महाबाहु परशुराम

By: Oct 14th, 2017 12:05 am

गतांक से आगे…

इस पर सत्यावती ने ससुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिए एक पुत्र की याचना की। सत्यावती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुए कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर लोगी, तब तुम्हारी मां पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करे और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिए गए इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग-अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यावती की मां ने देखा कि भृगु जी ने अपनी पुत्रवधू को उत्तम संतान होने का चरु दिया है,तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यावती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योग शक्ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले  पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिए अब तुम्हारी संतान ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की संतान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यावती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यावती ने जमदग्नि को जन्म दिया। जमदग्नि अत्यंत तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पांच पुत्र हए। श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्व राज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख, हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार वश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी। अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का भी वर मांगा। कथानक है कि हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्य अर्जुन ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्नि मुनि के आश्रम जा पहुंचा और देवराज इंद्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्य दल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। कुपित परशुराम जी ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्रार्जुन के दस हजार पुत्रों ने प्रतिशोध वश परशुराम की अनुपस्थिति में ध्यानस्थ जमदग्नि का वध कर डाला। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई। क्षुब्ध परशुराम जी ने प्रतिशोध वश महिष्मती नगरी पर अधिकार कर लिया, इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया और हैहयों के रुधिर से स्थलंत पंचक क्षेत्र में पांच सरोवर भर दिए और पिता का श्राद्ध सहस्र्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अंत में ऋषि ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया। तब उन्होंने अश्वमेध महायज्ञ कर सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। वाल्मीकी रामायण में श्रीराम ने परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने श्रीरामचंद्र जी की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविंदों के प्रति सुदृढ़ भक्ति की ही याचना की।


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