कठिन दौर में पुलिस

By: Nov 18th, 2017 12:05 am

कोटखाई प्रकरण के तमाचे न जाने हिमाचल पुलिस की गाल पर कब तक पड़ेंगे और इसी तर्ज पर हुई एक और गिरफ्तारी का सारांश यही है कि महकमे की गर्दन पर सीबीआई का कसाव बढ़ रहा है। शिमला जिला के पुलिस प्रमुख रहे डीडब्ल्यू नेगी भी अंततः सीबीआई के जाल में आ गए और पड़ताल अब किसी अगले मोड़ की तरफ अग्रसर हो जाएगी। यह दीगर है कि सारा घटनाक्रम अब एक आरोपी सूरज की लॉकअप में मौत के इर्द-गिर्द ठहर सा गया है, जबकि यहां सबसे बड़ा प्रश्न एक छात्रा से हुए दुष्कर्म के बाद हत्या को लेकर उठा था। इसी मुद्दे की राख पर चुनाव गुजर गया और ढेर सारे प्रश्नों के बीच पुनः एक पुलिस अधिकारी का अतीत शर्मिंदा है। पुलिस महकमे के लिए कोटखाई प्रकरण दैत्य बनकर खड़ा है, तो चुनावी माहौल की परिक्रमा में यह मुद्दा घातक अंजाम तक पहुंचा। कानून-व्यवस्था के सारे दायित्व का कचूमर कोटखाई के अलावा फोरेस्ट गार्ड कथित आत्महत्या मामले ने निकाल दिया, तो अब जांच के कठघरे में पुलिस विभाग के काले साए दिखाई दे रहे हैं। घटनाक्रम की आंच में एक पुलिस परिसर का जलना और विशेष जांच दल के अभिप्राय का कैद हो जाना, प्रदेश की माटी पर बदनाम धब्बा है या विभागीय कसौटी का मातम माना जाएगा। पुलिस के उच्च अधिकारी अपनी निजी क्षमता में अपराधी नहीं बने, बल्कि जांच के सारे पहलू अपमानित हैं। ऐसे में न जाने कितनी हत्याओं और कू्रर अपराधों की शिनाख्त प्रश्नांकित हो सकती है। तफतीश के मायने और पुलिस जांच की ईमानदारी ही जनविश्वास से कानून का कद ऊंचा करती है। इसी समाज की बेटी जिन आहों में लिपट कर मरी, उसी से अभिशप्त मंजर आज महकमे के कंकाल ढूंढ रहा है। जाहिर है एक कांड हजारों कोड़े बनकर जब पुलिस की पीठ पर बरसता होगा, तो मलाल अतीत के गौरव से आज के ईमानदार पक्ष तक होगा। यहां अधिकारी गिरफ्त में  नहीं आए, बल्कि हिमाचल पुलिस के चमकते स्टार बदरंग हो गए। सीबीआई जांच ने विपक्षी आरोपों में जान डाल दी है, तो क्या इस बार ऐसे मुद्दे ही सत्ता पक्ष की जान लेंगे। जो भी हो कतारबद्ध अपराध के आगे बनी पुलिस की छवि इस समय अत्यंत घाटे में है। जांच के पन्ने अभी भरते रहेंगे और सीबीआई की लिखावट में अपराध के साथ बैठे पुलिस अधिकारी भी दिखाई देंगे, लेकिन मामले की दूसरी ओर पूरे महकमे की छवि को पुनः संवारने और प्रतिष्ठित करने की चुनौती दिखाई देती है। यह समझने की दरकार है कि हिमाचली समाज अपराध के इन्हीं अंधेरों से बाहर निकलने के लिए पुलिस का हाथ थामता है, तो व्यवहार की कसौटी और जांच की ईमानदारी हमेशा परखी जाएगी। आज भी सामान्य नागरिक की पहुंच पुलिस की फाइल तक असंभव हो जाती है या खौफ की परछाइयां विभाग के उत्तरदायित्व को असहज प्रस्तुत करती हैं, तो समाज के विश्वास को कैसे संबल मिलेगा। चंद काली भेड़ें या राजनीतिक प्रश्रय में बंटते महत्त्वपूर्ण ओहदे अगर दासता सरीखे हैं, तो निष्पक्षता के आंगन में कांटे ही उगेंगे। पुलिस-नागरिक संबंधों में आ रही रिक्तता का सबूत ही है कि कोटखाई के विद्रोह में पूरा थाना जल गया। सोशल मीडिया के युग में पुलिस विभाग को अपनी छवि के खिलाफ दुष्प्रचार का मुकाबला करते हुए अगर डटे रहना है, तो जन सहभागिता को सर्वोपरि साबित करना होगा। पुलिस की दक्षता, सक्रियता और सक्षम साबित होने की चुनौती हर छोटा सा अपराध देता है, अतः जनता के सामने बौनी होती परसेप्शन से बाहर निकल कर नकारात्मकता का अहंकार छोड़कर पुलिस नेतृत्व को आत्मचिंतन करना होगा।


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