यह चुनाव नहीं आसान

By: Oct 23rd, 2017 12:05 am

अब तक का घटनाक्रम बता रहा है कि हिमाचल विधानसभा का चुनाव असाधारण होगा। अतीत का गणित और देश का हिसाब, हिमाचल को बदले अंदाज में देख रहा है तो भाजपा की मेहनत बढ़ जाती है। नामांकन के मौजूदा दौर में जगत प्रकाश नड्डा की यात्रा तालिका अपनी परिधि के बाहर आकर उस मेहनत की तरफ इशारा कर रही है, जो रूठी पलकों का घूंघट हटाने के लिए अनिवार्यता बन गई है। बेशक भाजपा का चुनाव अभियान उसी दिन शुरू हो गया था, जब मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के चरित्र में एक से बढ़कर एक अवगुण ढूंढा गया और जांच के मुहाने गर्म रहे। तब भी नड्डा केंद्रीय मंत्री थे, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री व नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल का हालात और राजनीतिक हिसाब पर पूरा कब्जा था। आशाओं के जिस सफर की निगरानी धूमल कर रहे थे, उस पर आज मेहरबानी किसकी है। क्यों दो बार सत्ता पुरुष रहे प्रेम कुमार धूमल उस दुर्ग पर खड़े हैं, जहां कभी उनसे वरदान लेने खुद सियासत आती थी। जिनके इशारे पर नेता पैदा होते थे और संवर जाते थे, उनके लिए सुजानपुर सीट का सफर इसलिए सामान्य नहीं है, क्योंकि सामने भाजपा के ही फटे पोस्टर से कांग्रेस का हीरो राजिंद्र राणा निकल रहा है। समय से काफी पहले शुरू हुए चुनावी अभियान ने भाजपा की दूरियां मिटाईं या बढ़ाईं, यह चुनाव प्रचार की तंग गलियां साबित करेंगी। दूसरी ओर सत्ता के बल्ब अगर रोशनी की उम्मीद छोड़ अंधेरों से दोस्ती निभाएं, तो इस कालखंड की परिभाषा सियासी फकीरी सरीखी होगी। एक समर चुनाव से पूर्व ही कांग्रेस में लड़ा गया और चिरागों की हिफाजत में हवाओं का कातिल हो जाना अगर चुनौती रहा है, तो उन तमाम लम्हों की सौंगध खाकर पैदा हुआ आक्रोश क्या यूं ही बुझ जाएगा। राजनीति में टिकट की पहलवानी अगर परिवारवाद है, तो उम्मीदवार सूचियां जिक्र कर रही हैं कि किसके बगल में रिश्ता और किसके छुरी रखी है। पूर्व कांग्रेसी एवं मंत्री रहे सुखराम का विषाद आज के विवाद से बड़ा है या नहीं, लेकिन मंडी की चाय में फिर उबाल है। नजरें न जाने ठियोग पर इनायत होंगी या अर्की ही सत्ता की हमराज बनेगी, इसका अंदाजा उस यथार्थ से छोटा है, जो विद्या स्टोक्स के त्याग और बचाव के बीच फंसा रहा है। यह दीगर है कि हिमाचली चुनाव में नेताओं की हर औसत खानदानी है, फिर भी यह उम्र भर की कमाई है इसलिए अस्सी के बाद भी सियासी जवानी है। इस लिहाज से भाजपा के निबंध और प्रतिबंध बदल रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के मायने आज भी नेताओं से उम्र नहीं पूछते और अंततः नानुकर के बीच ठियोग की उम्मीदवारी में विद्या स्टोक्स को आना ही पड़ता है। सवाल तो यह उठना स्वाभाविक है कि क्या मुद्दों से बड़े नेता मान लिए जाएंगे और केंद्र बनाम हिमाचली सत्ता के बीच भी मुकाबला नेताओं का ही होगा। इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि भाजपा ने वीरभद्र सिंह के मुकाबले में किसी नेता को मंजूर न करते हुए केंद्र सरकार को ही परोसा है यानी युद्ध की दीवारों पर बड़ा चित्र लगाने की कोशिश हो रही है। पिद्दी सा हिमाचल और सामने एक बड़े आकार का राष्ट्रीय मानचित्र। जाहिर है इस तस्वीर के दर्शन में जो आकृति उभरती है, वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है। मुकाबला असल में है भी यही कि वीरभद्र सिंह को चित करो तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ। ऐसे में पार्टी ने अपनी ज्ञात व अज्ञात शक्तियां वीरभद्र सिंह को सौंप कर मुकाबले के अक्स में देश के प्रधानमंत्री को न्योता दिया है। चुनाव के राष्ट्रीय अभियान में गुजरात एक मुद्दा व मकसद बनकर हिमाचल पहुंच रहा है, तो इस बार हवाएं भी उसी प्रदेश से उठकर पर्वतीय अंचल में आंच पैदा कर रही हैं। भले ही देश के सामने हिमाचली वजूद के मायने बौने हैं, लेकिन इस बार गुजराती अस्मिता के बहाने जिस छवि में भाजपा देखी जाएगी, उसका असर यहां भी गहरे तक होगा।


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