फल उत्पादन क्षेत्र में हो विस्तार

By: Oct 11th, 2017 12:02 am

सतपाल

लेखक, एचपीयू में शोधार्थी हैं

प्रदेश के बागबानों को हर तरह से सक्षम बनाने की जरूरत है। आज सेब प्रदेश के जिन जिलों में उत्पादित हो रहा है, वहां की अर्थव्यवस्था काफी सशक्त हुई है। शिमला, कुल्लू व किन्नौर जिला में सेब उत्पादन से इन  जिलों की प्रति व्यक्ति आय में जहां वृद्धि हुई है, साथ ही साथ जीवन स्तर में भी काफी सुधार देखने को मिलता है। लेकिन सेब विकास की यह दर इन कुछ जिलों तक ही सीमित रही है। आज के समय में सेब की विभिन्न प्रजातियां हैं, जो चाहे जैसे भी वातावरण में अपने आपको अनुकूलित कर लेती हैं और किसी भी जिला की आर्थिकी को सुधारने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं…

हिमाचल पूरे भारत में सेब उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। प्रदेश की विविध जलवायु, भौगोलिक क्षेत्र तथा उसकी स्थिति में भिन्नता सम-शीतोषण तथा उष्ण कटिबंधीय फलों की खेती के लिए बहुत उपयुक्त है। यह क्षेत्र अन्य गौण उद्यान उत्पादन जैसे फूल, खुंभ, शहद तथा हॉप्स की खेती के लिए भी अनुकूल है। प्रदेश की इस अनुकूल स्थिति के परिणामस्वरूप पिछले कुछ दशकों में भूमि उपयोग अब कृषि से फलोत्पादन की ओर स्थानांतरित होता जा रहा है। वर्ष 1950-51 में अगर बात की जाए, तो फलों के अधीन कुल क्षेत्र 792 हेक्टेयर था, जिसमें कुल उत्पादन 1,200 टन था। यह वर्ष 2015-16 में 2,26,799 हेक्टेयर क्षेत्र हो गया तथा फलों का कुल उत्पादन 9.29 लाख टन हो गया है। यह आंकड़ा इस बात की पुष्टि करता है कि कृषि से पलायन फलोत्पादन की तरफ हो रहा है। इसके पीछे एक विशेष कारण भी है। हिमाचल जैसे पहाड़ी प्रदेश में कृषि करना उतना आसान नहीं रहा है, क्योंकि मुख्यतः कृषि करने के लिए समतल भूमि का होना आवश्यक है। दूसरी ओर फलों के उत्पादन के लिए चाहे जैसी भी भूमि हो, पेड़ उगा लिए जा सकते हैं। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि भूमि का प्रति हेक्टेयर उपयोग कृषि की अपेक्षा उद्यान उत्पादन में बेहतर साबित होता रहा है। हिमाचल प्रदेश में फलोत्पादन में सेब का प्रमुख स्थान है। प्रदेश में फलों के अधीन कुल क्षेत्र का लगभग 49 प्रतिशत भाग है तथा उत्पादन कुल फलों के उत्पादन में सेबों का 84 प्रतिशत हिस्सा है। यह अपने आप में एक बड़ा आंकड़ा है।

वर्ष 1950-51 में सेबों के अंतर्गत 400 हेक्टेयर क्षेत्र था, जो वर्ष 2015-16 में 1,10,679 हेक्टेयर हो गया। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि सेब उत्पादन प्रदेश की अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग बनकर सामने आया है। सेब के अतिरिक्त निंबू, फूल उत्पादन, आम व लीची उत्पादन में भी प्रदेश के बागबान धीरे-धीरे हाथ आजमाने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं। इस सबके बावजूद उपयुक्त मंडी की उपलब्धता न होने के साथ-साथ अज्ञानता से भी हम इनके उत्पादन में काफी पीछे रह रहे हैं। इसके लिए हमें प्रदेश के बागबानों को हर तरह से सक्षम बनाने की जरूरत है। आज सेब प्रदेश के जिन जिलों में उत्पादित हो रहा है, वहां की अर्थव्यवस्था काफी सशक्त हुई है। अगर बात की जाए शिमला, कुल्लू व किन्नौर जिला की, तो सेब उत्पादन होने से इन  जिलों की प्रति व्यक्ति आय में जहां वृद्धि हुई है, साथ ही साथ जीवन स्तर में भी काफी सुधार देखने को मिला है। लेकिन सेब विकास की यह दर इन कुछ जिलों तक ही सीमित रही है। आज के समय में सेब की विभिन्न प्रजातियां हैं, जो चाहे जैसे भी वातावरण में अपने आपको अनुकूलित कर लेती हैं और किसी भी जिला की आर्थिकी को सुधारने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं। इसके लिए व्यक्तिगत प्रयास भी किए जा रहे हैं। बिलासपुर जैसी जलवायु में भी सेब की उत्पादकता हो रही है, जिसको बड़े स्तर पर करने की जरूरत है। प्रदेश के अति दुर्गम क्षेत्र चंबा में भी सेब के लिए उपयुक्त जलवायु एवं वातावरण है, परंतु वहां सेब की उन्नत किस्में अभी तक उतनी तेजी के साथ नहीं पहुंच पाई हैं। दूसरा कोल्ड स्टोर व उपयुक्त मंडी की सुविधा का भी अभाव खलता नजर आता है। अतः नीति-नियंताओं को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

प्रदेश में सेब से संबंधित बागबानों को कई किल्लतों का भी सामना करना पड़ता है। सबसे पहले प्राकृतिक समस्याओं जैसे ओलावृष्टि व अतिवृष्टि शामिल हैं। इनसे निपटने के लिए बागबानों ने एंटी हेल नेट तथा एंटी हेल गन जैसी विदेशी तकनीकों का फायदा लिया, परंतु इसे हम प्रकृति के नियम के साथ खिलवाड़ मान सकते हैं। इसके दुष्परिणाम भी हम आए दिन देखते आ रहे हैं। जहां लोगों ने एंटी हेल गन लगाए हैं, वहां तो मान लीजिए ओलावृष्टि नहीं होती, परंतु उसका असर आसपास के क्षेत्रों में अत्यधिक ओलावृष्टि के रूप में देख सकते हैं। दूसरी तरफ एंटी हेल नेट तकनीक प्रकृति से मेल रखने वाली है। अतः बागबानों को सतत विकास के मुद्दे को ध्यान में रखते हुए इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। अगर विकास के लिए हम प्रकृति से ऐसे ही खेलते रहे, तो इसके दुष्परिणाम निकट भविष्य में भयानक होने की संभावना है। दूसरी बड़ी समस्या की अगर बात की जाए, तो वह दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे रसायनों के प्रयोग से है। विकास की गति को तीव्र करने के लिए रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है, जिससे हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ना स्वाभाविक सी बात है। आज के समय में अगर हम देखें, तो प्रदेश में दिल का दौरा, कैंसर एवं श्वास से संबंधित बीमारियों के मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। मनुष्य जन्म से ही लालची होता है, इसलिए अधिक से अधिक पैसों के चक्कर में अतिक्रमण करके जंगल काटने में भी पीछे नहीं हट रहा है। इससे वातवरण का संतुलन बिगड़ना स्वाभाविक सी बात है। यह हमारे समक्ष गहन चिंता का विषय है, जिस पर मंथन करना अत्यावश्यक है। संक्षेप में यह कहना उपयुक्त होगा की प्रदेश में सेब ने आर्थिकी सुधारने में एक अहम भूमिका निभाई है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं, परंतु हमें आर्थिकी के साथ-साथ सामाजिक परिदृश्य को भी ध्यान में रखने की आवशयकता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, यह विदित सत्य है। अतः अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के साथ-साथ हमारे कंधों पर अपने समाज व पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी भी है। अतः सेब के आर्थिक महत्त्व को ध्यान में रखते हुए साथ ही साथ पर्यावरण से संबंधित पहलुओं को भी निहारने की जरूरत है।


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