मन बच्चा क्यों है

By: Oct 14th, 2017 12:05 am

अवधेशानंद गिरि

प्रकृति का स्वभाव है दोषों को मिटाकर प्राणी को शुद्ध बनाते रहना। प्रकृति किसी को नीचे नहीं गिराती। प्राणी स्वयं ही दोषों का पोषण करके उनको बलवान बना देता है। दोष के कारण को मिटा देने से वह सुगमता से मिट सकता है। निर्दोषता प्राणी का स्वभाव है और जीवन की आवश्यकता भी…

साधक को अपने साधन में प्रीति और सद्भाव होना चाहिए। मन और बच्चे की एक जैसी दशा होती है। अतः साधक को मन के साथ बच्चों जैसा व्यवहार करना चाहिए। बालक के मन की सभी बातें पूरी करने पर भी उसका हित नहीं होता है। जो बात उसके हित की हो और पूरी की जा सके, उसे पूरा करना चाहिए। जो पूरी करने योग्य न हो, उसे विस्मृत कर देने के लिए उसे कोई दूसरी वस्तु दे दी जाए, जो उसके लिए हितकर भी हो और रुचिकर भी। ऐसा करने से बालक का सुधार सुगमता से हो सकता है। उसे किसी भी प्रकार से डराना व धमकाना नहीं चाहिए। डराने, धमकाने से बच्चा भयभीत व लालची बन सकता है। अगर किसी बालक को बुद्धिमान बनाना है, तो उसे बार-बार समझाना होगा। जो उसके लिए अनुकूल है वह नहीं, जो उसके लिए सही है उसे वह बताना होगा। ठीक यही स्थिति मन की है और यही बातें हमें मन को समझानी चाहिए। मन को किसी प्रकार के दबाव या भय अथवा किसी अन्य प्रकार के लालच में नहीं लाना चाहिए। साधक को चाहिए कि मन को अपने साथ मिलाकर उसे सत्ता न दे। दोष प्राणी का स्वभाव नहीं, इसलिए वह सदैव नहीं रह सकता। निर्दोषता के साथ प्राणी की जातीय एकता है। अतः वह सदैव निर्दोष रह सकता है। प्रकृति का स्वभाव है दोषों को मिटाकर प्राणी को शुद्ध बनाते रहना। प्रकृति किसी को नीचे नहीं गिराती। प्राणी स्वयं ही दोषों का पोषण करके उनको बलवान बना देता है। दोष के कारण को मिटा देने से वह सुगमता से मिट सकता है। निर्दोषता प्राणी का स्वभाव है और जीवन की आवश्यकता भी। जिस प्रकार शरीर का निरोग होना स्वाभाविक है और रोग आते और जाते रहते हैं, उसी प्रकार दोष सदैव नहीं रहते, आते और चले जाते हैं। इनको मिटा देना कठिन नहीं है। भोगों की प्राप्ति अवश्य कठिन है, क्योंकि उसमें वह पराधीन है। उनसे हमारी किसी भी प्रकार की एकता नहीं। जो चीज वास्तव में आवश्यक होती है, वह सुगमता से मिलती है। जैसे अनेक प्रकार के जवाहरात बहुत ही कम आवश्यक होते हैं। उनसे अधिक आवश्यकता खाद्य-पदार्थों की है। इसलिए खाद्य पदार्थ हमें अपेक्षाकृत आसानी से हासिल हो जाते हैं। उससे भी अधिक आवश्यकता जल, धूप और और वायु की है तो वे हमें सहज प्राप्त हैं। चाह कभी किसी की पूरी नहीं होती, उसका हमेशा अभाव बना ही रहता है। चाह से ग्रस्त व्यक्ति हमेशा परेशान रहता है, लेकिन चाह रहित व्यक्ति आनंद में रह सकता है। ये इच्छाएं ही जीव को भटकाती हैं। उसे हमेशा दौड़ाती रहती हैं। ऐसे लोगों में हमेशा एक-दूसरे से डर बना रहता है। इसके उलट संतोष में ठहराव है। उसमें जीव भटकता नहीं है। उनमें भय भी नहीं रहता है। उनका अनादर भी नहीं होता। जब इनसान अपने मन को अपने वश में कर लेता है तो उसकी सारी इच्छाएं खत्म हो जाती हैं। वह अपने जीवन में कोई भी गलत निर्णय नहीं लेता। उसकी सारे दोष अपने आप मिट जाते हैं, क्योंकि मन ही सारे फसाद की जड़ है। यह मन बहुत चंचल होता है इस पर काबु पाना बहुत कठिन कार्य है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App