सांझा करते हैं खुद को किताबों के पन्नों से

By: Oct 22nd, 2017 12:05 am

परिचय

* नाम : प्रियंवदा

* जन्म : 4 अक्तूबर, 1977, जिला हमीरपुर के ढांगू ग्राम में, विभिन्न पत्रिकाओं में कविता, कहानी व आलेख प्रकाशित हुए हैं, 2007 में दिल्ली में अखिल भारतीय सम्मेलन में भाग लिया

* समीक्षा : कहानी संग्रहों तथा कहानियों की समीक्षा प्रकाशित

* रचनाएं : 2008 में प्रथम कविता संग्रह ‘अस्तित्व की परख’ कवयित्री परिसंवाद में विमोचित हुआ, 2014 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘पहचान’ में कविताएं संकलित (मंडी के कवियों पर केंद्रित)

* विशेष : महिला साहित्यकार संस्था हिमाचल प्रदेश मंडी इकाई की महासचिव, नारायणी साहित्य अकादमी नई दिल्ली की हिमाचल प्रदेश की उपाध्यक्ष, राष्ट्रीय कवि संगम दिल्ली की सदस्य

रचना प्रक्रिया में घर, समाज, परिवेश अनुगामी नहीं रहता और न ही समांतर चलता है। हमारा समाज कितनी ही उन्नति कर जाए, औरत को घर से बाहर निकलने के लिए विरोध सहना ही पड़ता है। रचना प्रक्रिया की अगर बात करें तो महिला जन्म से ही रचनाकार है। वह अपने दैनिक जीवन से, अपने आस-पड़ोस से, साथियों से इतना अनुभव लेकर चलती है कि चाहे तो हर दिन एक नया उपन्यास गढ़ दे। लेकिन लेखन के लिए समय देना आसान नहीं होता क्योंकि घर, समाज, परिवेश उसके लिए सर्वोपरि होता है। जब वह अपने लेखन कार्य के लिए समय निकालती है तो भी कई प्रकार के गतिरोध व अवरोध उसके रास्ते में बड़ी-बड़ी चट्टानों के रूप में खड़े हो जाते हैं और जब वह चट्टानों को चीरती हुई आगे बढ़ती है तो बागी, उच्छृंखल और कई बार तो अपशब्दों से भी नवाजी जाती है। बहुत सी महिला लेखकों को तो अपने साथ कार्य कर रहे पुरुष लेखकों के नामों के साथ जोड़ दिया जाता है, जबकि अपनी शुचिता का प्रमाण एक महिला स्वयं ही हो सकती है, कोई अन्य नहीं। कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए जब वह लेखन रूपी तलवार की धार पर चल पड़ती है तो साहित्यिक कार्यक्रमों में अकेले कैसे जाएगी, यह समस्या भी मुंह बाए खड़ी हो जाती है। ऐसे में घर से जब स्वामीजी, पति परमेश्वर जी साथ चलते हैं तो एक और समस्या का सामना तब होता है जब वह स्वयं उस कार्य क्षेत्र में रुचि नहीं रखते, परंतु मजबूरी में उन्हें साथ चलना पड़ता है तो वह अपने दृष्टिकोण से स्थितियों और परिस्थितियों का आकलन करते हैं। जो एक तो उनके भीतर इस अहमन्यता को ला देता है कि स्त्री वास्तव में अकेली कुछ करने में सक्षम नहीं और दूसरे उतना ही चल सकती है जितनी पतंग की डोर। जो दूसरे व्यक्ति के हाथों में है और वह उसे उतना ही उड़ने देता है जितना वह चाहता है। उसके शब्दों का करुण क्रंदन जब सैलाब बनकर फूटता है तो वह बहा देना चाहता है संपूर्ण सृष्टि को अपने साथ। मेरी कविता ‘गृह युद्ध’ की पंक्तियां सांझा करना उपयुक्त समझती हूं :

दोराहे पर खड़ी मेरी संवेदनाओं को/अपने हिस्से की मुश्किलों को/कई बार सुलझाने की कोशिश की है मैंने/अपने दुपट्टे की सिलवटों की तरह

वर्तमान संदर्भ में अंचल विशेष महिला की मौलिकता में अवश्य उद्घाटित होता है क्योंकि एक महिला ही संस्कृति और सभ्यता की सबसे बड़ी संवाहक होती है। वह इन सब रस्मों-रिवाजों को समेट कर चलती है, तभी तो विरोध सहती है। वास्तव में साहित्य समाज का दर्पण होता है तो ऐसे में हम अपनी लोक गाथाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकते। यदि हम आधुनिक सोच के पक्षधर भी हो जाएं तो भी हम अपने संस्कारों को छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकते। लोक साहित्य वास्तव में निरंतर चलने वाला क्रम है, परंतु यह क्रम बाधित तब होता है जब लोक साहित्य, लोक गीत व लोक नृत्य में अन्य गीतों का समावेश हो जाता है। ऐसा करने से जो मिश्रण तैयार होता है, वह परंपरा को नष्ट करने का पर्याय बनता है। स्त्री विमर्श को सभ्यता विमर्श के आलोक में एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई की चिंता की परिधि में लाना वर्तमान समय में अप्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि महिला घर के कामकाज तक सीमित गृहिणी नहीं रह गई है। वह तो स्वावलंबी होकर पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर या यूं ही कह सकते हैं कि उससे भी एक कदम आगे बढ़ी हुई नजर आती है। अतः वह वंचित तो कदापि नहीं। शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने में पढ़ी-लिखी महिला पूर्ण सक्षम है। उसे अब इतने अधिकार मिले हैं कि अगर फिर भी शोषण का शिकार होती है तो यह उसकी अपनी बौद्धिक कमी हो सकती है अन्यथा नारी का सशक्ति संपन्न स्वरूप समाज के सामने देखने को मिलता है। मेरी कविता दृष्टव्य है :

मेरे व्रत, उपवास, समर्पण सब तुम्हारे लिए/फिर भी रहा उपहास, तंज, शंका भरा आलिंगन हमारे लिए/औचित्यहीन रहे मेरे सारे प्रमाण, पर मुझे भी जीवंत रखना है अपना स्वाभिमान

भोगे हुए व देखे हुए यथार्थ को महिला के अतिरिक्त और कोई निर्द्वंद्व और निःसंकोच व्यक्त कर ही नहीं सकता। जिसको लेखन की शक्ति मिली है तो वह खुलकर अपनी बात व्यक्त कर सकती है। गौरी लंकेश जैसे उदाहरण अगर सामने देखती है, तब तो और भी विरोधी और विद्रोही स्वर में स्वयं को अभिव्यक्त करने की क्षमता से भरपूर नजर आती है। और तभी मेरी पंक्तियां कह उठती हैं :

उलझनें जब कम नहीं होती/और नहीं बांटना चाहते जब हम खुद को किसी के साथ/सांझा करते हैं खुद को किताबों के पन्नों से/जब थम जाती है उदासी की हवाएं और हल्की गर्मी दस्तक देती है/तब अच्छा लगता है/उम्र के उदास मुहाने पर बैठकर/जज्बातों का ज्वारभाटा देखना।

-प्रियंवदा, सुंदरनगर


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