बेखौफ अपराध की अंतहीन दास्तां

By: Oct 21st, 2017 12:02 am

जगदीश बाली

लेखक, शिमला से हैं

हाल ही में अपराध की कुछ घटनाएं मनुष्य की दरिंदगी की पराकाष्ठा की तस्वीर पेश करती हैं। ये घटनाएं इस बात को भी उजागर करती हैं कि जुर्म करने वालों को न तो इनसानियत से कुछ सरोकार है, न कानून की रखवाली पुलिस का डर है और न ही न्यायालय व कानून की कोई परवाह…

अमरीका में भारत के भूतपूर्व राजदूत व अटॉर्नी जनरल नानी पालकीवाला के विचार थे-‘भारत में न ही कानून का पालन करवाया जाता है और न ही इसका सम्मान किया जाता है।’ महान न्यायविद के इस कथन के न्यायिक, सामाजिक और इनसानी पहलू हैं, जिन्हें देश में बढ़ रहे जघन्य अपराधों के संदर्भ में देखा जा सकता है। सोचिए कुछ रोज पहले दिल्ली में हुई उस घटना के बारे में, जिसमें बठिंडा के सिख युवक गुरप्रीत सिंह को इसलिए मौत के घाट उतार दिया गया, क्योंकि उसने सिर्फ आरोपी को सिगरेट का धुआं उसकी तरफ न फेंकने को कहा था। कल्पना कीजिए रेयान पब्लिक स्कूल के सात वर्षीय मासूम प्रद्युम्न की पीड़ा की, जिसका गला रेत दिया गया। सोचिए शिमला के उस चार वर्षीय युग की निशब्द करती वेदना के बारे में, जिसे भूखा रखा गया, शराब पिलाई गई और फिर पानी की टंकी में डुबो दिया गया। कल्पना कीजिए कोटखाई की बिटिया की दर्द भरी चीखों की, जिसे दुष्कर्म के बाद वीभत्स तरीके से मार दिया गया। सोचिए उस वनरक्षक होशियार की दर्द भरी दास्तां के बारे में, जिसका शव पेड़ से उल्टा लटका पाया गया। याद कीजिए राजधानी दिल्ली की उस निर्भया की असहनीय पीड़ा को, जिसके साथ जानवरों से भी बदतर सलूक किया गया। उदाहरण और भी दिए जा सकते हैं।

जहां एक ओर ये घटनाएं मनुष्य की दरिंदगी की पराकाष्ठा की तस्वीर पेश करती हैं, वहीं इस बात को भी उजागर करती हैं कि जुर्म करने वालों को न तो इनसानियत से कुछ सरोकार है, न कानून की रखवाली पुलिस का डर है और न ही न्यायालय व कानून की कोई परवाह। उनके हौसले इतने बुलंद हैं कि कोई शरीफ आदमी उनसे कुछ कहने से डरता है, क्योंकि जान तो सबको प्यारी होती है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जब पुलिस पहले तो मामले को दबाने की कोशिश करती है और जब जनता का दबाव बढ़ता है, तो किसी को बचाने के लिए किसी और बेगुनाह को भी जेल में ठेल देती है। जब बड़े-बड़े ओहदों पर आसीन कानून की रक्षा करने वाले भी इन अपराधियों से मिल जाते हैं, तो उम्मीद किससे की जा सकती है? अगर कोई न्यायालय के दरवाजे तक पहुंचता है, तो फैसला आते-आते कई जोड़ी जूते घिस जाते हैं। जब फैसला आता है, तो कई बार निराशा और कुंठा का शिकार होना पड़ता है। चाहे सैकड़ों गुनहगार छूट जाएं, परंतु एक बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए। इस न्यायिक सिद्धांत की आड़ में कई अपराधी हमारी न्याय प्रणाली को ठेंगे पर रखते हैं और कानून का मजाक बनाते दिखते हैं। वहीं पीडि़त व्यक्ति न्याय के पास सिर्फ सिर पीटने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता। कई बार निचली अदालत जिन सबूतों के आधार पर अपराधी की सजा मुकर्रर करती है, बड़ी अदालत इन्हें नाकाफी मानकर अपराधी को बरी कर देती है। गड़बड़ कहां है, यह पूछने की मनाही है। कुछ जांच की रिपोर्टें तो सीलबंद लिफाफों में ही पड़ी रहती हैं। कानून और न्याय व्यवस्था का फायदा उठा कर अपराधियों के हौसले बुलंद होते जाते हैं। कई बार न्याय न मिलने पर कुंठित हो कर एक अच्छा भला आदमी भी गुनाह के रास्ते पर चल पड़ता है। राहत इंदौरी साहब कहते हैं-

नई हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है,

कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है।

जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते,

सजा न देके अदालत बिगाड़ देती है।

कानून को असहाय करने में हमारा समाज भी पूरी भूमिका निभाता है। यहां प्रवचन देने वाले पाखंडी बहुत हो गए हैं। जब कभी वास्तव में अपना कर्त्तव्य निभाने की बात आती है, तो हम कहते हैं-मुझे क्या लेना? यह वह जुमला है, जिसके चारों ओर आकर हमारी आधुनिक जीवनशैली काफी हद तक केंद्रित हो गई है। हम जुर्म होते हुए देख सकते हैं, परंतु न जुर्म करने वाले का विरोध करने की हिम्मत कर पाते हैं और न ही अदालत में गवाही देने का साहस। बाद में कानून को अंधा कह कर जरूर कोसते हैं। हां, सरकारी संपत्ति जैसे बसें, इमारतों आदि को जरूर आग के हवाले कर देते हैं। कई संवेदनहीन लोग यह कह सकते हैं कि ऐसी घटनाएं तो होती रहती हैं, परंतु उस दर्द और कष्ट का एहसास कीजिए जो हैवानियत का शिकार हुए लोगों के माता-पिता व रिश्तेदारों को सहन करना पड़ा। कई तो ऐसे सदमे से ताउम्र नहीं उबर पाते और उनकी आंखों का नीर भी सूख जाता है। अगर इन घटनाओं के बारे में सोचने से आपका दिल नहीं दहलता, अगर इस दर्द का एहसास करके आप में सिहरन नहीं होती, तो यह बात भी स्वीकार कर लीजिए कि आप में भी इनसानियत धीरे-धीरे खत्म हो रही है। सवाल यह भी उठता है कि आखिर हम और आप कितने महफूज हैं। हो सकता है कि आज आप अपने आप को अपने घरों में सुरक्षित मान रहे हों, परंतु इन जघन्य अपराधों की चिंगारियां आपके घरों तक भी पहुंच सकती हैं। अपने बच्चों और बच्चियों के बारे में सोचिए, जिन्हें आप बेहतर शिक्षा के लिए बाहर भेजते हैं, जो अपने घरों से दूर रोजी-रोटी कमाने के लिए निकले हैं। इससे पहले कि जुर्म की लपटें आपके घर को भी अपने आगोश में ले लें, इन जुर्मों के विरुद्ध आवाज उठाएं। साथ में आगे आकर कानून का साथ दीजिए और गुनहगारों को सजा दिलाने में मदद कीजिए। इसी बदलाव के साथ समाज को रहने लायक बनाया जा सकता है।


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