आत्म पुराण
हे शाकल्य! जब मैं सूर्य भगवान से विद्या अध्ययन करके पृथ्वी पर आने लगा, तो सूर्य भगवान ने प्रसन्न होकर कहा था कि याज्ञवल्क्य! जो विद्या मैंने तुमको दी है यदि कोई पुरुष उसे नहीं मानेगा तो मैं उसे उसी समय भस्म कर दूंगा। मैंने उसी समय सूर्य भगवान ने यह नियम बनाया कि जो पुरुष दुराग्रह करके तुमसे बीस बार प्रश्न करेगा, उस दुरात्मा को मैं सूर्य भगवान तुम्हारी जिह्वा पर उपस्थित हो शाप देकर भस्म कर दूंगा। तू किसी पाप के फलस्वरूप सूर्य भगवान के प्रभाव को समझ नहीं रहा है। काल भगवान की इच्छा से तू मोह को प्राप्त हो रहा है। पर मुझे तुझसे किसी प्रकार को द्वेष नहीं है और मुझे तुम्हारी कुशल की बड़ी चिंता हो रही है। मैं तो सब शरीरों में एक ही आनंद स्वरूप आत्मा का अस्तित्व मानता हूं, इसलिए मैं तुमको अपने से अभिन्न नहीं मानता। हे शाकल्य! सुख-दुःख, हर्ष-शोक, भूख-प्यास आदि मेरे स्वरूप में कदाचित भी नहीं है। मैं आनंद स्वरूप आत्मा के भाव से सदैव निष्क्रिय रहता हूं और मैं कभी किसी का नाश नहीं करता। पर जैसे कृमि आदि क्षुद्र जंतुओं का आत्मज्ञान अज्ञान के कारण आवृत्त रहता है, वैसे ही तेरा आत्मज्ञान भी अज्ञान से आवृत्त हो गया है। हे शाकल्य! ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी पुरुष के प्रति जो द्वेष किया जाता है, वह अग्नि से भी अधिक होता है। उस द्वेष रूपी अग्नि से भस्म हो जाने पर ये सब लोग तथा तुम्हारी वंधु-बांधव शो करें, यह मैं कदापि नहीं चाहता। हे शाकल्य! तू प्रेत शरीर को प्राप्त होकर भूख-प्यास से पीडि़त होकर धर्मराज की पुरी को मत देख। हे शाकल्य! जैसे भल्लात वृक्ष का फल प्राणियों को मारता है, वैसे ही तुम्हारी चित्ता रूपी भूमि में जो द्वेष रूपी वृक्ष पैदा हो गया है, वह तुमको मुत्यु रूपी फल को प्राप्त कराएगा। जैसे पतंगा अग्नि से जल जाता है, उसी प्रकार मेरी जिह्वा पर बैठे सूर्य भगवान की अग्नि में पड़ कर तू नष्ट मत हो। पर इस सहानुभूति पूर्ण बातों का शाकल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। याज्ञवल्क्य की बातों को उसने झूठी धमकी ही मान लिया और कहने लगा कि जिस प्रकार कोई मूढ़ पुरुष बालकों को भयभीत करता है, उसी प्रकार यह मंद बुद्धि याज्ञवल्क्य मुझे भी भय दिखा रहा है। यह मेरी सर्वज्ञता और निर्भयता को नहीं जानता। जैसे गांवों के स्त्री बालकों में बैठकर कोई निर्लज्ज पुरुष निस्संकोच होकर मिथ्या भाषण करता है, वैसे ही यह याज्ञवल्क्य इस सभा में झूठी बातें बना रहा है। यह सूर्य तो जड़ है, उसमें किसी को जलाने का विचार कहीं से हो सकता है। अगर सूर्य देवता किसी को भस्म करता भी हो तो वह पापी को ही करेगा। पर मुझमें कोई पाप नहीं है। इस प्रकार की तरह-तरह की बातें सोचता हुआ वह कहने लगा। हे याज्ञवल्क्य! कुरु, पांचाल आदि देशों में रहने वाले ब्राह्मणों को तुमने पराजित किया और सब ब्राह्मणों की गौओं तथा सुवर्ण को तू ले गया, इस पार के फल से तुझे अनेक बार निर्जल प्रदेश में ब्रह्म राक्षस के शरीर की प्राप्ति होगी और जिस ब्रह्म विद्या के अभियान से तुमने इन महामान्य ब्राह्मणों को पराजित किया है, उसे हमारे सम्मुख कथन कर। फिर शाकल्य ने पूर्वादिक देवताओं और उनके कारण के विषय में प्रश्न किया। याज्ञवल्क्य ने विस्तारपूर्वक उनका रहस्य प्रकट किया कि जैसे ही स्वप्न दृष्टा पुरुष असत्य अज्ञान के कारण प्रपंच रूप को धारण करता है। यद्यपि हम अज्ञान को तीन काल मैं असत्य ही मानते हैं, पर तुम्हारे सरीखे अविवेकी पुरुष अत्यंत समीप हृदय देश में रहने वाले परमात्मा को नहीं जान सकते।
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