाव भी अलग है, फिर भी रिसाव की गुंजाइश पर बाली, कौल और सुक्खू सरीखे नेताओं का अगला कदम उतना ही मुश्किल है जितना मोदी की रैली में पुरस्कृत जगत प्रकाश नड्डा के सामने पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के आभामंडल का अनुमान लगाना। विडंबना है कि वास्तविक प्रचार से पूर्व विभिन्न नेताओं के सोशल मीडिया के पड़ाव पर जख्मी राजनीति के रिसते पहाड़ देखे जा सकते हैं या फर्जी सर्वेक्षणों की आह में जीत के निष्कर्षों की मौत का जलवा। बहरहाल मंडी रैली भी सोशल मीडिया के आधे घड़े को भरी हुई या पके घड़े को आधी दिखाई दे रही है, तो आश्चर्य के बजाय चुनाव की नई परिभाषा के सिर पर चढ़े भूत को काबू में करने में वक्त जाया न करें। क्या हम चुनाव के यथार्थ में वास्तविक अवलोकन कर पाएंगे या इस बार बड़े नेताओं के तंज, घृणा या नफरत से ही जीत का रास्ता निकलेगा। मंडी रैली में हिमाचल की तारीफ का अर्द्ध या पूर्ण सत्य तो विपक्ष के डमरू बताएंगे, लेकिन इस बहाने प्रदेश का विकास मॉडल सामने आ रहा है। चुनावी बहस के अखाड़े में विकास की बहस आज की सियासत को हालांकि मंजूर नहीं, लेकिन हिमाचल में नफरत के बीज उगते नहीं। लिहाजा वीरभद्र सरकार ने अपने काम के ब्यौरे को चुनावी दीवार पर टांग कर केंद्र का हिसाब पूछ लिया है। भाजपा ने भी नरेंद्र मोदी मॉडल के तहत केंद्र से हासिल खूबियों का चित्रण किया है, तो देखना यह पड़ेगा कि किस पार्टी का सच हलक से उतरता है। विस्थापितों की केंद्र से शिकायत का निवारण तो हुआ नहीं और न ही राजनीतिक खींचतान में फंसी परियोजनाओं पर रुख व तर्क स्पष्ट हुआ, तो भाजपा के विजन पर काफी दारोमदार रहेगा। मंडी की जनसभा में राहुल की शैली का प्रभाव उस जमावड़े को जरूर दिखाई दिया होगा, जो वीरभद्र सिंह को सातवीं बार आजमाना चाहते हैं। इस तर्क से कांग्रेस की शक्ति का परीक्षण पुनः होगा, तो भाजपा में भी अपना प्रिय नेतृत्व देखने की इच्छाशक्ति बढ़ जाएगी। यह दीगर है कि भाजपा के सफल होने की सबसे बड़ी गारंटी देने की क्षमता या तो अमित शाह के हवाले से आती है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जादू में यह दम है। लिहाजा कांगड़ा से बिलासपुर तक की भाजपा रैलियों में जो एकत्रित हुआ, उसके संदर्भ में मंडी का कुनबा गिना जाएगा। यह दीगर है कि मंडी में कांग्रेस ने मुनादी तौर पर अपना वर्चस्व वीरभद्र सिंह को सौंप कर बगल में छुपी छुरियों को हटाने का काम अवश्य किया है, जबकि भाजपा की खामोशी में सारे राज छुपे हैं। हिमाचल के संदर्भ में राहुल गांधी का असर अब तक के घटनाक्रम से अछूता नहीं और जहां तख्त और ताज की लड़ाई में कई नेता शरीक रहे हैं। बहरहाल, कांग्रेस अगर मंडी रैली को कबूलनामे की तरह देखे, तो चुनाव की भूमिका में पार्टी की ऊर्जा बढ़ेगी। कांग्रेस ने नेतृत्व और विकास की ढाल पर रैली कर ली, अब भाजपा के विजन की करामत को परखने की बारी है। यह दीगर है हिमाचल के सोशल मीडिया में भाजपा के सामने आज भी राहुल पप्पू हैं और उनकी रैलियों से विपक्षी जीत सुनिश्चित होती है, लेकिन इस बार कांग्रेस रैली अपने प्रश्नों का समाधान ढूंढ कर सीधे मोदी के गुजरात मॉडल को परास्त कर रही है, तो प्रधानमंत्री की ढाल क्या होगी।


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