लेखकीय व्यक्तित्व में आंतरिक द्वंद्व तो होगा ही

By: Oct 22nd, 2017 12:05 am

परिचय

* नाम : तारा नेगी

* जन्म : गांव पुजाली, बंजार, कुल्लू

* रचनाएं : विभिन्न राज्य व राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित

* प्रकाशन : दो कहानी संग्रह ‘दायरे’ एवं ‘अपने-अपने धरातल’ हिंदी में एवं ‘थोड़ा जिहा सुख’ कुल्वी, हिमाचली में प्रकाशित

* पुरस्कार : कहानी संग्रह ‘दायरे’ के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार का साहित्य अकादमी पुरस्कार। विभिन्न स्वायत्त संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत

मेरी रचना प्रक्रिया में घर व परिवार/समाज व परिवेश साथ-साथ चलते हैं। अपने घर-परिवार की देखरेख तथा लंबे समय तक गैर-सरकारी संगठन से जुड़ने व काम करने की संतुष्टि के बाद ही मेरी रचना जन्म ले पाई है। अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन ठीक से न कर पाने की कसक लेकर लिखना मेरे लिए संभव नहीं है। इस प्रक्रिया में बेशक रचनाओं की संख्या कम रहती हो, परंतु स्तरीयता में इजाफा ही होता है। ऐसी रचना हड़बड़ाहट में नहीं, बल्कि पूरे मनोयोग से रची गई होती है। मेरे लिए लेखन और कर्त्तव्यों का अपना अलग स्थान है और दोनों के लिए समय उनकी प्राथमिकताओं के अनुसार बंटा हुआ है। परिवार/समाज व परिवेश से कटकर एक लेखक अनुभव अर्जित नहीं कर सकता और बिना अनुभव स्तरीय लेखन संभव नहीं। कमरे में बंद होकर लिखने और अनुभव अर्जित करके लिखने में बड़ा अंतर है। लेखन एक स्वयं स्फुटित कर्म है, जिसमें कोई जोर-आजमाइश नहीं चलती। मैंने लिखना बहुत देर में शुरू किया। इस दौरान मुझे देश-विदेश का साहित्य पढ़ने का मौका मिला। साहित्य में मुझे कहानियां और उपन्यास ज्यादा आकर्षित करते हैं। देश के विभिन्न अंचलों का साहित्य मैं मूल हिंदी से भी ज्यादा शौक से पढ़ती हूं। देश-विदेश की श्रेष्ठ रचनाओं को पढ़ने के बाद अपने को एक लेखक कहलाने में भी संकोच होता है। फिर भी साहित्य में नगण्य बचपन के परिवेश से अगर मैं यहां तक पहुंची हूं, वह उस पढ़े हुए साहित्य की ही देन है, जिसने मुझे अपने अनुभवों व विचारों को कलमबद्ध करने की प्रेरणा दी। इसके अलावा जब कहानी का कोई पाठक फोन करता है या पहले पत्र आया करते थे तो लगता है कि कहीं तो कोई है जो मेरी कहानियों को पढ़ रहा है। इससे मन को संतुष्टि मिलती है। यही वह बिंदु है जहां लेखक यह नहीं सोचना चाहता कि इसे लिखने में उसे किसी का सहयोग मिला या नहीं मिला, वह तो किसी भी तरह एक अच्छी रचना को जन्म देना चाहता है। अच्छी रचना के लिए हमेशा छटपटाता रहता है। अंचल विशेष के मानस के मौलिक स्वरूप को उद्घाटित करने में अनुष्ठान, संस्कारगीत तथा लोकगाथाएं हमेशा से अपनी भूमिका निभाती रही हैं। इनका अपना एक विशेष महत्त्व भी है। इसमें अंचल विशेष का रहन-सहन, सुख-दुख व परिवेश बखूबी वर्णित होता है। हां, आज उनका स्वरूप बदल रहा है। पहले इनका दायरा जहां सीमित था, आज विस्तृत हो गया है। आज वही पुराने गीत नए स्वरूप में हमारे सामने हैं। समय के साथ बदलाव आवश्यंभावी है। आज की पीढ़ी की कई चुनौतियां हैं। वह उन चुनौतियों का सामना करने के साथ-साथ अपनी मौलिकता को नष्ट नहीं होने देना चाहती। इसके लिए नई पीढ़ी की एक जमात प्रयासरत है। स्त्री विमर्श पर मैं रेखा वशिष्ठ जी से पूरी तरह सहमत हूं कि आज समय आ गया है, जब स्त्रियों के सरोकार सबके सरोकार बनें और सबके सरोकारों में स्त्रियां भी शामिल हों। लिखते समय कोई दबाव या संकोच मुझे छू नहीं सकता। मैं जिस रूप में यथार्थ को महसूस करती हूं, उसी रूप में कलमबद्ध करने की कोशिश करती हूं। यह बात अलग है कि उसमें मैं कभी सफल होती हूं तो कभी नहीं हो पाती। अकसर ऐसा होता है कि मैं सोचती कुछ हूं और पन्नों पर उतरता कुछ और है। मैं कहना कुछ और चाहती हूं और कह कुछ और जाती हूं। इससे बड़ी कोफ्त होती है। इस तरह की कई रचनाएं मेरे पास अधूरी पड़ी हैं, जो वैसी नहीं बन पाती जैसी मैं चाहती हूं। इसमें किसी का दबाव नहीं होता, परंतु आंतरिक द्वंद्व होता है। स्वच्छंद स्वभाव मेरे पहाड़ी परिवेश की देन है। यहां के परिवेश में वह ताकत है जो कठिन से कठिन परिस्थिति को भी सरल बनाने का मादा रखता है। दबाव और संकोच वहां होता है, जहां कथनी और करनी में अंतर रहता है। पहाड़ी परिवेश में इन दोनों में किसी तरह के अंतर की गुंजाइश नहीं रहती। भले ही इसके लिए उसे इसकी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े। एक बार मुझे भी इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। मैंने एक सच्ची घटना पर कहानी लिखी, उसमें एक चूक हो गई कि कहानी में नाम भी सही दे दिया। फिर क्या था, उस कहानी की नायिका का पति मेरे घर आ धमका और मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई। क्योंकि मैं गलती कर चुकी थी, इसलिए परिणाम भुगतना पड़ा। मुझे लगता है कि लेखक को किसी दबाव में नहीं आना चाहिए। हां, एक रेखा जरूर खींच लेनी चाहिए, ताकि उससे आगे वह सोच-समझ कर कदम रख सके।

 -तारा नेगी, कुल्लू


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