सरसंघचालक की अर्थनीति

By: Oct 3rd, 2017 12:05 am

सरसंघचालक मोहन भागवत देश की कार्यकारी शक्ति नहीं हैं और न ही उन्हें जनादेश हासिल है, लेकिन संघ और भाजपा के आपसी रिश्ते को दुनिया जानती है, लिहाजा सरसंघचालक की ओर से कोई बयान या परामर्श आए, तो उसकी अनसुनी, अनदेखी नहीं की जा सकती। संघ प्रमुख ने कश्मीर, डोका ला और गोरक्षा सरीखे कई मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की सराहना की है, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था पर वह एक राष्ट्रीय विमर्श के पक्ष में हैं। सरसंघचालक आर्थिक स्थितियों पर चिंतित हैं और घिसी-पिटी नीतियों से बाहर आने की सलाह भी दे रहे हैं, लेकिन वह देश में आर्थिक मंदी के हालात मानने के पक्ष में नहीं हैं। भागवत का कथन कहीं भी नकारात्मक नहीं है। वह चाहते हैं कि देश की अर्थनीति तय करते हुए छोटे कारोबारियों, किसानों और हाशिए पर मौजूद तबके का ध्यान रखा जाए। उन्हीं से हम सुरक्षित हैं। सरसंघचालक देश में समतावादी अर्थव्यवस्था के पक्षधर और पैरोकार हैं। इन्हीं बिंदुओं के मद्देनजर संघ ने छह अक्तूबर को अर्थनीति पर एक बैठक बुलाई है, जिसमें स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति और अन्य विशेषज्ञ भी भाग लेंगे। सरकारी पक्ष भी इस विमर्श का हिस्सा होगा। अंततः विमर्श ही लोकतंत्र की बुनियाद है। सरसंघचालक के बयान की तुलना यशवंत सिन्हा की भड़ास से नहीं की जा सकती। सिन्हा राजनेता हैं, जबकि भागवत दुनिया के सबसे व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के प्रमुख हैं। हालांकि इस दौरान कुछ सरकारी आंकड़े सामने आए हैं, जो समृद्ध और संपन्न भारत की तस्वीर पेश करते हैं। मसलन-फिलहाल देश में विदेशी मुद्रा कोष 400 अरब डालर का है, जो अभूतपूर्व है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 2014 में 36 अरब डालर बढ़ा था, जो 2017 में 60 अरब डालर तक बढ़ चुका है। बेशक देश में करीब 90 लाख नए करदाता पैदा हुए हैं, तो करीब 6.3 लाख करोड़ रुपए का एनपीए भी नकारात्मक संकेत है। साफ है कि बैंकों का कर्ज वापस अदा नहीं किया जा रहा है। यह पैसा या तो बट्टेखाते करना पड़ेगा अथवा सरकार या बैंक इसे माफ कर देंगे। हर सूरत में करदाताओं के पैसे को चूना लगना ही है। दरअसल सरसंघचालक इस पक्ष में हैं कि किसानों को जो 2022 में देने और उनकी आमदनी दोगुनी करने की घोषणाएं की गई हैं, उन्हें 2019 से पहले ही पूरा किया जाना चाहिए या मोदी सरकार ऐसा करते हुए दिखनी चाहिए। नहीं तो 2019 के आम चुनाव में यही एक संवेदनशील मुद्दा बन सकता है। संघ प्रमुख भागवत ने प्रत्यक्ष तौर पर नोटबंदी और जीएसटी का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन इस बयान के कुछ देर बाद ही वित्त मंत्री अरुण जेटली का महत्त्वपूर्ण बयान आया कि जीएसटी की दरों में कटौती की जा सकती है। यानी सरकार मानने लगी है कि जीएसटी एक पेचीदा समस्या है। आर्थिक सुधारों के नाम पर मोदी सरकार ने जो विविध संशोधन घोषित किए हैं, उनसे चार्टर्ड अकाउंटेंट और व्यापारी दोनों ही खिन्न हैं। एक तो दफ्तरी और फाइल का काम बहुत बढ़ गया है, उस पर कारोबार करीब 50 फीसदी ठप्प हो गया है। यही जमात भाजपा और संघ का बुनियादी जनाधार रही है। सवाल है कि क्या यह जमात बेहद नाराज हो रही है? क्या संघ ने ऐसी राजनीतिक स्थितियों को भांप लिया है? क्या यह जमात अलग होने की हद तक भी जा सकती है? दरअसल सरसंघचालक ने जो बयान दिया है, उसके मायने ये हैं कि देश के दबे-कुचले, वंचित और बेहद कमजोर तबके को अपने साथ लेकर चला जाए। इसमें से कई वर्ग अभी भाजपा से जुड़ने शुरू ही हुए हैं, लिहाजा उन्हें खोकर राजनीति करना जोखिम का काम होगा। बहरहाल यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि संघ के विमर्श के बाद मोदी सरकार क्या-क्या बदलाव करती है और आर्थिक स्थितियां कैसी बनती हैं।  दरअसल संघ प्रमुख के बयान में आम जनता का आवाज भी सुनी जा सकती है। भागवत ऐसी शख्सियत हैं, जिनके परामर्श को प्रधानमंत्री मोदी भी टाल नहीं सकते, लिहाजा विमर्श बड़े व्यापक मायनों में होना चाहिए। उसके जो निष्कर्ष होंगे, वे क्रियान्वित भी किए जा सकते हैं।


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