किसान की व्यथा

By: Nov 9th, 2017 12:03 am

विजय शर्मा

लेखक, हिम्मर, हमीरपुर से हैं

गांवों में बसने वाली हिमाचल की करीब 71 फीसदी आबादी के लिए खेतीबाड़ी ही मूल पेशा है। पिछले एक दशक से ग्रामीण एवं शहरी इलाकों में बंदरों, लावारिस पशुओं ने उत्पात मचाना शुरू कर दिया है। बंदरों के झुंड किसानों की फसलों को बर्बाद कर रहे हैं, जिसके कारण बहुत से किसानों ने फसलें उगाना ही बंद कर दिया है। किसान खेती छोड़कर मजदूरी कर रहे हैं। लाहुल-स्पीति को छोड़कर बाकी सभी जिलों में बंदर आतंक का पर्याय बन चुके हैं। राज्य सरकार ने बंदरों की नसबंदी और उन्हें पकड़ने के लिए प्रभावी अभियान चलाया था, लेकिन इसके बावजूद बंदरों की फौज लगातार बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार मौजूदा समय में प्रदेश में लगभग साढ़े तीन लाख बंदरों की भारी भरकम फौज उत्पात मचा रही है। प्रजनन दर अधिक होने के कारण इनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। खाना खिलाने पर प्रतिबंध और नसबंदी के बावजूद यदि बंदरों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ रही है, तो यह बेहद चिंता का विषय है। राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे पर खूब राजनीति करती हैं, लेकिन प्रदेश के लगभग 10 लाख किसान परिवारों की समस्या का कोई हल नहीं निकल पाया है। भाजपा ने अपने दृष्टिपत्र में केंद्र की तर्ज पर किसानों की आय दोगुना करने की घोषणा की है। खेती एवं बागबानी को जंगली जानवरों से बचाने के लिए सौर बाड़ लगाने तथा हिंसक पशुओं को अभयारण्य बनाकर उन्हें वहां रखने का वादा किया है। सौर बाड़ लगाने पर किसानों को 90 फीसदी और पांच या अधिक किसानों द्वारा मिलकर सहकारी बाड़ लगाने पर 95 फीसदी सबसिडी देने का ऐलान किया है। कांग्रेस ने भी अपने घोषणा पत्र में जंगली हिंसक जानवरों के लिए नीति बनाने का ऐलान किया है, लेकिन जमीन पर कुछ होता नजर नहीं आ रहा। पहले किसान खेतों में अनाज की फसलों के साथ-साथ फल और सब्जियां उगाते थे।

पिछले कुछ वर्षों से बंदरों के आतंक के कारण बहुत सारे किसानों ने खेती करना बंद कर दिया है, क्योंकि फसलों, सब्जियों और फलों के तैयार होते ही बंदर उन्हें चट कर जाते हैं या नष्ट कर देते हैं। भाजपा ने बंदरों एवं जंगली जानवरों के भय से त्रस्त कुछ विधानसभाओं के दृष्टिपत्र में विशेष कार्यबल गठन करने का ऐलान किया है, लेकिन उसे पूरे प्रदेश में अमल में लाना होगा। भाजपा ने हर किसान को फसल बीमा योजना से जोड़ने और 50 फीसदी प्रीमियम सरकार द्वारा भरने का वादा किया है, लेकिन बंदरों या अन्य जानवरों द्वारा किए जाने वाले नुकसान की शत-प्रतिशत भरपाई इस बीमा के अंतर्गत होगी, इसका कोई उल्लेख नहीं है। सरकारी सर्वेक्षणों के अनुसार राज्य में बंदरों की आबादी लगातार कम हो रही है। 2013 के सर्वेक्षण के अनुसार यह घट कर 2,36,000 हो गई है, जबकि 2004 में राज्य में बंदरों की संख्या 3,19,000 थी। सर्वेक्षण को लेकर आशंका है कि यह सही ढंग से नहीं हुआ है। वास्तविकता यह है कि पिछले कई वर्षों से बंदरों की आबादी लगातार बढ़ी है। वन्यजीव विभाग के अनुमान के अनुसार बंदरों की वजह से लगभग 10,00,000 किसान प्रभावित हुए हैं। सरकार पांच वर्षों तक बंदरों की नसबंदी और उन्हें पकड़ कर उत्तर-पूर्वी राज्यों में भेजने के दावे करती रही है, लेकिन हकीकत नहीं बदली है। किसान संगठनों का दावा है कि बंदरों की तादाद पांच से छह लाख है। किसान भी सरकारी दावों को गलत बताते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार राज्य की करीब 3223 पंचायतों के अधिकतर किसानों की फसलों को बंदर नुकसान पहुंचा रहे हैं और हर साल करीब पांच से छह सौ करोड़ की फसल बर्बाद कर रहे हैं। फसलों की रखवाली पूरी तरह किसानों की जिम्मेदारी है और कोई चारा न देख किसानों ने फसलों की रखवाली के लिए खुद मिलकर राखा रखने शुरू किए हैं, लेकिन किसानों के लिए उनका खर्च वहन करना मुश्किल हो रहा है।

फसलों की रखवाली के लिए कई संगठनों ने मनरेगा के तहत राखा रखने का प्रावधान करने का सुझाव दिया था, जिसे मंजूरी नहीं मिली है। वन्यजीव संरक्षण के लिए काम करने वाले संगठनों की मांग पर वर्षों तक बंदरों को मारने पर उच्च न्यायालय ने रोक लगाई थी। बाद में किसान संगठनों की मांग पर केंद्र सरकार ने हिमाचल सरकार के आग्रह को मानते हुए कुछ इलाकों में बंदरों को मारने की अनुमति दे दी थी। लेकिन वन विभाग ने यह जिम्मेदारी किसानों पर डाल दी, जिससे यह समस्या अब विकराल रूप धारण कर चुकी है। बंदरों के अलावा बड़ी संख्या में लावारिस पशु, नील गाय, सूअर तथा अन्य जंगली जानवर भी किसानों की फसलें बर्बाद कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह फसल बर्बाद कर रहे हैं और शहरी क्षेत्रों में लोगों तथा फल-सब्जियों की दुकानों को निशाना बना रहे हैं। शहरी इलाकों में भी बंदरों के आतंक के चलते लोगों ने घरों के सभी हिस्सों को जाली से कवर करना शुरू कर दिया है। चुनावों के समय बंदर और लावारिस पशुओं का मुद्दा एकाएक चर्चा में आता है, लेकिन चुनाव बीतते ही यह केवल किसानों की समस्या रह जाती है। आशा है कि नई सरकार जरूर इस पर ध्यान देगी। राजनीतिक दलों द्वारा इस समस्या के समाधान को चुनावों से पहले अपने घोषणा पत्र में शामिल जाता, तो यह सार्थक कदम होता। उम्मीद की जानी चाहिए कि नई सरकार इस गंभीर समस्या के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास करके कोई समाधान पेश करेगी।


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