निर्णय ले सकने की सहूलियत व छूट

By: Oct 8th, 2017 12:08 am

लिखना, अक्षर-अक्षर जुगनू बटोरना और सूरज के समकक्ष खड़े होने का हौसला पा लेना, इस हौसले की जरूरत औरत को इसलिए ज्यादा है क्योंकि उसे निरंतर सभ्यता, संस्कृति, समाज और घर-परिवार के मनोनीत खांचों में समाने की चेष्टा करनी होती है। कुम्हार के चाक पर चढ़े बर्तन की तरह, कट-कट कर तथा छिल-छिल कर, सुंदर व उपयोगी रूपाकार गढ़ना होता है। इसके बावजूद वह अपने लिए पर्याप्त जगह बना ले और अपने हक में फैसला लेकर, रोने-बिसुरने या मनुहार करने की अपेक्षा उस पर अडिग रह सके। इसके लिए अध्ययन और लेखन एक मजबूत संबल, माध्यम हो सकता है। यदि वह स्वतंत्र चेता होकर, निर्णायक की भूमिका में आना चाहे…..यद्यपि पहाड़ की कुछ अपनी (भीतरी व बाहरी) मुश्किलें व दुष्चिंताएं हैं। इसके बाद भी यह अत्यंत सुखद है कि हिमाचल में, महिला लेखन की सशक्त परंपरा रही है जिसका सतत् निर्वाह हो रहा है। इन रचनाधर्मी महिलाओं की रचना प्रक्रिया को समझने के प्रयास में कुछ विचार बिंदु इनके सम्मुख रखे हैं। इस अनुरोध सहित कि कुछ ऐसा जो इन बिदुंओं तक नहीं सिमटता हो, वे वह भी कहें। संक्षिप्त परिचय व तस्वीर के साथ।…‘तुम कहोगी नहीं तो कोई सुनेगा नहीं। सुनेगा नहीं तो जानेगा नहीं और निदान इसी में कि कोई सुने, तुम कहती क्या हो/ कोई जाने/ तुम सहती क्या हो…

कैसी भी और कितनी भी भीषण विषमताओं, अन्याय व उत्पीड़न के बावजूद इक्कीसवीं सदी सपने देखने और उन्हें क्रियान्वित कर पाने का समय साबित हो रही है। पर ये सपने पलकों पर फूलों की पंखुडि़यां रखने जितनी नजाकत से नहीं पाले जा रहे। एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। पिछले कुछ वर्षों से सामाजिक संस्थाओं में, राजनीति में और साहित्य में स्त्री के प्रति चिंतातुर होकर आंदोलन की सी स्थितियां पैदा की जा रही हैं तो दूसरी ओर बढ़ते-फैलते और दिन-प्रतिदिन उदार होते जाते बाजार में नारी रूपाकार की कीमत निरंतर बढ़ रही है। स्त्री का शरीर अपेक्षाकृत ज्यादा उपयोग की चीज होता जा रहा है। यानी वह कुछ ज्यादा ही तेजी से एक महंगी वस्तु में तबदील हो रही है। उसके चेहरे की लुनाई, कंधों, पीठ और उसकी लाज व ढिठाई को धड़ल्ले से खरीदा व बेचा जा रहा है। खरीदने और बेचने के बीच ऐसा तिलिस्म रचा जाता है कि वस्तु को कर्ता होने का भ्रम हो। महीन-महीन धागे कठपुतलियों को उठाते व बिठाते हुए, खरीद-फरोख्त करते हैं और भोली कठपुतलियां सोचती हैं कि बाजार उन पर टिका है… ये दो विरोधी स्थितियां हमारे समाज व देश में एक साथ सामने आ रही हैं। स्त्री को लेकर चिंता और सरोकार वाकई यदि है तो फिर उसकी मेघा, संवेदना और जीवन को नकार कर, उसे केवल शरीर तक क्यों सीमित किया जा रहा है? बाजार के लिए वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण व सुलभ उपादान है तो स्त्री विमर्श की बाढ़ को देखते हुए संकोचपूर्ण यह कहना पड़ सकता है कि यहां भी वह मात्र उपादान ही तो नहीं है? यह केवल बौद्धिक विलास ही तो नहीं है? विशेष मंतव्य को लेकर, मनोनीत दिशा में ही ये विमर्श आयोजित व प्रायोजित हो रहे हैं। कभी मात्र अक्षर ज्ञान ही उसकी मुक्ति का साधन माना जा रहा है। कहीं आर्थिक आत्मनिर्भरता में स्त्री मुक्ति की राह खोजी जा रही है। कोई पुरुष के सामने प्रतिद्वंद्वी के रूप में उसे खड़ा करके, दोनों को दो ध्रुवों की तरह सिद्ध करने की कोशिश में है तो कोई स्त्री सुलभ संस्कारों को ही उसकी सीमा कह रहा है। विमर्शों का सीधा गणित यह कि स्त्री को साक्षर होना है। आत्मनिर्भर होना है। पुरुष द्वारा किए जा रहे अन्याय व दुराचार के विरोध का साहस जुटाना है। दया, ममता व क्षमा सरीखे अपने गुणों को तिलांजलि देकर एक योद्धा की मुद्रा धारण करनी है, परंतु सभी साक्षर व आत्मनिर्भर औरतें सुखी हैं? पुरुषों से लड़ती-झगड़ती व पुरुषोचित हाव-भाव दिखाती औरतें संतुष्ट हैं? उत्तर नहीं में आएगा। क्योंकि केवल शिक्षित व आत्मनिर्भर होकर, निर्भीक व निर्द्वंद्व जी लेने में सुख निहित नहीं है। ये सुख के माध्यम तो हैं, परंतु स्वयं सुख नहीं हैं। सुख एक स्वप्न है जो जागती आंखों से देखा जाता है। जागती चेतना से महससू किया जाता है। जिसके लिए जरूरत, अंतर में उठती अदम्य चाह की है और उसके प्रतिफलन के लिए एक विशेष सभ्य परिवेश की… जिसमें स्त्री स्वातंत्र्य सुरक्षित हो।

स्त्री स्वातंत्र्य का अर्थ समान मानवीय संबंध हैं। जिनके लिए अनुकूलता प्रदान करना समाज का लक्ष्य है। मनुष्य मात्र के लिए, तन व मन के धरातल पर ऐसी सहूलियत देना, जिसमें अपने लिए फैसला ले सकने की छूट हो। यह किसी कबीलाई समाज, खाप पंचायत या सामंती सोच रखते सत्ता विधान में नहीं हो सकता। जहां अपने जैसे मनुष्यों को ही पशुओं से भी निम्नतर जीवन जीने को बाध्य किया जाता है। ये दलित हों, शोषित हों या स्त्री समूह हों। इन सब में एक समानता है कि इन्हें इनके कार्य के लिए नहीं, बल्कि इनके होने के लिए प्रताड़ना मिलती है, जिसके लिए ये जिम्मेदार हैं ही नहीं। इनके पास कोई विकल्प नहीं था। फिर भी जीवन भर इस होने की सजा को भोगना इनकी नियती है… इतनी शिक्षा, धर्म-ग्रंथ, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य व संस्कृति के बाद भी वर्षों से अर्जित सभ्यता की नींव चरमराने लगती है। गुंबद ढहता है। कभी भीड़ तो कभी किसी अकेले के उन्माद और बहशीपन का शिकार बनते हैं दलित, वंचित व स्त्री। स्त्री अपनी पहचान और अधिकार की लड़ाई इन्हें साथ लेकर या इनके साथ होकर यदि लड़े तो वह सार्थक होगी। अन्याय के विरुद्ध आक्रोश है, उससे हिम्मत भी जन्म लेती है, परंतु वह टुकड़ा-टुकड़ा और कभी-कभार की हिम्मत है। बंटी हुई हिम्मतें आततायी को सबल बनाती हैं… इसलिए स्त्री विमर्श को शोषित व दलित मानवीय इकाई की चिंता की परिधि में लाना अनिवार्य व आवश्यक है, ताकि संघर्ष सांझा हो क्योंकि  दुख सांझे हैं।

मौलिक व रचनात्मक समालोचक तथा सफल संपादिका डा. विद्यानिधि स्त्री विमर्श के लक्ष्य को स्पष्टतया रेखांकित करते हुए कहती हैं कि जब तक स्त्री अपने खुद के मानवीय सरोकारों को नहीं पहचानती, तब तक वह शोषित ही रहेगी। यह भी कि सभ्यता विमर्श को स्त्री के ही नजरिए से देखने की आवश्यकता है। हंस पत्रिका के लिए राजेंद्र यादव जी के साथ किया उनका संपादन कार्य विशेष उपलब्धि है, महिला साहित्य के क्षेत्र में। कंचन शर्मा के अनुसार समय बदल गया है। फिर भी स्त्रियों ने नकारात्मकता को ही झेला है। महानता के नाम पर स्त्री को समाज ने आज तक बर्बाद ही किया है। उनकी ये पंक्तियां स्पष्टतया रेखांकित करती हैं कि  आवश्यकता समाज की मानसिकता को बदलने की है अर्थात स्त्री-विमर्श  को सभ्यता विमर्श की परिधि में लाना अनिवार्य है…। विविध विषयों पर लिखना उन्हें प्रिय है और वह सफलतापूर्वक त्वरित  गति से लिख भी रही हैं, जिसे रेखांकित किया जा रहा है, जो सराहनीय है।

डा. आशु फुल्ल की दृष्टि में आधुनिक युग में स्त्री विमर्श अति महत्त्वपूर्ण विचारोत्तेजक बहस का विषय है। स्त्री के साथ हो रहा अमानवीय व्यवहार, सभ्य समाज के समक्ष चिंता का विषय है, परंतु केवल चिंता नहीं, क्रांतियां करनी होंगी और शोषित नारी को खुद भी चक्रव्यूह भेदना होगा। आशु फुल्ल ने आलोचना के क्षेत्र में विविध विषयों पर समीक्षाएं की हैं। वह नारी परिवेश का चित्रण बहुत स्पष्टता व बेबाकी से करती हैं। स्त्री की स्थिति के कारणों का विवेचन करती हुई, समाधानों के संकेत भी देती हैं। संपादन कार्य में भी इनका सार्थक हस्तक्षेप है।

जीवन में कितने सार्थक बदलाव आ गए हैं, परंतु स्त्री आज भी लकड़ी की डेढ़ इंच खड़ांऊ पहने जलती भट्टी के अग्निमुख बंद करती फिरती है। भीतर-बाहर दोहरे आघात झेलती है। स्त्री विमर्श को सही दिशा की ओर ले जाते हुए, वंचित व शोषित मानवीय इकाई से संबद्ध बहस से जोड़ना होगा यह कहते हुए कि दुनिया भर के शोषितो तथा वंचितो एक हो जाओ। अन्यथा स्वातंत्र्य इति।

-चंद्ररेखा ढडवाल, धर्मशाला

विमर्श सूत्र

* रचना प्रक्रिया में घर व परिवार/समाज व परिवेश, आपसे आगे रहता है। अनुगामी होता है या साथ-साथ चलते हुए प्रोत्साहित

करता है।

* वर्तमान के संदर्भ में, अंचल विशेष के मानस को, उसकी मौलिकता में उद्घाटित कर पाने में अनुष्ठान व संस्कार गीतों तथा लोक गाथाओं की क्या भूमिका रहती है?

* स्त्री-विमर्श को सभ्यता-विमर्श के आलोक में एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई की चिंता की परिधि में लाना कितना अनिवार्य है।

* भोगे हुए व देखे/समझे हुए यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्वंद्व कह पाने में दबाव या संकोच महसूस करती हैं?


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