आत्म पुराण

By: Nov 11th, 2017 12:05 am

यद्यपि याज्ञवल्क्य के उत्तरों से समस्त सभा का समाधान हो गया पर शाकल्य द्वेष और हठ के कारण अंट-शंट प्रश्न करता ही रहा। यह देखकर याज्ञवल्क्य बहुत चिंतित हो गया कि इसकी दुष्टता के कारण हमारा गुरु सूर्य भगवान अभी इसको मृत्यु के हवाले कर देगा। उसने यह भी निश्चय कर लिया कि जिस हृदय से सूक्ष्म अर्थ को ग्रहण किया जाता है, वह इस शाकल्य के पास नहीं है। इस कारण उसने उसे ‘अहिल्लक’ के नाम से संबोधित किया। यूं तो इसके अनेक अर्थ हैं, पर एक अर्थ ऐसे प्रेत शरीर का भी है, जो दिन में लोप हो जाता है और रात्रि में जिसका प्रादुर्भाव होता है। यह शाकल्य अभी मृत्यु को प्राप्त होकर प्रेत शरीर में बदल जाएगा, इस कारण याज्ञवल्क्य के मुख से ‘अहिल्लक’ शब्द निकला। तब याज्ञवल्क्य ने कहा, हे शाकल्य! हमने तेरे अनेक प्रश्नों का उत्तर दिया, अब तू भी एक प्रश्न का उत्तर दे। अगर तू उत्तर नहीं दे सकेगा तो इसी जनकपुरी में इसी कृष्ण पक्ष की अमावस्या की रात्रि को तू दुर्बुद्धि मृत्यु को प्राप्त होगा। हे शाकल्य! तुमने मुझ ब्रह्मवेत्ता के साथ अकारण जो द्वेष किया है उसके फल से ये तेरी अस्थियां भी घर तक नहीं पहुंचेगी और मार्ग में से चोर रूपी चांडाल उनको धन समझ कर ले जाएंगे। इतना कहते-कहते सूर्य भगवान याज्ञवल्क्य की जिह्वा पर आ गए। आत्मज्ञान से रहित शाकल्य याज्ञवल्क्य के प्रश्न का उत्तर न दे सका और तब सूर्य भगवान के श्राप से शाकल्य के मन तथा वाक आदि इंद्रियां शरीर को छोड़ने लग गए। फिर अशुभ काल और देश में शाकल्य का मस्तक भूमि पर गिर गया। इस प्रकार शाकल्य को मृत्यु को प्राप्त होता देखकर सभा में हा-हा कार शब्द सुनाई पड़ने लगा। शाकल्य के शिष्य और बांधव रुदन करने लगे तथा अन्य सब ब्राह्मण और अन्य स्त्री-पुरुष शाकल्य को धिक्कार-धिक्कार कहने लगे। यद्यपि यह शाकल्य विद्या आदि अनेक गुणों से युक्त था, पर ब्रह्मवेत्ता के साथ द्वेष करने के प्रबल दोष ने उन सब गुणों को नष्ट कर दिया। जैसे संसार में समुद्र के सूखने की किसी को आशा नहीं होती, वैसे ही याज्ञवल्क्य के श्राप से शाकल्य के मरने की संभावना न थी, तो भी ब्रह्मवेत्ता पुरुष के प्रभाव से इस शाकल्य की देखते-देखते मृत्यु हो गई। तत्पश्चात शाकल्य के शिष्य लौकिक अग्नि में ही उसका दाह कर्म करके उसकी अस्थियों को कपड़े में बांध कर घर ले जाने लगे। मार्ग में चांडाल चोर जाति के लोगों ने उनको गठरी बांधकर ले जाते देखा तो विचार किया कि ये ब्राह्मण राजा जनक के यहां से दक्षिणा में स्वर्ण ले आए हैं। इसलिए उन्होंने शिष्यों को मार कर गठरी छीन ली और उसे अपने घर ले गए। इधर सभा में पुनः शांति हो जाने पर याज्ञवल्क्य ने कहा, हे कुरु, पांचाल आदि देशों के सर्व ब्राह्मणों! अब तुम में से जो कोई ब्राह्मण हमसे कोई प्रश्न करना चाहता हो तो वह निःशंक होकर अपना मंतव्य प्रकट करे अथवा जो ब्राह्मण हमारे प्रश्न का उत्तर देना चाहता हो, तो मैं उससे प्रश्न करने को प्रस्तुत हूं। पर उनमें से कोई ब्राह्मण याज्ञवल्क्य से प्रश्न करे या उसके प्रश्न का उत्तर देने को तैयार नहीं हुआ। तब याज्ञवल्क्य स्वयं ही उनकी तरफ से प्रश्न करने लगे जिससे वे कुछ लाभ उठा सकें। याज्ञवल्क्य-जैसे बिना फूल के ही फल उत्पन्न करने वाले पीपल आदि वृक्ष मिथ्या प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार यह मनुष्य शरीर भी मिथ्या प्रतीत होता है।  उदाहरण के लिए पीपल के पेड़ में अनेक पत्ते होते हैं, वैसे ही मनुष्य के शरीर में अनेक लोभ हैं। जैसे पीपल की बाहर की छाल कठिन होती है, वैसे मनुष्य का चर्म भी अनेक जगह कठोर होता है। जैसे पीपल के वृक्ष की नाडि़यां मिलकर गांठ बनाती हैं वैसे ही मनुष्य देह में सूक्ष्म नाडि़यां इकट्ठी होकर गांठ बना देती है। जैसे वृक्ष के भीतर कठिन सारभाग होती है। वैसे ही मनुष्य शरीर में अनेक कठिन अस्थियां होती हैं। अब प्रश्न यह है कि मनुष्य का शरीर कहां से आता है? अगर तुमने कहा कि माता-पिता के रज और वीर्य से यह देह बन जाती है तो यह ठीक नहीं। क्योंकि प्राणियों में वीर्य की उत्पत्ति तो अन्न खाने से ही होती है। हमारे प्रश्न का आशय यह है कि जब प्रलय काल में संपूर्ण प्रपंच का नाश हो जाता है, तो उसके पश्चात किस मूल पदार्थ से नवीन देह आदि उत्पन्न होती है।


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