ठोकरें खाकर प्रौढ़ हुआ साहित्य

By: Nov 26th, 2017 12:05 am

प्रतिष्ठित साहित्यकार सुरेश सेन निशांत मंडी जिले से संबंध रखते हैं। उनका जन्म 12 अगस्त 1959 को हुआ। पहल, नया ज्ञानोदय, वार्गथ, जनपथ, वसुथा, जनपक्ष, विपाशा आदि प्रकाशनों में उनकी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। ‘कुछ थे जो कवि नहीं थे’ तथा ‘वे जो लकड़हारे नहीं थे’ उनके कविता संग्रह हैं। वह प्रथम प्रफुल स्मृति सम्मान, सूत्र सम्मान, सेतु सम्मान व हिमाचल अकादमी सम्मान से नवाजे जा चुके हैं। उनका कहना है कि उन्होंने परंपराओं से बहुत कुछ सीखा है। उनका अकादमिक अध्ययन बहुत कम है, उन्होंने या तो दोस्तों से सीखा या फिर अपने अनुभवों से। उनके अनुसार उनकी माता जी एक कहावत अकसर सुनाया करती थीं…‘कि पत्थरा तू किंहा गोल हुआ?’ अर्थात ओ पत्थर तू किस तरह इतना सुंदर गोल हुआ? …तो पत्थर कहता है बजी…बजी…यानी टकरा-टकरा कर…ठोकरें खा-खा कर। पहाड़ों में नदियों के पत्थर आपको गोल मिलेंगे…उनकी गोलाई तराशी हुई बहुत ही कलात्मकता से भरी हुई होती है। उस गोलाई में उस तराशपन में उनका टकरा-टकरा कर गोल होने का अनुभव है…मैं अपने को उस तरह से नदियों का पत्थर ही मानता हूं…नदियों के पत्थर की तरह जो भी सीखा है, टकरा-टकरा कर ठोकरें खा कर।

यहां कस्बे में साहित्य का कोई माहौल नहीं रहा। कभी जो भी सीखा है, दूरदराज के दोस्तों की संगत व पत्रिकाओं से ही सीखा। जहां तक चिरस्थायी रचने की बात है…औरों से अलग दिखने की बात है…ऐसी मंशा रही नहीं मेरी कभी…मुझे लगता है यह एक ग्रंथी है…यह एक एलीट किस्म का संस्कार है। मैं साधारण के बीच साधारण सी बात कहना चाहता हूं। सरलता को जीते हुए सरल ढंग से। हां, जो मुझे करना है…उसके बारे में सोचना होगा कि किस ढंग से रास्ते अपनाने होंगे…किन कवियों की संगत करते हुए मुझे अपना विकास करना होगा…यह एक लंबा सिलसिला है। लिखने के रास्ते कठिन तो हैं, ये उस वक्त और भी कठिन हो जाते हैं, जब आपको अपने आसपास का माहौल नेगेटिव मिलता है। जहां तक दीर्घजीवी रचना की बात है…इसके लिए रियाज के साथ-साथ वह जीने के तरीके पर भी निर्भर करती है…हम नकारात्मक शक्तियों के साथ किस तरह संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं। लेखक कहते हैं कि हताशा, निराशा, नाउम्मीदों की धुंध छंटे न छंटे, आज के कवियों को फर्क नहीं पड़ता। जीते जी उसने अमरता का स्वाद चख लिया है, अपनी जय-जयकारा का अमृत कानों से पी लिया है, फिर किस बात की चिंता? कविता का सेंसेक्स लगातार गिर रहा है और गजब कवि बेफिक्र की खुमारी में झूमते हुए गाते चला जा रहा है…बड़ी रचना चाहत, महत्त्वाकांक्षा या अभ्यास से नहीं, बल्कि अपने भीतर रोशन आत्मा की सिद्धि से संभव होती है। देखते हैं उसके लिए कितनी भर तैयारी कर पाते हैं हम सब? लेखक को इस बात का दुख है कि हिमाचल की अपनी कोई भाषा नहीं है। अपर हिमाचल में भोटी या तिब्बती का प्रभाव है, मध्य हिमाचल में डोगरी का, लोअर हिमाचल में पंजाबी का। यहां के साहित्य संस्कारों में इस सभी का थोड़ा-बहुत समावेश है। ज्यादातर प्रभाव हिंदी की पत्रिकाओं का है जिन्होंने यहां के साहित्य के संस्कारों को पोषित किया है।

लेखक का कहना है…मैं मध्य हिमाचल में पैदा हुआ हूं। यहां हिमाचल की अधिकतर जनसंख्या बसी है। यहां वनों का विनाश और पहाड़ों का क्षरण हर कहीं देखा जा सकता है। मैंने साहित्य का ककहरा यहीं विनाश के कारण क्षरण हुई इस मिट्टी में सीखा है। यहां केशव, श्रीनिवास श्रीकांत, सुंदर लोहिया, एसआर हरनोट व मधुकर भारती ऐसे शख्स हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और स्नेह से यहां के साहित्यिक वातावरण को पोसा है। यहां युवाओं में आत्मारंजन, मुरारी शर्मा, कृष्ण चंद्र महादेविया, गणेश गनी जैसे सहृदयता से भरे मित्र हैं। लेखक का कहना है कि सरकारी स्तर पर उन्हें उपेक्षा ही मिली। इसका कारण बताते हुए वह स्वयं ही कहते हैं…शायद मेरा कम पढ़ा होना, मेरी पारिवारिक गंवई पृष्ठभूमि, शायद मेरी कविताओं में दुखों के दाग कुछ ज्यादा ही दिखते हों, अनुभवों की उतनी कलात्मक बारीकियां न हों। लेखक हिमाचल के लिए एक भाषा की वकालत करते हैं।


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