दबाव झेले बगैर रचना संभव नहीं है

By: Oct 29th, 2017 12:06 am

एक रचनाकार के रूप में वर्गीय दृष्टि और उससे उपजे सवाल रचना प्रक्रिया के मूल में रहते हैं और वहीं से बनती है एक राह जो अपना माध्यम खुद खोज लेती है। रचनाकार जब अपनी दृष्टि से उन परतों को देख पाने में समर्थ होता है तो परतों को उघाड़ने का दबाव निरंतर महसूस करता है और इसी दबाव के चलते वह प्रयासरत रहता है, अपने भीतर उठते उन सवालों पर बात कर लेने के लिए जो दुनिया को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक होते हैं। दुनिया बेहतर बने, अगली-पिछली पीढि़यों में तारतम्य बना रहे, उसके लिए लोक से जुड़ाव पहली आवश्यकता है। निरंतर एकांगी होती जा रही इस दुनिया में लोक ही मनुष्य को एक अलग पहचान दे सकता है। उसी की सच्ची-झूठी, मिथकीय दुनिया के सूक्ष्म तत्त्व लोक साहित्य के रूप में अनायास जीवन के गहरे अनुभवों को जब सभ्य समाज के समक्ष ला खड़ा करते हैं तो जाने कितनी ही सूक्ष्म परतों में छिपे गहरे जीवन दर्शन व अदम्य जिजीविषा का उद्घाटन करते हैं। इसे सहज ही लोकगीतों, कहावतों, कथाओं, गाथाओं, मिथकों के माध्यम से देखा जा सकता है, जिनके जीवन का दुख-संघर्ष तथा सुख व उत्साह सब एक साथ देखा जा सकता है। अंचल विशेष की मानसिकता को समझने के लिए लोक साहित्य एक उपकरण है। समाज में सदियों से मौजूद और पोषित क्रूरताएं, विसंगतियां, धर्मों-जातियों-वर्गों में बंटी इस दुनिया के कलुष को साफ करते हुए उन सच्चाइयों से पहले स्वयं रू-ब-रू होना और फिर व्यक्त करना उन्हीं तकलीफों से बार-बार गुजरने जैसा है। ऐसा होने में घर, गांव, परिवार, समाज के दबाव को झेले बगैर कोई सार्थक रचना शायद ही बाहर आई हो। समय हमेशा दस्तक देता रहा है रचनाकार के दरवाजे पर। रचनाकार उस दस्तक पर उन अंधेरी दुनियाओं में प्रवेश करने का साहस रखेगा, तभी भावी पीढ़ी को अच्छा समाज दे सकेगा। यही दायित्व रचनाकार के लेखन की सबसे बड़ी कसौटी है। अतः अंतर्द्वंद्व, तनाव व दबाव, लेखन की दुनिया में रचनात्मक भूमिका निभाते हैं। सजग तथा सचेत चेतनाएं ही बेचैन होती हैं। अधिक लिखा नहीं है, बस पढ़ती हूं। इसलिए यह कह पाना कि लिखते समय घर-परिवार-समाज की क्या भूमिका रहती है, इसका कोई सीधा उत्तर नहीं दे सकती। पर जितना लिखा, उसमें अब तक न तो वे अनुगामी दिखाई दिए हैं, न विरोध में। यह सवाल भविष्य के लिए हो सकता है। जिस तरह के वक्त से आज हम गुजर रहे हैं, वह अब तक का सबसे चुनौतीपूर्ण समय है/जहां लगातार बिना कुछ लिखे-पढ़े, अपने आप देखे- भोगे बगैर, केवल सुनकर बन रही हैं धारणाएं/बेहद थका देने वाले इस आरामदेह वक्त में नई पीढ़ी एक आभासी दुनिया में प्रवेश कर रही है। ऐसे में लोक साहित्य बनते-बिगड़ते, अच्छे-बुरे वक्त में अपनी सार्थक भूमिका अदा कर सकता है। आधुनिक होने का अर्थ परंपराओं की हरी-ताजी डालियों से कटना तो कतई नहीं है। आंखों में आसमान रखना है, पर पैर जमीन पर ही रखने हैं। इसी तरह जब स्त्री विमर्श की बात चलती है तो शंका होती है कि क्या यह सवाल ठीक से एड्रेस हो पा रहा है? क्या यह सवाल पहाड़ों-मैदानों में एक ही मापदंड के दायरे में होना चाहिए या अलग या उसके यूनिवर्सल तंतुओं की पहचान जरूरी है। इस रूप में याद आती है ‘सिमंतिनि उपदेश’ की सिमंतिनि जो अपने समय के सवालों को कुछ इस तरह उठाती हैं कि वे सवाल सार्वभौमिक हो जाते हैं। स्त्री विमर्श को बहस का विषय होना ही चाहिए और उसे समग्रता से देखा जाना चाहिए, ताकि सवाल ठीक से उठाए जा सकें। उन परतों को परत-दर-परत खोलने का साहस इस दृष्टि से और भी आवश्यक हो जाता है, लेकिन स्त्री विमर्श को एक फैशन या आंदोलन की तरह देखा जा रहा है। इसलिए अपेक्षित नतीजे नहीं मिल रहे। कुछ लोग स्त्री पर हंस रहे हैं। कुछ व्यंग्य कर रहे हैं, तो कुछ उस पर तरस खा रहे हैं। उसे एक मनुष्य के रूप में देखने तथा मानने की वृत्ति बहुत कम है। उसके दुख तथा संघर्ष को, मैलोड्रामा कह कर नकार दिया जाता है। यह स्थिति चिंताजनक है। यदि देश की आधी जनता को आप इतना हल्के से लेंगे, उसे अपने बराबर के अधिकार देने की जगह, परंपरागत राह पर चलने के लिए विवश करेंगे तो उन्नति व तरक्की की सारी परियोजनाएं विफल होंगी। इसलिए स्त्री-विमर्श को सही ढंग से विवेचित व विश्लेषित करना जरूरी है। इसे केवल मात्र नारेबाजी तथा अति आक्रामक होने से भी बचाना है। तब इसकी अंतर्वस्तु के गायब हो जाने का भय होगा। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्त्री-विमर्श महानगरों से ही नियंत्रित तथा संचालित हो रहा है। इसे छोटे शहरों तथा कस्बों तक लाना होगा। मजदूर तथा किसान स्त्रियों के संघर्ष से जोड़ना होगा ताकि यह ठोस धरातल से जुड़े। किटी पार्टियों की मंत्रणा न रहकर खेत-खलिहानों की चर्चा बने। मुझे विश्वास है कि जिस दिन इस विमर्श की डोर का दूसरा सिरा सामान्य परंतु संघर्षशील व जुझारू स्त्री से जुड़ेगा, उसकी सोच का हिस्सा बनेगा, बहुत अच्छे परिणाम सामने आएंगे और स्त्री के हक में समग्र तथा सार्थक दर्शन सामने आएगा।               -उरसेम लता, शिमला

परिचय

* नाम : उरसेम लता

* रचनाएं विभिन्न राज्य व राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं

* संपादित संकलनों में कविताएं व कहानियां संग्रहित

* आकंठ तथा हिमतरू कविता विशेषांकों के लिए कविताएं चयनित व प्रकाशित

* अस्किनी, सेतु, चंद्रताल व हिमाचल मित्र में रचनाएं छपी हैं। कवि सम्मेलनों तथा संगोष्ठियों में सक्रिय तथा प्रशंसनीय भागीदारी


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App