राजनीतिक बगिया में सिद्धांतों का सूखा

By: Oct 24th, 2017 12:05 am

सतपाल

लेखक, एचपीयू में शोधार्थी हैं

हर राजनीतिक दल का एक विचार होता है, उसके कुछ सिद्धांत होते हैं, उस राजनीतिक दल का संविधान होता है, परंतु आज के समय में दलों में यह सब कागजों तक सीमित है। नेता और दल समय-समय पर इसमें अपनी सुविधानुसार परिवर्तन कर लेते हैं। यही कारण है कि सिद्धांतों के अभाव में राजनीति ढलान की ओर सरक रही है…

विधानसभा चुनावों की घोषणा होने से प्रदेश में सियासी माहौल उफान पर है। राजनीति के इस दंगल में हर राजनीतिक दल कूदने के लिए तत्पर है। नब्बे के बाद से प्रदेश में अब तक कोई भी दल मिशन रिपीट में कामयाब नहीं हो पाया है। साथ ही साथ यह भी देखा गया है कि केंद्र में चाहे किसी भी दल की सरकार सत्तारूढ़ हो, प्रदेश की सरकार बनाने में उसका कोई ज्यादा असर नहीं पड़ता। यह भी कि प्रदेश में व्यक्ति विशेष का प्रभुत्व किसी भी दल से सर्वोपरि रहता है। यही कारण है कि चुनाव के बिलकुल सिर पर होने के समय नेताओं में बगावती सुर नजर आते हैं, जिसकी झलक वर्तमान चुनाव में भी देखने को मिल रही है। जैसे ही दलों ने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की, तभी से अफरा-तफरी का माहौल पूरे प्रदेश की राजनीति में फैल गया है। जो इन लोगों की राजनीतिक व मानसिक अपरिपक्वता को भी उजागर करता है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐसे लोग केवल राजनीति के माध्यम से स्वार्थसिद्धि की फिराक में हैं।

अकसर सुनने को मिलता है कि आज के समय में राजनीति बदल चुकी है। यह एक गलत धारणा है। राजनीति आज भी वैसी है, जैसे पहले थी और प्रायः ऐसे ही रहेगी। अगर कुछ बदला है, तो सिर्फ लोगों की मानसिकता व राजनीति करने का तरीका। एक समय ऐसा भी था, जब राजनीति में ऐसे लोग आते थे जो समाज के प्रतिष्ठित लोग होते थे। प्रायः वही लोग राजनीति में होते थे, जो अपने मोहल्ले, कस्बे व अपने चुनाव क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता देते थे। तब भी राजनीति हिंदी भाषा के इन्हीं चार शब्दों से बनी थी, जिनसे आज है। इसके बावजूद राजनेताओं के समाज को उचित दिशा में ले जाने के मकसद में बदलाव आया है, प्राथमिकताओं में बदलाव आया है और कुल मिलाकार उनकी सोच में बदलाव आया है। जहां तक राजनीतिक दलों की बात की जाए, तो परिणाम और ज्यादा गंभीर होते दिख रहे हैं। पूरे भारतवर्ष की अगर बात की जाए, तो अस्सी के दशक से पहले दल-बदल की समस्या पूरे देश में बहुत बड़ी चुनौती उभरकर सामने आई थी, जिसके लिए संविधान में 52वां संशोधन करके दल-बदल की समस्या से तो छुटकारा मिल गया, परंतु आज दलबदलू राजनेताओं की सूची बढ़ती जा रही है। इसके लिए कठोर नियम अमल में लाने की जरूरत है।

आज आलम यह है कि स्वार्थी स्वभाव के राजनेता एक नहीं, बार-बार दल बदल सकते हैं। जब मन किया, तो इस पाले में और जब मर्जी हुई तो दूसरे पाले में। इस पूरे परिप्रेक्ष्य ने राजनीति का अर्थ बदल कर रख दिया है। इसके लिए भी कोई नियम बनाने की जरुरत है। इस तरह की जो दलबदलू नेताओं की स्थिति आज हमारे सामने है, उसका मुख्य कारण राजनीतिक दलों में सिद्धांतों व विचारों का अभाव है। हर राजनीतिक दल का एक विचार होता है, उसके कुछ सिद्धांत होते हैं, उस राजनीतिक दल का संविधान होता है, परंतु आज के समय में दलों में यह सब कागजों तक सीमित है। ये समय-समय पर उसमें अपनी सुविधानुसार परिवर्तन कर लेते हैं। यही कारण है कि आज सैद्धांतिक राजनीति के अभाव से राजनीति अच्छे से गंदे की तरफ जा रही है।

सैद्धांतिक राजनीति में अभाव के चलते वर्तमान में राजनीतिक दल से भी बढ़कर व्यक्ति विशेष का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है। अगर ऐसा नहीं होता, तो आज दलबदलू नेताओं का राजनीति में इतना अधिक प्रभाव नहीं होता। हम बात करें यदि सैद्धांतिक राजनीति की तो ऐसा होता कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव में अपने उम्मीदवार को नामित करता, तो दल के सारे नेता आपसी गिले-शिकवे भूलकर एकजुटता के साथ अपने दल के उम्मीदवार को जिताने के लिए संघर्ष करते बजाय इसके कि दल का टिकट न मिलने पर या तो दल बदल दें या बगावत करने पर उतर आएं। यह बहुत ही निचले स्तर की सोच को दर्शाता है। कभी कभार यह भी देखने को मिलता है कि राजनीतिक दल भी ऐसे उम्मीदवार को टिकट दे देते हैं, जो उस क्षेत्र से संबंधित ही नहीं होता। ऐसे में तो बगावत का होना लाजिमी है। अतः दोनों पक्षों को गहनता से विचार करने की जरूरत है, जिससे कि राजनीति की परिभाषा के मूल रूप में परिवर्तन न हो। प्रदेश की राजनीति में आज शिक्षित लोग आ रहे हैं, फिर भी राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है। दूसरी ओर प्रदेश की राजनीति में बहुत रसूखदार लोग भी हैं, फिर भी भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है। हर प्रकार के लोग आज राजनीति में सम्मिलित हैं, चाहे वे डाक्टर हों, वकील हों, इंजीनियर हों, पत्रकार हों, अध्यापक हों, व्यापारी हों या फिर प्रशासनिक अधिकारी हों।

समाज के इन सब प्रभुत्वशाली लोगों के राजनीति में आने से भी राजनीति के स्तर में गिरावट आना चिंता का विषय है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जरूरी नहीं कि एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति ही एक अच्छा राजनीतिज्ञ हो सकता है, बल्कि राजनीति की समझ समाज का एक आम इनसान भी भलीभांति रखता है। संक्षेप में यह कहना कदापि उचित नहीं होगा की राजनीति का स्तर वर्तमान में गिरा है, बल्कि इसको गिराया गया है और यह गिरावट आज भी जारी है। आज राजनीति मनुष्य के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग बन गई है। आप क्या खाओगे, क्या पिओगे, क्या पढ़ोगे, कैसे घर में रहोगे, राजनीति तय करती है। जब राजनीति व्यक्ति के खाने-पीने से लेकर हर स्थिति तय करने लगी है, तो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी राजनीति खुद तय करने की जरूरत है। आम जनता बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के अपने मत का उचित प्रयोग उस राजनीति को अलविदा कह सकती है। विधानसभा चुनाव हिमाचली मतदाता को इसका एक अच्छा अवसर प्रदान कर रहा है।


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