घाटी में आतंक की कहानी

By: Nov 11th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

1947 में कश्मीर एक बार फिर पाकिस्तान के हमले का शिकार हो गया। गोरों की साम्राज्यवादी साजिशों के चलते रियासत का काफी हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में अब तक भी है। वहां के बल्ती और दरदी अभी भी पाकिस्तान सेना और प्रशासन की ज्यादतियों का शिकार बन रहे हैं। उधर पाकिस्तान सरकार ने 1990 के बाद से ही कश्मीर घाटी में प्रशिक्षित आतंकवादी भेजना शुरू कर दिया। इन आतंकियों के साथ कुछ स्थानों पर स्थानीय लोग, जिनके पूर्वज अरब, ईरान, तुर्क और मध्य एशिया से आए थे, इन आतंकवादियों के साथ मिल कर कश्मीरियों को घेरने लगे…

तीन दिन पहले मैं श्रीनगर में था। भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद ने वहां कश्मीर की रहस्यवादी दार्शनिक चेतना पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। कश्मीर दर्शन शास्त्र की भूमि है। भारतीय काव्य शास्त्र के ज्यादातर सिद्धांत भी कश्मीर से ही निकले हैं। लेकिन बाद में कश्मीर मध्य एशिया के आततायियों, अरबों, ईरानियों, तुर्कों, मुगलों और अफगानियों के हमलों का शिकार हो गया  ऐसी हालत में दर्शन शास्त्र की गुत्थियां सुलझाने का समय नहीं होता, बल्कि जीवन रक्षा ही प्रमुख हो जाती है। लंबे अरसे तक आम कश्मीरी अपनी जीवन रक्षा के काम में ही लगे रहे। कश्मीर घाटी के बाशिंदों को पहली बार राहत तब मिली, जब महाराजा रणजीत सिंह ने घाटी को अफगानों के कब्जे से मुक्त करवाया। बहुत लंबे अरसे बाद कश्मीरियों ने सुख की सांस ली। उम्मीद जगी थी कि काव्य शास्त्र रचना को जो सिलसिला कहीं पीछे छूट गया था, उसकी एक नई शुरुआत होगी। लेकिन 1947 में कश्मीर एक बार फिर पाकिस्तान के हमले का शिकार हो गया। भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर के बहुत बड़े भाग को पाक के कब्जे से मुक्त तो करवा लिया, लेकिन गोरों की साम्राज्यवादी साजिशों के चलते रियासत का काफी हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में अब तक भी है।

वहां के बल्ती और दरदी अभी भी पाकिस्तान सेना और प्रशासन की ज्यादतियों का शिकार बन रहे हैं। उधर पाकिस्तान सरकार ने 1990 के बाद से ही कश्मीर घाटी में प्रशिक्षित आतंकवादी भेजना शुरू कर दिया। इन आतंकवादियों के साथ कुछ स्थानों पर स्थानीय लोग, जिनके पूर्वज अरब, ईरान, तुर्क और मध्य एशिया से आए थे, इन आतंकवादियों के साथ मिल कर कश्मीरियों को घेरने लगे। हालांकि घाटी में ऐसे लोगों की गिनती बहुत कम है। लेकिन फिर भी आतंकवादियों का भय चारों ओर व्याप्त होने लगा और प्रशासन चरमरा गया। आतंकवादियों की बंदूक का भय एक ओर तथा प्रशासन का ध्वस्त हो जाना दूसरी ओर। आम कश्मीरी एक बार फिर अपनी जीवन रक्षा के लिए ही जूझने लगा। उसका व्यवहार फिर बदलने लगा। वह बाहर और भीतर से दो व्यक्तित्वों में विभक्त होने लगा। कश्मीर को समझने का दावा करने वाले बार-बार घोषणा कर रहे हैं कि आम कश्मीरी आजादी का पक्षधर है और वह भारत में नहीं रहना चाहता। वे आतंकवादियों के साथ हैं। अंग्रेजी अखबारों के पन्ने के पन्ने भरे रहते हैं कि कश्मीरी आजादी चाहते हैं और कुछ तो यह सुझाव भी देते हैं कि भारत सरकार को उनकी यह मांग कुछ सीमा तक पूरी कर देनी चाहिए। ये सब लोग अपने आप को कश्मीर का विशेषज्ञ बताते हैं। कश्मीर के भीतर कुछ बकरे अवश्य भारत में नहीं रहना चाहते, लेकिन उनकी संख्या नगण्य हैं और वे आम कश्मीरी का प्रतिनिधित्व किसी भी तरीके से नहीं करते। कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के वक्त से ही बकरे उन्हें कहते हैं जिनके पूर्वज विदेशों से यहां आए थे। आम कश्मीरी अपने आपको शेर पार्टी का सदस्य मानता है और बकरा पार्टी को इन पांच प्रतिष्ठित विदेशियों की पार्टी मानता है।

कश्मीर की दूसरी समस्या भ्रष्टाचार की समस्या है, जिसे कोई भी विशेषज्ञ अपने आकलन में प्रयोग नहीं करता। कश्मीर में भ्रष्टाचार इस सीमा तक फैला हुआ है कि कुछ सीमा तक जनता का पूरे सिस्टम से विश्वास उठ खड़ा हुआ है। अपने इस प्रवास में मेरी विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों से बात हुई। वे किसी भी हालत में यह विश्वास करने को तैयार ही नहीं थे कि हिमाचल प्रदेश में स्कूल या कालेज में कोई भी बिना पैसे दिए नौकरी पा सकता है। वे मुझसे पूछ रहे थे कि हिमाचल में इस पोस्ट का रेट क्या है! जब मैंने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है, तब पहले तो यह मानने को तैयार ही नहीं हुए। बहुत कहने पर वे मान गए कि इसका रेट कम या ज्यादा हो सकता है, बिना पैसे के कोई किसी को नौकरी क्यों देगा? टैक्सी वाले को यह विश्वास था कि नेशनल कान्फ्रेंस ने कश्मीर की प्रशासन व्यवस्था को कोई पहलू ऐसा नहीं छोड़ा, जो रिश्वत से न संचालित होता हो। पूरे राज्य में सरकारी कर्मचारियों का स्थानांतरण करवाने और फिर रुकवाने का एक लघु उद्योग बन गया है। अब तो केंद्र सरकार को ही कहना पड़ा कि कर्मचारियों के स्थानांतरण के इस लघु उद्योगों को बंद किया जाए। जो भी कर्मचारी कायदे-कानून से चलने की कोशिश करता है, उसे चलता कर दिया जाता है। बहुत से कर्मचारी आतंकवादी गिरोहों से मिले हुए हैं।

आतंकवादियों से दुखी होकर जब कोई नागरिक अपनी शिकायत सिविल प्रशासन के पास लेकर जाता है, तो सिविल प्रशासन में छिपे आतंकवादियों के समर्थक इसकी सूचना आतंकवादियों को देते थे और स्वयं शिकायतकर्ता को प्रताडि़त करते हैं। श्रीनगर का एक सरकारी अस्पताल तो आतंकवादियों की पनाहगीर बन गया था। आतंकवादियों के हमले का शिकार कोई व्यक्ति इस अस्पताल में डर के मारे आता नहीं था। उसको आतंकवादियों से इतना डर नहीं लगता था, जितना यहां के डाक्टरों से। इस वातावरण में चारों ओर से घिरा आम कश्मीरी जब आजादी के पक्ष में बोलता है तो समझ लेना चाहिए, यह घिरे हुए व्यक्ति की भय से निकली चीख है, आजादी के समर्थन का नारा नहीं है। यह बात कश्मीर घाटी का आम कश्मीरी तो जानता है, लेकिन दिल्ली, मुंबई और चेन्नई में बैठा कश्मीर विशेषज्ञ नहीं।

वह कश्मीरी की चीख के शब्दों को पकड़ कर लंबे-लंबे लेख लिखता है, लेकिन उन शब्दों के पीछे छिपे दर्द को नहीं पकड़ता। वह पकड़ भी नहीं सकता, क्योंकि उसका प्रशिक्षण शब्दों से खेलने में हुआ है, उन शब्दों के पीछे छिपे असली भाव को पकड़ पाने का नहीं। यदि आतंकवादी की बंदूक का भय न हो, बकरों को बाहर से आ रही सहायता की सप्लाई लाइन टूट जाए, सिविल प्रशासन के आतंकवादियों से मिले होने की आशंका न हो, तो फिर कितने लोग सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते हैं या फिर आतंकवादियों के एक प्रेस नोट पर लाल चौक बंद कर देते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। पिछले कुछ समय से भारत सरकार कश्मीर घाटी से आतंकवादियों की बंदूक के भय को समाप्त करने की लड़ाई ही लड़ रहे हैं। आतंकवादी सरगना मौलाना मसूद अजहर के भानजे का मारा जाना उसी अभियान का हिस्सा है।

ई-मेल :kuldeepagnihotri@gmail.com


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