मूल से जुड़ना स्व से जुड़ना है

By: Oct 1st, 2017 12:05 am

लिखना, अक्षर-अक्षर जुगनू बटोरना और सूरज के समकक्ष खड़े होने का हौसला पा लेना, इस हौसले की जरूरत औरत को इसलिए ज्यादा है क्योंकि उसे निरंतर सभ्यता, संस्कृति, समाज और घर-परिवार के मनोनीत खांचों में समाने की चेष्टा करनी होती है। कुम्हार के चाक पर चढ़े बर्तन की तरह, कट-कट कर तथा छिल-छिल कर, सुंदर व उपयोगी रूपाकार गढ़ना होता है। इसके बावजूद वह अपने लिए पर्याप्त जगह बना ले और अपने हक में फैसला लेकर, रोने-बिसुरने या मनुहार करने की अपेक्षा उस पर अडिग रह सके। इसके लिए अध्ययन और लेखन एक मजबूत संबल, माध्यम हो सकता है। यदि वह स्वतंत्र चेता होकर, निर्णायक की भूमिका में आना चाहे…..यद्यपि पहाड़ की कुछ अपनी (भीतरी व बाहरी) मुश्किलें व दुष्चिंताएं हैं। इसके बाद भी यह अत्यंत सुखद है कि हिमाचल में, महिला लेखन की सशक्त परंपरा रही है जिसका सतत् निर्वाह हो रहा है। इन रचनाधर्मी महिलाओं की रचना प्रक्रिया को समझने के प्रयास में कुछ विचार बिंदु इनके सम्मुख रखे हैं। इस अनुरोध सहित कि कुछ ऐसा जो इन बिदुंओं तक नहीं सिमटता हो, वे वह भी कहें। संक्षिप्त परिचय व तस्वीर के साथ।…‘तुम कहोगी नहीं तो कोई सुनेगा नहीं। सुनेगा नहीं तो जानेगा नहीं और निदान इसी में कि कोई सुने, तुम कहती क्या हो/ कोई जाने/ तुम सहती क्या हो…

किसी घटना/दुर्घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप, उल्लास व विषाद के अतिरेक में, किसी पद्धति विशेष के मानदंडों से पूर्णतया अनभिज्ञ रहते हुए, अनायास ही जो बीज रूप में एक व्यक्ति द्वारा सृजित होता है। मौखिक रूप में ही परिमार्जित व परिवर्द्धित होते-होते एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुंचते, सर्जक से अलग होकर समूह का हो जाता है। वह केवल लोक-साहित्य नहीं है, बल्कि जिस परिवेश में रचा गया है, उस परिवेश के लोकमानस के सुख, संघर्ष, चिंतन व विमर्श का प्रामाणिक दस्तावेज है। उस स्थान व समाज की संस्कृति से भी बढ़कर यह वहां का विधान है। जो बिना किसी बाहरी नियम या कानून के जनमानस को नियंत्रित करता है। यह लोक साहित्य सनातन और निरंतर चलने वाला क्रम है। आज जब संप्रेषण के इतने अधिक और नए-नए माध्यम हैं। तब भी स्वतः-स्फूर्त, अनाम संस्कार, अनुष्ठान व लोक गाथात्मक गीत व गल्प बाकायदा रचे जा रहे हैं। मौखिक रूप से कहे व सुने जा रहे हैं। यह सुखद है कि इनके संरक्षण के प्रयास में इनका संचयन व भाव-विश्लेषण किया जा रहा है, परंतु इनके अंतर्निहित सच्च को आधुनिक प्रश्नों के संदर्भ में, विमर्श के केंद्र में रखने के प्रयत्न न के बराबर हैं। लोकमानस को परत-परत उघाड़ता यह साहित्य, आंचलिक लेखन में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भाषा व शिल्प दोनों ही स्तरों पर। किसी जगह का भाषायी मुहावरा, वहां की घटनाओं के वर्णन व चरित्र-चित्रण को जीवंत व प्रामाणिक बना देता है… रेणू फणीश्वर ने स्थानीय शब्दों के प्रयोग से यही तो किया। लोक गायन परंपरा के निर्वहन में योगदान दे रहीं रूपेश्वरी शर्मा मानती हैं कि साधारण मानव, लोकगीतों से अपने मौलिक विचारों को पुष्ट करना चाहता है, परंतु आज के समय में ये गीत हाशिए पर आ गए हैं। उन्हें दुख है कि लोग इन्हें भूलते जा रहे हैं। इनके प्रभाव व इनकी भूमिका को लेकर कुछ कह पाने में उन्हें दुविधा है… परंतु यह दुख व दुविधा उनकी कविताओं में नहीं है, जिनमें उनके पात्र, विशेष रूप से स्त्री-चरित्र, लोक की सहज-स्वाभाविकता में मुखर होते हैं… समाज की विभिन्न समस्याओं को केंद्र में रखकर लिख रहीं हरिप्रिया को आधुनिक युवाओं के लोक साहित्य से कटते चले जाने की चिंता है। यद्यपि वह आश्वस्त हैं कि बीच के लोग अभी इसके प्रभाव से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबद्ध हैं। उनके अनुसार ये गीत हमारी मौलिकता की पहचान हैं। वास्तव में युवाओं को एक पेड़ से सीखने के लिए प्रेरित करने की जरूरत है। जिस क्षण इसकी शाखाएं आसमान छूने की ललक लिए ऊपर-ऊपर उठती हैं, उसी क्षण इसकी जड़ें भीतर-भीतर धंसती हैं। पैरों तले की जमीन व आकांक्षाओं के आकाश में सामंजस्य बनाए रखना हमारी अनिवार्यता है। हरिप्रिया की कविताओं में धरातलीय सच्चाई के साथ-साथ ऊंचाइयों की चाह भी है… लेखन में अत्यंत सक्रिय, सुमन शेखर की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि उनका उपन्यास है। यद्यपि कविता उनकी पहली पसंद है। वह आश्वस्त हैं कि महिलाओं द्वारा घरों में गाए जाते संस्कार व विवाह गीत अब लोक गायकों द्वारा वाद्य यंत्रों  की संगति में बहुत प्रभावी ढंग से गाए जा रहे हैं। लोक साहित्य हमारी विरासत है और विरासत हमें स्वयं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जानने और समझने का अवसर देती है। साहित्य भी परिवेश के माध्यम से अपने को खोज लेने और पा लेने का प्रयास ही तो है… लोक गीतों में मन में दबी-ढकी संवेदनाएं अपने सहज स्वरूप में सामने आ जाती हैं। सामान्य जीवन में शालीन और संयमी होने का चरित्र निभाती स्त्रियां, विवाह के अवसर और विशेष रूप से बारात चले जाने के बाद के गीत व नृत्य आयोजन में हास-परिहास में अकसर बांध तोड़ देती हैं। पे्रम को लेकर लिखे गए गीतों पर ठुमकती स्त्रियों का यह रूप और खिलंदड़पन बताता है कि ये बोल उनके कितने निकट हैं… रिश्तों के संदर्भ में यदि इन गीतों की आत्मीयता का संसार बहुत बड़ा है तो स्थान के संदर्भ में भी इन गीतों का फलक दूर तक फैला हुआ है। एक जन्म गीत में बच्चे का पालना दादा रावलपिंडी से मंगवाते हैं तो मां के कहने पर बेटे के लिए झुनझुना पिता लाहौर से लाते हैं। वर्तमान समय में ये शहर दूर हैं। मीलों की नहीं, भावनाओं की भी दूरियां हैं। पर गीतों में यह बहुत निकट के हाट बाजार हैं जैसे…। लोक गीत या लोक साहित्य किसी जनपद की सतत संचित धरोहर है। आवश्यकता है कि आज की भाषा व मुहावरों में इनकी प्रासंगिकता को आधुनिक पीढ़ी के सामने रखा जाए, ताकि  उस जनपद की मूल वृत्ति से वे परिचित हो सकें। विगत और आज के तुलनात्मक अध्ययन से मानस के विकास क्रम को समझ सकें। प्रेम-गीतों से प्यार की पराकाष्ठा व त्याग को समझें। लोक गाथाओं के घटनात्मक कथ्य के पीछे, बिना परचम उठाए, निशब्द क्रांतियों की संभावनाओं को परत-परत उघाडें़। इस परिचय, समझ और विश्लेषण-विवेचन से मानव मन की ऐसी-ऐसी गिरह खुलेंगी कि सृजन के लिए उर्वरा मिट्टी-जल-वायु सब सहज ही उपलब्ध होगा… पर विडंबना यह है कि वर्तमान समय में, लोक साहित्य में से मणि-मुक्ता खंगालने का कार्य व्यक्ति स्तर पर ही नहीं, संस्था व राज सत्ता के स्तर पर भी बहुत ज्यादा हो रहा है। लेकिन आज के ही समय में हम व्यवहार के पैमाने पर, इससे बहुत दूर भी हो रहे हैं। कारण यह है कि लोक धर्म की सच्चाइयां सहज धर्म नहीं बन पा रही हैं। क्योंकि कोशिशों में कहीं आकर्षण, कहीं मन बहलाव तो कहीं धूर्त्त स्वार्थ है। हमने अपने लोक साहित्य को अवकाश के क्षणों का पाहुन और अतीत के प्रति दायित्व-भाव का उपक्रम मात्र बनाया है। इसमें वह नहीं ढूंढना चाहा जो जीवन को दिशा दे, मन को समझ दे, संबद्ध जाति-समुदाय का विधान बने। इसके प्रति प्रचलित दोनों ही दृष्टिकोण, अति भावुक हो कर आग्रही होना या पूर्णतया उदासीन ही रहना, सही नहीं हैं। क्योंकि सत्य यह है कि मूल से जुड़ना स्व से जुड़ना है और स्व का विस्तार ही रचनात्मकता है।

-चंद्ररेखा ढडवाल, धर्मशाला

विमर्श सूत्र

* रचना प्रक्रिया में घर व परिवार/समाज व परिवेश, आपसे आगे रहता है। अनुगामी होता है या साथ-साथ चलते हुए प्रोत्साहित करता है।

* वर्तमान के संदर्भ में, अंचल विशेष के मानस को, उसकी मौलिकता में उद्घाटित कर पाने में अनुष्ठान व संस्कार गीतों तथा लोक गाथाओं की क्या भूमिका रहती है?

* स्त्री-विमर्श को सभ्यता-विमर्श के आलोक में एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई की चिंता की परिधि में लाना कितना अनिवार्य है।

* भोगे हुए व देखे/समझे हुए यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्वंद्व कह पाने में दबाव या संकोच महसूस करती हैं?

नारी के लिए रचना प्रक्रिया प्रसव पीड़ा जैसी

परिचय

* नाम : रूपेश्वरी शर्मा

* जन्म : पुरानी मंडी, हिप्र

* रचनाएं : कोख से कब्र तक तथा धुंध, कविता संग्रह प्रकाशित

* लोकगीत : आकाशवाणी शिमला व डीडी नेशनल द्वारा प्रसारित। ‘बारह मासा’ के उत्कृष्ट गायन के लिए जानी जाती हैं

* सम्मान : हिमोत्कर्ष द्वारा हिमाचल श्री राज्य पुरस्कार। महिला साहित्यकार संस्था द्वारा मातृ सम्मान तथा विविध संस्थाओं द्वारा सम्मानित

* विशेष : पहाड़ी फीचर फिल्म ‘सांझ’ में मुख्य भूमिका (दादी) के लिए चर्चित व सम्मानित। हिमाचल प्रदेश भाषा कला संस्कृति अकादमी की मनोनीत सदस्य (वर्ष 2015 से)

रचना प्रक्रिया विशेषतः नारी वर्ग के लिए वस्तुतः प्रसव पीड़ा की भांति होती है, जिसमें समाज, परिवार व परिवेश की भागीदारी एक तमाशबीन की तरह होती है तो इसमें परिवार, समाज और परिवेश का आगे रहने का प्रश्न ही नहीं रहता। रही बात अनुगामी रहने की तो लेखक न तो आधुनिक गुरु है और न ही कोई लोकप्रिय राजनेता, जिसका अनुगमन किया जा सके। हां लेखक की अपेक्षाएं अवश्य रहती हैं कि उसे सभी का प्रोत्साहन मिलता रहे, जिससे उसके लेखन की धार पैनी हो सके। परंतु ऐसा हर रचना के साथ नहीं हो पाता। आलोचना भी सहन करनी पड़ती है और इस सब के बीच उसे समाज का प्रतिनिधि बनकर अग्रगामी बनना पड़ता है और समाज की विसंगतियों को दूर करने के लिए पहल तो करनी ही पड़ती है। आशय यह है कि लेखक समाज का आईना है, वह किसी पुरस्कार या प्रशंसा के लिए नहीं लिखता। यद्यपि आज के संदर्भ में आंचलिक अथवा साधारण मानव अपने मौलिक विचारों को पुष्ट करना चाहता है, लेकिन मीडिया और आधुनिकता की होड़ में लोकगीतों और संस्कार गीतों का चलन हाशिए पर है। लोक गाथाएं जो जनमानस के मनोरंजन का एक सुदृढ़ आधार माना जाता रहा है, आज लुप्त प्रायः होती जा रही हैं, इसलिए वर्तमान के संदर्भ में यह कह पाना कठिन है कि जनमानस इन सबसे कितना प्रभावित है और समाज में इन सबकी क्या भूमिका है। आधुनिक समय में सदियों पुराना प्रश्न अचानक उपस्थित हो उठता है, इसे स्त्री विमर्श का नाम दिया गया है। यह एक ज्वलंत मुद्दा है, जिसका उत्तर किसी भी युग में नहीं मिला। सीता, द्रौपदी, उर्मिला-सभी के प्रश्न अनुत्तरित रहे हैं। स्त्री किसी भी वर्ग से संबंधित हो, झुग्गी से राजमहलों तक-पर वह शोषित वर्ग में ही आती है। आधुनिकता के दौर में भी वह कहीं न कहीं शोषित ही हो रही है। सभ्य समाज में भी वह दोयम दर्जे का इनसान ही मानी जाती है। ऐसी दशा में उसके विषय में चिंतित रहना समाज का दायित्व तो निश्चित तौर पर होना ही चाहिए। अपने परिवेश में देखा-भोगा यथार्थ वास्तव में किसी भी व्यक्ति का व्यक्तिगत अनुभव होता है, उसे व्यक्त करने में समाज का दबाव रहता ही है। इस स्थिति में निर्द्वंद्व होकर अपनी स्थिति का वर्णन करना मुश्किल ही नहीं, अपितु असंभव सा लगता है। सामाजिक व्यवस्थाओं को देखते हुए संकोच का होना लाजिमी है। इस भोगे-देखे यथार्थ को ईमानदारी से कहने में कई परतों के उधड़ने का भय व्याप्त रहता है। रचना प्रक्रिया में इस बात का होना आवश्यक है कि यह वर्णित यथार्थ सबको अपना सा लगे यानि आपबीती और यह निःसंकोच वर्णित हो सके। समाज की अर्गलाओं से बाहर आकर सत्य को सबके सामने लाना एक चुनौती हो सकता है। यह एक साहसिक कदम होगा। महिला साहित्यकारों के लिए यह साहस बहुत जरूरी है। इसके लिए अपने लाभ व स्वार्थ को भूलना होगा। नारी जीवन की रूढि़यों तथा बाधाओं पर लिखते हुए समाज के विरुद्ध भी कहना पड़ता है। इसे कहने की हिम्मत होनी चाहिए। संवेदना और साहस का समन्वय ही साहित्य का आधार है।

-रूपेश्वरी शर्मा, पुरानी मंडी

रचना को कागज पर लाने का समय चाहिए

परिचय

 * नाम : सुमन शर्मा शेखर

 *प्रकाशित कृतियां : 6 कविता संग्रह, 2 कहानी संग्रह, एक उपन्यास

* सम्मान : विभिन्न सामाजिक व साहित्यिक संस्थाओं की ओर से सम्मानित

रचना प्रक्रिया में घर परिवार/समाज व परिवेश अधिकतर समय आगे रहता है। सब प्रकार के कार्यों को निपटाने के बाद लेखन के लिए नितांत निजी समय से समय निकालना होता है। अधिकतर रचनाएं तो मस्तिष्क में पतली रहती हैं, लेकिन कागज तक नहीं पहुंच पाती। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते ही जिम्मेदारियों के अंबार, उस पर बाहर नौकरी भी करनी, एक किस्म से तलवार की धार पर चलना और उस पर लिखना व पढ़ना बड़ी जटिल प्रक्रिया से गुजरना होता है। इसलिए अकसर अन्य काम निपटाते मन-मस्तिष्क पर पात्र के संवाद चल रहे होते हैं, कहीं कोई घटना कविता बनती चली जाती है… इसमें कभी दूध उबल जाता है, कभी कोई चपाती जल जाए तो लगता है कि गलत हूं, रोटी कमाना और बनाना ज्यादा जरूरी है… कविता-कहानी लिखने की बजाय… फिर… फिर पेन उठाती हूं और लिखती हूं… हां चैन लिखने और पढ़ने में मिलता है। नौकरी के लिए जाते हुए बस में बैठ कर मैंने बहुत साहित्य पढ़ा है… एक रचना को जन्म देना बच्चे को जन्म देने की स्थिति और भावना से गुजरने जैसा है। संस्कार गीत तो हमारे जीवन की धड़कन है। पहले घर-परिवार की स्त्रियां ही विवाह व अन्य संस्कारों के समय गीत गाती थीं। अब लोक गायक अपने सुरीले स्वरों में यह गीत गाकर इन गीतों की मधुरता को जन-जन तक पहुंचा भी रहे हैं। साथ ही इनको संरक्षित करने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं। ये गीत लोक मानस को समझने में मदद करते हैं। इनमें स्थान विशेष की पूरी संस्कृति झलकती है। परिवार व समाज की कोई भी इकाई न वंचित रहनी चाहिए, न दलित। सभी को समान अवसर मिलने चाहिएं, ताकि समाज का सर्वांगीण विकास हो सके। जो राष्ट्र अपनी आधी आबादी को साथ लेकर नहीं चलेगा, वह सभ्यता व विकास के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पाएगा। भोगा हुआ व देखा/समझा हुआ यथार्थ रचनाओं में चाहे-मनचाहे रूप में आ ही जाता है। समाज में व अपने जीवन में जो भी देखती हूं… उसे लिखने का प्रयास करती हूं। दबाव व संकोच भी कई विषयों को लेकर रहता है। कभी-कभी लगता है कि स्त्री होने के कारण खुल कर नहीं लिख पाई। पर अगर पुरुष भी रही होती यह काया, तो भी शायद सामाजिक दबाव रहता ही… क्योंकि रचनाएं जहां समाज का दर्पण हैं, वहीं रचनाकार समाज को दिशा भी देता है… यथार्थ की प्रस्तुति इस तरह से होनी चाहिए कि अगर कोई उसे पढ़े तो उससे अच्छी ही बात सीखे। अतः निर्द्वंंद कह पाने में दबाव व संकोच महसूस करती हूं।

हां, अब तक मानसिक स्थिति ऐसी है। कल को हो सकता है लेखन में मुखर निर्द्वंद दबाव रहित हो जाऊं, क्योंकि सब कुछ समय व हालात पर निर्भर करता है। लेखन व लेखक की भी कुछ मर्यादाएं होती हैं। उसका निर्वाह होना ही चाहिए। एक कविता की कुछ पंक्तियां इन विमर्श बिंदुओं को विस्तार देती प्रतीत होती हैं :

अब समय न रोने का है न बिसुरने का, न ही पिछड़ने का। हौसलों के पंखों पर चढ़कर उड़ने को व्याकुल-आकुल हूं।

कब तक बंद कमरे में घुटूंगी, मुझे अपने को साबित करना है।

तब जानोेगे कि जिसे तुमने बिसराना चाहा, वास्तव में वही शक्ति रूप में तुम्हारे पास थी

तुम्हें उस शक्ति रूपा को पहचानना-समझना होगा, उसके साथ-साथ चलना होगा।

असल में स्त्रियों को यह भय भी रहता है कि यदि वे दूसरे के संबंध में भी लिखेंगी तो उन्हें उनसे जोड़ दिया जाएगा। दूसरों का दुख-दर्द कहने से वे इसीलिए संकोच करती हैं। परंतु धीरे-धीरे स्त्रियां निडर व हिम्मती हो रही हैं। यह एक शुभ तथा अच्छा संकेत है।

-सुमन शर्मा शेखर, कांगड़ा

कविता

सोचना

किस ने दिया नहीं

किसने अवरोध धरे राह पर

किसने छीना तुमसे

इससे पहले यह बतलाना

अपने हक में इक फैसला लेकर

कितनी अड़ीं तुम

अपने साथ हुए अन्याय पर

कितना लड़ीं तुम

अवकाश के क्षणों में सोचना

सोचना विस्तार को लेकर

उद्देश्यों को लेकर

निर्विरोध यात्राओं को लेकर…

लोक गाथाएं मौलिकता की पहचान कराती हैं

परिचय

* नाम : हरिप्रिया

* जन्म : मंडी, हिमाचल प्रदेश, सन् 1954

* रचनाएं : पहला कविता संग्रह : प्रतिध्वनि, 1993 में प्रकाशित हुआ। ‘वे औरतें’ कविता संग्रह पार्वती प्रकाशन इंदौर से तथा तीसरा काव्य संग्रह ‘कैलैग्वे बीच की सुनहरी रेत पर’ उद्भावना प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ

* सम्मान : विभिन्न कविता प्रतियोगिताओं में पुरस्कार। हैडन्यूज साप्ताहिक पत्र (बिलासपुर) द्वारा वर्ष 2004 का सम्मान, 2007 को राज्य स्तरीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित

रचना प्रक्रिया में सामाजिक परिवेश को एक रचनाकार सभी कोणों से देखता हुआ जैसे दूर-पास, आगे-पीछे, अंधेरे-उजाले, आज-कल, पुरातन-नवीन, प्यार-नफरत, ईर्ष्या-द्वेष जैसे अनेक भावों की मानसिकता में पहले स्वयं अनुभव करता है, फिर यथार्थ में गूंथकर उसके मर्म और अर्थ को छूता हुआ सबके समक्ष लाने का प्रयास करता है। आरंभ में तो वह हतोत्साहित ही रहता है, लेकिन धीरे-धीरे अडिग रहने पर अच्छे लोगों व विचारों का प्रोत्साहन भी पाता है। वर्तमान के संदर्भ में अंचल विशेष के अगली पीढ़ी के नवयुवक-युवतियां इससे कट रहे हैं। वे इसके महत्त्व को नकारते दिखाई देते हैं, लेकिन बीच के लोग अभी इसके प्रभाव से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित हैं। ये गीत…अनुष्ठान और लोक गाथाएं हमारी मौलिकता की पहचान हैं। स्त्री-विमर्श को सभ्यता के आलोक में एक वंचित व शोषित इकाई की चिंता की परिधि में लाना अत्यंत आवश्यक है। या यूं समझिए कि यह चिंता की परिधि का एक ज्वलंत प्रश्न है। समाज की उन्नति व विकास की कोई भी समस्या इसके बिना नहीं सुलझाई जा सकती। इस तथाकथित सभ्य समाज में भी औरत तिरस्कृत व शोषित है। इस संदर्भ में मैं अपनी कविता ‘वे आरतें’ की कुछ पंक्तियां लिखना चाहूंगी :

क्यों सिसकती रहती हैं, वे औरतें मेरे भीतर अंतर्मन में।

जो अथक श्रम से उगाना चाहती हैं फूल और धान एक साथ।

क्यों दिखाई देती हैं/मुझे अपने भीतर ऐसी उदास औरतें घुटती हुईं।      

जो एक पारदर्शी सच की प्रतिष्ठा के लिए/और बूंद-बूंद न्याय के लिए तरसती रहती हैं /उम्र के हर पड़ाव पर।

भोगे हुए व देखे-समझे यथार्थ को ईमानदारी से कह पाने में नारी को हर समय एक अनकहे दबाव और संकोच के सांकलों से बांधा गया है। उसके सब साधनों का उपयोग करके भी उसे न सम्मान दिया गया, न ही कुछ और। वह सब कुछ झेलकर आज भी हाशिए पर है। वह सर्वसाधन संपन्न होने पर भी दोयम दर्जे की सीमा रेखा तक पहुंच पाई है, परंतु संकोच की सांकलों से मुक्त होकर सत्य तो नारी को बोलना ही हैः

उसके झूठ बोलने से जल रहे हैं तितलियों के पर।

हवा में जहर घुल रहा है। कई परिंदे हो चुके हैं पर हीन।

…झूठ बोलने से बंद होने लगते हैं संभावनाओं के द्वार।

आधारहीन लड़ाइयां खड़ी हो जाती हैं, भुतहा आकृतियों की तरह।

मेरा दृढ़ विश्वास है कि लेखन में यदि अनुभूति की प्रामाणिकता जरूरी है तो अभिव्यक्ति की ईमानदारी भी उतनी ही आवश्यक है। निर्भीक व निर्द्वंद्व होकर लिखने का यह अर्थ नहीं है कि आप एकदम बेबाक हो जाएं। परंतु ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी को खुश करने के लिए आप सत्य न कहें। क्योंकि सत्य नहीं कह कर आप झूठ की हिमायत करते हैं। कुछ लोग विशेष संस्थाओं तथा सत्ता को खुश करने के लिए उनकी प्रशंसा में लिखते हैं ताकि उन्हें लाभ मिल सके। यह तो भाट कवियों जैसा कार्य हो गया जो अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए कुछ भी कहते तथा लिखते थे। लेखन में स्वतंत्र विचार व उन स्वतंत्र विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति अति आवश्यक है। हमें दबाव व दमन का विरोध करना होगा। अनावश्यक संकोच भी त्यागना होगा।

-हरिप्रिया, मंडी

कविता

सच्च

पेड़ का सच्च, उस अमर बेल का सच्च नहीं होता

जो उसके तने से लिपट कर

बढ़ती है/लहलहाती है

उसका बढ़ना क्या, उसका लहलहाना क्या

असल में उसका होना ही क्या

हुनर

जलते तवे पर

पानी छिड़क देती है

रोटियां सेंकती औरत

जीने का हुनर सीख लेती है


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