दस मिनट की अखबार घंटों की मेहनत

By: Oct 16th, 2017 12:02 am

सुरेश कुमार

लेखक, योल, कांगड़ा से हैं

मीडिया का मतलब अगर ढंग से जाना जाए तो यही है कि रोज कुआं खोदो और रोज पानी पियो। रोज खबर ढूंढनी पड़ती है, रोज जोखिम उठाना पड़ता है। दोस्त कम हो जाते हैं, दुश्मन बढ़ने लगते हैं। धमकियां भी मिलने लगती हैं और कई बार तो नौबत यहां तक पहुंच जाती है कि पत्रकार को अपनी जान देकर कीमत चुकानी पड़ती है…

जो काम सीमा पर सेना करती है, चाहे सर्दी हो, गर्मी हो, तूफान या बर्फबारी, हर मौसम, हर माहौल में डटी रहती है, ताकि दुश्मन देश की तरफ आंख उठाकर न देखे। वही काम एक दूसरा तबका भी करता है, चाहे बर्फ गिरे, बारिश हो या तूफान, वह भी लगातार अपना काम जारी रखता है और वह तबका संबंध रखता है पत्रकारिता से। पत्रकारिता की भूमिका सेना से कम नहीं है। सेना खुद को जोखिम में डालकर देश की रक्षा करती है, तो पत्रकारिता भी जोखिम भरे काम से कम नहीं है। सेना सीमा पर दुश्मन से भिड़ती है, तो पत्रकार समाज के दुश्मनों से लड़ते हैं। सेना को भी अगले पल की खबर नहीं होती कि कब कुर्बानी देनी पड़े। यही हाल पत्रकारों का भी तो है। हाल ही में कुछ ऐसे हादसे सामने आए हैं, जब सच को उजागर करने के लिए पत्रकारों को अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ी। हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को उनके घर में ही गोलियों से भून दिया गया। एक सैनिक और एक पत्रकार के लिए जोखिम एक समान ही है। बात अखबार की करें, तो अखबार का मतलब महज पत्रकार ही नहीं होता। हां, पत्रकार की भूमिका उसमें अहम जरूर हो सकती है, पर कोई भी अखबार सामूहिक श्रम की परिणति होती है। हर कोई अखबार को सिर्फ दस मिनट के लिए अपना टाइम पास समझता होगा और उसके बाद वह अखबार किसी कोने में पड़ी रहती है या कुछ दिनों बाद किसी कबाड़ वाले के पास रद्दी बन जाती है। यही दस मिनट की अखबार कितने लोगों के श्रम से घंटों की मेहनत के बाद पाठक तक पहुंचती है। भूमिका सबसे पहले पत्रकार की ही है। क्योंकि फील्ड से खबर तो उसी ने भेजनी है। पत्रकार के इस आगाज के बाद खबर तथ्यों के आधार पर जांचने के बाद मुख्य कार्यालय में पहुंचती है। यहां से पत्रकार की भूमिका खत्म हो जाती है। अब उसे इंतजार होता है अपने उस उत्पाद का जो उसे दूसरे दिन सुबह देखने को मिलता है। इस खबर को पकाने के लिए डेस्क पर मेहनत होती है। एक सब- एडिटर उस खबर को जांचता है कि कैसे उसे एडिट कर कम से कम शब्दों में पाठकों के समक्ष रखा जाए।

यह  सब- एडिटर की काबिलीयत पर निर्भर है कि वह खबर को एडिट इस तरह करे कि उसका निचोड़ खबर में रह जाए। उसके बाद खबर में कुछ गलतियां हों तो उसे प्रूफिंग द्वारा दुरुस्त किया जाता है, ताकि खबर पाठकों तक बिना अशुद्धियों के पहुंचे। इसके बाद इस खबर को कम्प्यूटर में इस तरह डिजाइन किया जाता है कि यदि कोई फोटो इस खबर के साथ है तो उसे सही जगह पर खबर के साथ चस्पां किया जाए। एक-एक खबर इस तरह फील्ड से इकट्ठी की जाती है और हर खबर को इसी दौर से गुजरना होता है। उसके बाद काम शुरू होता है प्लेट मेंकिंग का और प्रिंटिंग का। इन लोगों की भी भूमिका कम अहम नहीं है। पत्रकार से चली खबर रात होने तक छपने को तैयार हो जाती है और प्रिंटिंग मशीन पर तैनात कर्मचारी उसे अखबार का प्रारूप देकर तैयार कर देते हैं। अखबार प्रिंट होकर तैयार हो जाने के बाद अब उसे सुबह तड़के हर घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी दूसरे लोगों पर होती है। पैकिंग करने वाले इस काम को अंजाम देते हैं। वे अखबारों के बंडल बनाकर अलग-अलग गाडि़यों में लोडिंग के लिए तैयार कर देते हैं और फिर यह अखबार जो एक खबर से शुरू हुई, अलग-अलग गाडि़यों में लोड होकर पाठकों के घर द्वार पहुंचने के लिए चल पड़ती है और सुबह उठते ही पाठक को देश-दुनिया का सारा हाल पता चल जाता है। यानी जब पाठक सो रहा होता है तो अखबार वाले जाग कर उसके लिए मसाला इकट्ठा करते रहते हैं। यही दस मिनट की अखबार कितने हाथों की मेहनत से गुजर कर  पाठक तक पहुंचती है।

वैसे इस सारी मेहनत का श्रेय वह पत्रकार ले जाता है, जिसने शुरू में खबर भेजी, जबकि उस खबर को पाठक तक सही ढंग से पहुंचाने में कितने ही हाथों ने सहयोग दिया होता है। मीडिया का मतलब अगर ढंग से जाना जाए तो यही है कि रोज कुआं खोदो और रोज पानी पियो। रोज खबर ढूंढनी पड़ती है, रोज जोखिम उठाना पड़ता है। दोस्त कम हो जाते हैं, दुश्मन बढ़ने लगते हैं। धमकियां भी मिलने लगती हैं। कई बार तो नौबत यहां तक पहुंच जाती है कि पत्रकार को अपनी जान देकर कीमत चुकानी पड़ती है। बेशक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पांव पसार लिए हैं, पर आज भी लोग जब तक सुबह अखबार नहीं देखते, उन्हें चाय अच्छी नहीं लगती।  मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और ईमानदार पत्रकारिता ही इसे मजबूत कर सकती है। स्तंभ मजबूत होगा तो इमारत मजबूत होगी। इतने लोगों के हाथों की मेहनत को समाज महसूस करे और सच को सामने लाने में मीडिया का सहयोग करे। मीडिया भी सस्ती लोकप्रियता से परहेज करे, तभी अखबार का मकसद पूरा होगा। मीडिया की ताकत यह ईमानदारी ही है, जिसने कई दबे हुए या बंद हुए केसों को दोबारा से खुलवाया और न्यायालय के संज्ञान में लाया। मीडिया के कारण ही न्याय की आस छोड़ चुके लोगों को न्याय मिला। मेहनत से ईमानदारी का गुण खुद-ब-खुद आ जाता है। मेहनत तो हर काम में लगती है, पर ईमानदारी की मेहनत अलग होती है। समय के साथ मीडिया की भूमिका भी बदल रही है। दिल्ली के निर्भया कांड और हिमाचल के बिटिया प्रकरण को अगर मीडिया का संबल न मिलता, तो शायद ये केस भी दूसरे केसों की तरह पुलिस की फाइलों में बिना कार्रवाई के दफन हो जाते और किसी को खबर भी न हो पाती। इसमें कोई संदेह नहीं कि मीडिया बेजुबानों की जुबान है।

ई-मेल : sureshakrosh@gmail.com


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