कला पर कट्टरपंथ की काली छाया

By: Nov 25th, 2017 12:05 am

डा. देवकन्या ठाकुर

लेखिका, शिमला से हैं

सदियों से फिल्मकार, चित्रकार और लेखक की कलाओं के विरुद्ध स्वर कट्टरपंथियों ने उठाए हैं। इन कट्टरपंथियों को जो राजनीतिक और सामाजिक आश्रय मिलता रहा है, उससे हमारा देश तालिबानी देश बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। ऐसे तो देश कला के वैभव से वंचित हो जाएगा…

इन दोनों फिल्मों के टाइटल पर गौर किया जाए, तो कई लेखक और फिल्मकार अपनी फिल्म और कहानी को ऐसा टाइटल देता है, जो दर्शकों का ध्यान आकर्षित करे, बेशक फिल्म में वह एक प्रतीक रूप में ही क्यों न लिया गया हो। इसके अलावा हर सप्ताह हमारे देश में ऐसी कई फिल्में रिलीज होती हैं, जिनमें जमकर फूहड़ता का प्रदर्शन होता है, लेकिन इस सब पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। ‘पद्मावती’, ‘एस दुर्गा’ और ‘न्यूड’ ये तीनों फिल्में नारी प्रधान फिल्में हैं। पद्मावती फिल्म की मुख्य अदाकारा दीपिका पादुकोण को पहली बार अपने सहयोगी पुरुष पात्र रणवीर और शाहिद कपूर से ज्यादा फीस मिली है। नारी केंद्रित इन तीनों फिल्मों में कट्टरपंथियों की नींद उड़ा रखी है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में पहले फिल्मों और कला की अन्य

विधाओं से जुड़े लोगों को विरोध का सामना न करना पड़ा हो। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। मैं इस लेख में केवल उन फिल्मों की बात करूंगी, जिनमें मुख्य पात्र महिलाएं रही हैं। वर्ष 1994 में फूलन देवी पर आधारित फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ शेखर कपूर के निर्देशन में बनी। फिल्म की प्रामाणिकता पर सेंसर बोर्ड ने सवाल उठाए और कुछ समय के लिए यह फिल्म बैन की गई। बाद में जब फिल्म रिलीज हुई, तो दर्शकों ने इसे पसंद किया और फिल्म को बेस्ट फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। वर्ष 1996 में समलैंगिकता पर बनी पहली फिल्म ‘आग’ आई। शबाना आजमी और नंदिता दास अभिनीत इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने बिना किसी ‘कट’ के अडल्ट रेटिंग के साथ रिलीज की अनुमति दे दी। रिलीज के पहले तीन सप्ताह में फिल्म सभी बड़े शहरों में हाउसफुल रही, लेकिन कुछ अतिवादी तत्त्वों ने मुंबई के गोरेगांव स्थित एक थियेटर पर पथराव किया। उत्पात मचाने वालों ने फिल्म के पोस्टर जला दिए और धीरे-धीरे पूरे देश में फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन हुए और फिल्म को सिनेमाघरों से हटाना पड़ा। हाल ही में प्रदर्शित अंलकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ को भी सेंसर बोर्ड ने प्रमाण पत्र देने से मना कर दिया था, क्योंकि फिल्म की चार मुख्य महिला किरदार अपनी महिला छवि को गलत तरीके से पेश करती हैं। बोर्ड का यह भी तर्क था कि यह कहानी समाज में गलत संदेश देती है। अंलकृता श्रीवास्तव का कहना था कि उनकी फिल्म पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की महत्त्वाकांक्षाओं की बात करती है और इसमें क्या गलत है। हालांकि श्रीवास्तव को फिल्म सर्टिफिकेशन अपिलेट ट्रिब्यूनल जाना पड़ा और फिर कुल 16 कट के बाद उनकी फिल्म ‘ए’ सर्टिफिकेट के साथ रिलीज हुई।

अगर देखा जाए तो महिला प्रधान विषयों पर बनी फिल्मों पर हंगामा ही हुआ है, खासकर उन विषयों पर जहां स्त्री के देह विमर्श पर चर्चा होती है। दिलचस्प बात यह है कि यह विरोध पुरुष कर रहे हैं, महिलाएं नहीं। पुरुषों का भी यह वह वर्ग है, जिसकी छवि कट्टरपंथी की है। संजय लीला भंसाली, अलंकृता श्रीवास्तव, सरन कुमार शशिधरन और रवि जाधव जो आज झेल रहे हैं, वह सब वर्षों पहले पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित चित्रकार एमएफ हुसैन झेल चुके हैं। हम भारतीयों के लिए इससे बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है कि मुट्ठी भर कट्टरपंथियों के विरोध के समक्ष हमारी व्यवस्था ने घुटने टेक दिए और ‘इंडिया के पिकासो’ कहे जाने वाले एक चित्रकार को निर्वासित होना पड़ा। वर्ष 1996 में हिंदी मासिक पत्रिका ‘विचार मीमांसा’ में एमएफ हुसैन की विवादित पेंटिंग प्रकाशित हुई। उनकी एक पेंटिंग में हिंदू देवी को नग्न अवस्था में दिखाया गया था, जिस पर कई हिंदू संगठनों ने उनका विरोध किया और उनके खिलाफ आठ आपराधिक मामले दर्ज किए गए। वर्ष 2006 में उनकी एक अन्य पेंटिंग विवाद का कारण बन गई, जिसमें उन्होंने भारतमाता को नग्न चित्रित किया। बाद में उनकी यह पेंटिंग 80 लाख रुपए में नीलाम हुई।

हुसैन की वर्ष 2004 में बनाई फिल्म ‘मीनाक्षी’ में तब्बू ने मुख्य किरदार निभाया और यह फिल्म के एक गीत का मुस्लिम संगठनों ने विरोध किया कि उनकी धार्मिक आस्था को आघात पहुंचा है। केरल सरकार ने वर्ष 2007 में चित्रकार एमएफ हुसैन को ‘राजा रवि वर्मा’ पुरस्कार देने की घोषणा की, जिसका कई धार्मिक संगठनों ने विरोध किया। हमारे देश में कला की एक अन्य विधा लेखन में भी विरोध के स्वर इतने कड़े उठे कि कुछ वर्ष पूर्व कन्नड़ लेखक डा. एमएम कुलबर्गी की हत्या तक कर दी गई। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कुलबर्गी की हत्या का कारण उनका एक समुदाय विशेष की स्त्रियों पर आधारित लेख था। वर्ष 2015 में तमिल लेखक पी. गुरुगन ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा ‘लेखक पेरूमल मुरुगन नहीं रहे, वह परमात्मा नहीं इसलिए वह फिर लिखना शुरू नहीं करेंगे, अभी सिर्फ एक अध्यापक पी. मुरुगन जीवित रहेंगे।’

गुरुगन के उपन्यास ‘मातोरुभागन’ का एक समुदाय द्वारा विरोध किया गया। विरोधियों के अनुसार गुरुगन के इस उपन्यास में एक जाति विशेष की स्त्रियों का अपमान हुआ है और हिंदू देवियों का अनादर किया गया है। सदियों से फिल्मकार, चित्रकार और लेखक की कलाओं के विरुद्ध स्वर कट्टरपंथियों ने उठाए हैं। इन कट्टरपंथियों को जो राजनीतिक और सामाजिक आश्रय मिलता रहा है, उससे हमारा देश तालिबानी देश बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। ऐसे तो देश कला के वैभव से वंचित हो जाएगा।


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