ईश्वर ही सत्य है

By: Nov 11th, 2017 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे… 

कोई उतनी तीव्र लगन के साथ ईश्वर के लिए आतुर नहीं होता, जितनी तीव्रता से वे इंद्रिय भोग्य वस्तुओं के लिए लालायित होते हैं। सभी लोग कहते हैं कि ईश्वर ही सत्य है, वही एक है, जो वास्तव में है, केवल चेतना की ही सत्ता है, पदार्थ की नहीं। फिर भी ईश्वर से वे जो मांगते हैं, शायद चेतना ही होती है। वे सदा पार्थिव वस्तुओं की याचना करते हैं। उनकी प्रार्थना में चेतन को जड़ से अलग नहीं रखा जाता। धर्म अब केवल पतन ही रह गया है। सब कुछ पाखंड बनता जा रहा है। वर्ष बीतते जा रहे हैं और आध्यात्मिक उपलब्धि कुछ भी नहीं होती। पर मनुष्य को केवल एक वस्तु की भूख होनी चाहिए, आत्मा की, क्योंकि केवल आत्मा का ही अस्तित्व है।  यदि तुम इसे अभी नहीं प्राप्त कर सकते, तो कहो, ‘मैं अभी वहां तक नहीं पहुंच सकता। वह आदर्श है, मैं जानता हूं, पर मैं अभी उसको चरितार्थ नहीं कर सकता।’ पर तुम यह नहीं करते। तुम धर्म को निम्न स्तर पर उतार लाते हो और आत्मा का नाम लेकर जड़ के पीछे दौड़ते हो। तुम सब नास्तिक हो, तुम इंद्रियों के अतिरिक्त और किसी में विश्वास नहीं करते! ‘अमुक ने ऐसा कहा है, इसमें कुछ तत्त्व हो सकता है।  हो सकता है, कुछ लाभ हो जाए, शायद मेरी टूटी टांग ठीक हो जाए।’ रोगी लोग बहुत दुखी होते हैं, वे ईश्वर के बड़े उपासक होते हैं, इसलिए कि वे आशा करते हैं कि यदि वे उससे प्रार्थना करेंगे, तो वह उन्हें ठीक कर देगा। ऐसा नहीं है कि यह सब एकदम बुरा है, यदि ऐसी प्रार्थनाएं सच्ची हों और लोग यह याद रखें कि यह धर्म नहीं है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं, ‘चार प्रकार के मनुष्य मेरी उपासना करते हैं ः आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और सत्य के ज्ञाता।’ जो लोग दुःखग्रस्त होते हैं, वे सहारे के लिए ईश्वर के निकट जाते हैं। यदि वे रोगी होते हैं, तो निरोग होने के लिए उसकी पूजा करते है, यदि उनका धन नष्ट हो जाता है, तो वे उसकी पुनः प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं और दूसरे लोग हैं, जो वासनाओं से भरे हैं, वे उससे सब प्रकार की वस्तुएं मांगते हैं नाम, यश, संपत्ति, पद इत्यादि। वे कहते हैं, ‘हे पवित्र मेरी, यदि मेरी यह इच्छा पूर्ण हो जाएगी, तो मैं तुम्हें एक भेंट चढ़ाऊंगा। यदि तुम मेरी इच्छा पूर्ण करने में सफल होते हो, तो मैं ईश्वर की पूजा करूंगा और प्रत्येक वस्तु का एक अंश तुम्हें दूंगा।’ जो मनुष्य इतने सांसारिक नहीं होते, पर फिर भी जिन्हें ईश्वर में विश्वास नहीं है, वे उसके बारे में जानने की इच्छा रखते हैं। वे दर्शनों का अध्ययन करते हैं, धर्मशास्त्र पढ़ते हैं, उपदेश सुनते हैं और ऐसे ही अन्य कार्य करते हैं। वे जिज्ञासु हैं। अंतिम श्रेणी उन लोगों की है, जो ईश्वर की पूजा करते हैं और उसे जानते हैं। ये चारों श्रेणियां भली हैं, बुरी नहीं। ये सब उसकी उपासना करते हैं। मंत्र शास्त्रियों का विश्वास है कि कुछ शब्द ऐसे हैं, जो गुरु और शिष्य परंपरा से चले आए हैं, उनका जप मात्र करने से ही उन्हें किसी प्रकार के साक्षात्कार की उपलब्धि हो जाएगी। मंत्र चैतन्य शब्द के दो भिन्न अर्थ हैं। कुछ लोगों के मतानुसार यदि तुम किसी मंत्र के जप का अभ्यास करते हो, तो तुम्हें उस इष्ट देवता के दर्शन हो जाएंगे, जो उस मंत्र का साध्य अथवा देवता है। पर दूसरों के अनुसार इस शब्द का अर्थ है कि यदि तुम अयोग्य गुरु से प्राप्त किसी मंत्र का जप करो, तो तुम्हारा जप उस समय तक सिद्ध न होगा, जब तक तुम विशेष अनुष्ठान करके उन मंत्रों को चेतन अर्थात जीवंत न कर लो। मनुष्य उन्हें बिना किसी प्रकार का कष्ट अनुभव किए बहुत देर तक जप सकता है और यह कि उसका मन बहुत शीघ्र एकाग्र हो जाता है।


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