राष्ट्रगान पर आपत्ति क्यों ?

By: Oct 9th, 2017 12:02 am

औसत मुसलमान को राष्ट्रगान, वंदे मातरम्, भारत माता की जय बोलने तक पर आपत्ति है। वे राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा को फहराने में भी संकोच करते हैं। मुसलमानों की दलील है कि इस्लाम में सिर्फ अल्लाह ही एकमात्र ‘भाग्य विधाता’ है, लिहाजा मुसलमान न तो किसी और की इबादत कर सकता है और न ही अपना सिर किसी और के आगे झुका सकता है। चूंकि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने आदेश दिया था कि 15 अगस्त, देश के स्वतंत्रता दिवस, के मौके पर मदरसों में भी राष्ट्रगान गाया जाए और राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाए। ऐसी गतिविधियोंं की वीडियोग्राफी भी की जाए। आदेश का कितना पालन किया गया, यह एक अलग मुद्दा है, लेकिन अलाउल मुस्तफा नामक एक मुस्लिम ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी कि यह आदेश इस्लाम विरोधी है। मुसलमानों की धार्मिक आस्थाओं के खिलाफ है। मदरसों में पढ़ रहे बच्चों को विवश नहीं किया जा सकता। यह जबरन देशभक्ति थोपने की कवायद है, लिहाजा आदेश को रद्द किया जाए। लेकिन उच्च न्यायालय ने अलग ही व्याख्या देते हुए याचिका को खारिज कर दिया और मुस्तफा को फटकार लगाई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की न्यायिक पीठ ने कहा कि राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना देश के हरेक नागरिक का संवैधानिक दायित्व है। राष्ट्रगान को लेकर जाति, धर्म, पंथ संप्रदाय और भाषा के आधार पर कोई विभेद नहीं किया जा सकता। न्यायिक पीठ ने यह भी माना कि राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना इस्लाम विरोधी नहीं है। राष्ट्रगान पंथनिरपेक्ष है और लोकतंत्र, राष्ट्रीय एकता, अखंडता की भावना को सुदृढ़ करता है। राष्ट्रगान एक राष्ट्रीय कर्म है। जो लोग, संगठन और गुट इस देश के वासी हैं, उन्हें राष्ट्रगान में आपत्ति क्यों होनी चाहिए? देश के सिपाही, जवान से लेकर खिलाड़ी तक और राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति भी यदि मुसलमान हैं, तो तिरंगे को सलामी देते रहे हैं और राष्ट्रगान गाते रहे हैं। क्या ऐसे मुसलमान इस्लाम विरोधी हो गए या काफिर करार दिए गए अथवा वे जहन्नुम में जाएंगे? राष्ट्रपतियों में डा. जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद और डा. एपीजे अब्दुल कलाम आदि को कैसा मुसलमान मानेंगे? सेना के असंख्य मुस्लिम चेहरों को याद किया जा सकता है, जिन्होंने भारत माता की जय बोली और तिरंगे को सलामी दी और भिड़ गए दुश्मन से। क्या ऐसे उदाहरण सच्चे मुसलमान नहीं हैं? अब जो निर्णय हमारे सामने है, वह आरएसएस या भाजपा का नहीं है। बेशक आदेश भाजपाई मुख्यमंत्री ने दिया था। चूंकि अब फैसला उच्च न्यायालय का है, लिहाजा अवमानना होगी, तो अदालत की उल्लंघना मानी जाएगी। यह ऐसा मौका भी नहीं है कि संघ का इतिहास गिनाया जाए कि आजादी से पहले और बाद में उसने क्या किया? मुद्दा राष्ट्रीय प्रतीक चिह्नों के सम्मान का है। हरेक हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी और सुन्नी, शिया मुसलमानों को भी उन सम्मानों को स्वीकार करना पड़ेगा। यह मुसलमानों का अपना हीन बोध हो सकता है कि वे योगी सरकार के आदेश को मुसलमानों के खिलाफ साजिश मानें। इस सरकार से पहले ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि तुष्टिकरण की सियासत जारी रही है। सपा, कांग्रेस, बसपा सरकारों ने मुसलमानों को नाराज करने की कोशिश नहीं की और न ही वे ऐसा कर सकते थे, क्योंकि मुसलमान उनके लिए वोट बैंक सरीखे रहे हैं। देश के करीब 20 करोड़ मुसलमानों को क्या हासिल नहीं है? वे राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति तक बने। गुप्तचर ब्यूरो के मुखिया भी रहे। योजना आयोग में सदस्य और सलाहकार जैसे उच्च पदों पर रहे। वे सांसद और विधायक बने, मंत्री भी बने, उद्योगपति भी रहे हैं, वैज्ञानिक भी हुए हैं। बेशक मुसलमान देश की मुख्यधारा में रहा है। तो राष्ट्रगान गाने और तिरंगे को सलाम करने और भारत माता की जय, वंदे मातरम् बोलने में इस्लाम क्यों आड़े आने लगता है? उन्हें अपना भारतीय होने का स्वरूप याद क्यों नहीं रहता? यह देश इस्लाम विरोधियों की बपौती नहीं है। हमने निजी तौर पर मदरसों में ही राष्ट्रगान सुना है, लेकिन कुछ सिरफिरे इसे दुष्प्रचार का जरिया बनाना चाहते हैं। यह किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है। यह दलील भी कबूल नहीं है कि सरकार जिन मदरसों को ग्रांट देती है, उन्हीं को बाध्य कर सकती है। जिन्हें ग्रांट नहीं देती, उनसे नहीं पूछा जाना चाहिए। ऐसा नहीं चलेगा। राष्ट्रगान सभी को गाना है, तिरंगा सभी फहराएंगे, क्योंकि ये संवैधानिक दायित्व हैं और देश संविधान से चलता है।


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