विष्णु पुराण
श्रीलक्ष्मी जी के जन्म की इस कथा को जो कोई पढ़ेगा या श्रवण करेगा, उसके गृह के तीनों कुलों में लक्ष्मी का कभी नाश नहीं होगा। हे मुने! लक्ष्मीजी के इस स्तोत्र का जिन घरों में पाठ होता है, उनमें कलह स्वरूप दरिद्रता कभी भी नहीं टिकती…
इस प्रकार जगत्पति देवादिदेव भगवान श्रीहरि जब-जब अवतार लेते हैं, तब-तब लक्ष्मीजी उनके साथ इस भूतल पर आती हैं। जब भगवान विष्णु जी आदित्य रूप हुए, तब यह कमल से उत्पन्न हुई और जब उन्होंने परशुराम का अवतार धारण किया, तब लक्ष्मीजी ही पृथ्वी हुई। जब उन्होंने राम अवतार लिया, तब यह सीताजी हुई और कृष्ण अवतार में रुकमणि हुई। इसी प्रकार भगवान ने जो अन्य अनेक अवतार धारण किए, उनमें से किसी में भी भगवान से अलग नहीं रहती।
देवत्वे देवदेवेऽयं मनुष्यत्वे च मानुषी।
विष्णोर्देहानुरूपां वे करात्यैषात्मनस्तनुम्।।
यश्चैतच्णुयाज्जन्म लक्ष्म्या यश्चनपठेन्नरः।
श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावत्कुलत्रयम्।।
पाठ्तेय येषु चंवेयं गृहेषु श्रीस्तुतिमने।
अलक्ष्मी कलहाधारा न तेष्वास्ते कदाचन।।
एतत्तें कति ब्रह्यन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
क्षीराब्धौ श्रीयथा जाता पर्व भृगुसुता सती।।
तयि सकलबिभूत्यवाप्हितुः।
स्तुतिरियामिन्द्रमुखाद्रता हि लक्ष्म्याः।
ननुदिनामिह पठ्यते नृभियै-
वसतिन तेषु कदाचिदप्यलक्ष्मीः।।
जब भगवान देव रूप होते हैं, तब लक्ष्मी जी दिव्य रूप धारण करती हैं और जब वह मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं, तब यह भी मानवी हो जाती हैं। भगवान के देहानुरूप ही वह भी अपना देह धारण करती हैं। श्रीलक्ष्मी जी के जन्म की इस कथा को जो कोई पढ़ेगा या श्रवण करेगा, उसके गृह के तीनों कुलों में लक्ष्मी का कभी नाश नहीं होगा। हे मुने! लक्ष्मीजी के इस स्तोत्र का जिन घरों में पाठ होता है, उनमें कलह-स्वरूप दरिद्रता कभी भी नहीं टिकती। हे ब्राह्मण तुमने यह प्रश्न किया था, कि जब लक्ष्मीजी भृगुओं की पुत्री थी, तो फिर उसकी उत्पत्ति क्षीर सागर में किस प्रकार हुई, उसका समाधान मैंने इस वृत्तांत के द्वारा कर दिया है। इस प्रकार इंद्र मुख से उत्पन्न हुई यह स्तुति सभी विभूतियों को प्राप्त करने वाली है, इसका जो नित्य नियमित रूप से पाठ करेंगे, उनके यहां निर्धनता कभी न रहेगी।
कथितं में त्वया सर्व यत्पुष्टोऽसि मया मुने।
भृगुसर्गात्प्रयेष सर्गो में कथ्यतां तुनः।।
भृगाः ख्यातां समुत्पन्ना लक्ष्मीविष्णुपरिग्रहः।
तथा धातुविधातारौ ख्यात्यां जातौ सुतौ भृगोः।।
आयातिर्नियतिश्चैव मेरोः कन्ये महात्मनः।
भार्ये धातृविधात्रोस्ते तयोर्जातौ सुताभुवो।।
प्राणश्चैव मृकंड्रश्च मार्कंडेयो मृगंड्डतः।
ततो वेदशिरा जज्ञे प्राणस्यापि सुत शृणु।।
प्राणस्य द्युतिमान्पुत्रो राजावांश्च ततोऽभवत्।
तो वंशो महाभाग विस्तरं भार्गवो गतः।
पत्नी मरीचा संभूतिः पौर्णमासमसूयत।
विरजाः पर्वतश्चैव तस्य पुत्रो महात्मनः।
विरजाः पर्वतश्चैव तस्य महात्मनः।
श्री मैत्रेय जी ने कहा, हे मुने! आपसे मैंने जो प्रश्न किया था, वह सब कुछ आपने बता दिया, आप कृपा करके भृगु संतति से लेकर संपूर्ण सृष्टि का मुझ से वर्णन करिए। श्री पराशर जी बोले, भृगु जी द्वारा ख्यार्ति के गर्भ से विष्णु भार्या लक्ष्मीजी तथा धाता और विधाता नामक दो पुत्रों की उत्पत्ति हुई। उन धाता और विधाता का विवाह महात्मा मेये की आयति और नियति नाम की पुत्रियों से संपन्न हुआ, जिनसे प्राण और मुकंडु नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। मुकंडु के पुत्र मार्कंडेय हुए, जिन से वेदशिरा का जन्म हुआ, अब प्राण को संतति कहता हूं, उसे सुनो। प्राण का पुत्र राजवान और उस राजवान से ही भृसुवान का अत्यंत विस्तार हुआ। मारीचि की पत्नी संभूति से पौर्णामास हुआ, उसके बिरजा और पर्वत नाम के दो पुत्र हुए।
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