स्त्री के लिए मुक्ति आसान नहीं

By: Oct 29th, 2017 12:06 am

‘औरत होना ही क्या कम था/ कि वह रचने लगी कविता’-कवि अनामिका की कविता के बहुत बरस पहले पढ़े ये शब्द मन में चुभ जाते हैं अब भी अकसर! तो, एक तो औरत होना, ऊपर से लिखना भी, यह दोहरा अपराध जैसे अब भी समाज की दृष्टि में अखरता है शायद! जबकि यह भी सच है कि पिछली पीढि़यों की तुलना में, समाज की सोच में काफी हद तक बदलाव आया है। फिर भी स्त्री होने के अपने कर्त्तव्यों से औरत लेखक होने के कारण या फिर किसी भी अन्य व्यस्तता के चलते, उतनी आसानी से मुक्त नहीं हो जाती, जितनी आसानी से पुरुष मुक्त हो पाते हैं। ऐसे में यह कह पाना कि रचना प्रक्रिया में घर-परिवार, समाज व परिवेश आपसे आगे रहता है या अनुगामी रहता है या साथ-साथ चलते हुए प्रोत्साहित करता है, इतना आसान नहीं लगता। हमारे समाज में आज पठन का चलन वैसा तो नहीं है कि लेखक को समाज अपना आदर्श मानकर उसका अनुगामी बने। हां, कोई भी कलाकार स्वभाव से ही समाज से अपने अनुभव और अपना दृष्टिकोण सबके साथ साझा करने की प्रक्रिया में तत्पर रहता ही है। बोलना, कहना, लिखना उसका स्वभाव है। उसके कहे-लिखे का अनुसरण करना अथवा नहीं करना तो दूसरों का व्यक्तिगत चुनाव हो सकता है और एक वफादार लेखक, अपनी कलम किसी के प्रभाव में आकर चलाता हो, यह भी संभव नहीं। तब भला घर-परिवार, समाज व परिवेश के लेखक से आगे रहने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है, विशेष रूप से रचना प्रक्रिया में। साथ-साथ चलने की बात सही है, क्योंकि जिस परिवार में, समाज व परिवेश में रहते हम अनुभव बटोरते हैं, अपनी लेखनी में उसी को तो प्रतिबिंबित करते हैं। पर साथ-साथ चलना लेखक को प्रोत्साहित ही करता हो, यह हमेशा नहीं होता। यह अनुभव अलग-अलग समय और परिस्थितियों में, एक ही व्यक्ति के लिए अलग-अलग रहते हैं। लेखक, घर-परिवार, समाज-परिवेश का हिस्सा है, कभी उनसे प्रेरणा लेता, कभी उन्हें देता, कभी उत्साहित होता, कभी हतोत्साहित और कभी निर्लिप्त भी रहता है। अंचल विशेष का मानस, अपने मौलिक रूप में, अनुष्ठान-संस्कार गीतों व लोक गाथाओं में उद्घाटित होता है। अनुष्ठान व संस्कार गीतों तथा लोक गाथाओं की भूमिका इससे बहुत अहम है। जहां ये लोक को, एक परिवेश विशेष को, जुड़ाव की भावना देते हैं, वहीं आंचलिक मानस का संपूर्ण प्रतिबिंब भी इनमें मिलता है। तेजी से एक हो जाती दुनिया में जब संस्कृति का आदान-प्रदान दुनिया को जोड़ रहा है, वहां लोकगीतों और लोककथाओं, अनुष्ठान गीतों का विलुप्त होते चले जाना, अंचल विशेष की अलग पहचान के लिए खतरा भी है। बहुत भयावह होगा किसी भी विशेष परिवेश से न जुड़े होने का अहसास, परंतु लोकगीतों और कथाओं का अभाव हमें उस दिशा की ओर ले जा रहा है, इसे शायद अभी हम समझ नहीं पा रहे। मेरे विचार में, विभिन्न विमर्शों के आलोक में, अथवा यूं भी, स्त्री विमर्श को एक घिसी-पिटी बेचारगी से उठकर एक नए दृष्टिकोण से देखने का अब समय आ गया है। सोशल मीडिया पर औरत की बेचारगी, बेबसी पर लिखी अलग-अलग पंक्तियों को पढ़कर मुझे यह बेहद जरूरी लगने लगा है कि स्त्रियों को स्वयं ही अपने को एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई के रूप में न देखकर आत्मसम्मान के साथ जीना सीखना होगा। रोते चले जाना बहुत व्यर्थ है, यह आपके जीवन में कोई बदलाव नहीं लाने वाला। कवि के रूप में अगर मैं समाज को वह गीत दे पाऊं जिसे पढ़कर औरत उठे और सार्थक जीना शुरू कर दे तो ही मैं स्वयं को सफल मान पाऊंगी :

‘‘औरत वह है/ जो सर उठाए/ निकल पड़ी/ जिसकी हुंकार भर से/ भस्म हो जाए दानवी सभी दबाव/ जिसके दर्द के आगे/ धुंधला जाए हर तिरछी नजर’’

भोगे हुए या देखे-समझे यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्वंद्व कह पाने में दबाव या संकोच बिलकुल महसूस नहीं करती। यह बहुत संभव है कि बेबाक कथन आपके जीवन में परेशानियां खड़ी कर सकता है, परंतु इस भीरू व्यक्तित्व के साथ कोई लेखक कैसे बन सकता है? लेखन आपसे एक सशक्त व्यक्तित्व की मांग करता है, जहां आप भोगे, देखे-समझे को बेबाक सामने ला पाएं, बिना किसी जमा-जोड़ के। अन्यथा आपका लेखन मंच पर कविता-पाठ के मनोरंजन और अखबार में अपना नाम पढ़ने की आत्म-तुष्टी तक ही सीमित रह जाएगा, लेखन के अपने कर्त्तव्यों से पलायन होगा वह अर्धसत्य और अपनी सुविधाओं को देखते किया व्यापार।

-इशिता आर. गिरीश, कुल्लू

परिचय

* नाम : इशिता आर. गिरीश

* जन्म : 9 अगस्त, 1968, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश

* बचपन से ही कविता व कहानी कहने का शौक। आरंभ में कविता, फिर कथा लेखन की ओर प्रवृत्त।… रचनाएं विभिन्न प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा चर्चित

* रचनाएं :  एक कविता संग्रह; अपने साए से, उपन्यास : रीवा तथा सबसे अच्छा बच्चा, परवरिश पर प्रकाशित पुस्तक * विभिन्न साहित्यिक आयोजनों में प्रभावी प्रस्तुतियां

* पत्रिकाओं के लिए, अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद किए


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