तुष्टिकरण का घुन

By: Nov 8th, 2017 12:03 am

सचिन नेगी

लेखक, बरी, किन्नौर से हैं

प्रदेश में सरकार किसी भी दल की रही हो, लेकिन यहां की राजनीति ऐसी रही है कि हिमाचल कभी सही दिशा में नहीं बढ़ सका। हिमाचल में सत्ता के शीर्ष पर रहने वाले नेताओं में दूरदर्शिता की कमी ही देखने को मिली। उनकी जिंदगी और नीति बस  विधानसभा की 68 सीटों  तक सीमित रही। वे उससे बाहर कभी हिमाचल का भविष्य नहीं देख पाए। उन्हें तो सत्ता में रहने में ही मजा आता है। वे इसके मंजे हुए खिलाड़ी हैं। 80 के दशक के बाद से लेकर आज तक जो दशा-दिशा वे तय कर सकते थे या यूं कहें कि हिमाचल को एक विजन के साथ आगे लाया जा सकता था, उसमें वे नाकाम रहे। बेरोजगारों की लंबी फौज, खस्ताहाल स्वास्थ्य सुविधाएं, बदहाल सड़कें और ठेकेदारी प्रथा से नियुक्तियों से बदतर होती शिक्षा व्यव्यस्था! क्या ये सब अव्यवस्थाएं हिमाचल के नेताओं से इतने सालों के शासन का हिसाब नहीं मांगेंगी? वे लोग अपनी सत्ता के लिए अपने पार्टी के अंदर-बाहर के विरोधियों को तो चित करते रहे, मगर शह-मात के इस खेल में वे इस पर ध्यान नहीं दे पाए कि इस प्रदेश की उपलब्धियों का दायरा राष्ट्रीय भी हो सकता था।

आज हिमाचल के बुजुर्ग नेता कभी अवैध कब्जों को नियमित करते हैं, तो दूसरे चुनावी वादों की भी कोई कमी नहीं। वे इसी मनोदशा में अगली जीत का स्वाद चखने के लिए बेताब हैं, जिसे हिंदी में कहते हैं-तुष्टिकरण। नेतृत्व को समय से आगे रहना पड़ता है, समय से आगे सोचना पड़ता है। मगर हिमाचल के राजनेता कभी समय के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं, बल्कि अपने नफे-नुकसान के हिसाब से चले। भविष्य की राह देखती पीटीए, एसएमसी, पैट वगैरह अध्यापकों की फौज किसकी नीति का परिणाम है? इन्हीं विजनहीन नेताओं की। प्रदेश के लाखों स्नातक जम्मू-कश्मीर जाकर जिस दौर में बीएड करने जाते थे, उस दौर में हिमाचल की सरकारें कभी नहीं सोच पाईं कि बीएड प्रदेश में करवाने हेतु क्या अधोसंरचना और सुविधाएं चाहिएं और उसके लिए कितना बजट चाहिए? मगर न जाने कितने ही लोग वहां से बीएड करके आए। इन्हीं सरकारों ने थोड़ी तनख्वाह पर पीटीए, एसएमसी और आउटसोर्स आदि के नाम से लोगों को रख लिया। इनका न ढंग से टेस्ट होता था और न ही साक्षात्कार। फिर इन्हीं लोगों का शोषण करने के लिए राजनेताओं ने उन्हें नियमित करने का कार्ड खेल दिया। अब यह कहां का न्याय था कि एक तरफ तो कुछ लोगों को स्टेट लेवल का कमीशन पास करना पड़े, बाकायदा प्रतिस्पर्धा से आना पड़े और फिर नौकरी लगे, जबकि दूसरी तरफ नेता अपनों को रेवडि़यां बांटने की नीति बनाने लगे। नौकरियों की तैयारी करते हुए कई साल खपाने के बाद लोग खुद खप गए, मगर वोट बैंक की राजनीति चलती रही। इसका फायदा इन पीटीए, अनुबंध या आउटसोर्स कर्मचारियों को भी नहीं मिल पाया। वे आज भी कशमकश की स्थिति में हैं।

अगर वे भावनात्मक आधार पर पक्के हो भी जाते हैं, तो उन लोगों का क्या होगा जो एक अदद टेस्ट और वेकेंसी की राह देख रहे हैं? अब कब्जे भी नियमित हो रहे हैं। नाजायज क्यों जायज हो रहा है, इसका न कोई सवाल करता है, न कोई जवाब देता है। यह एक आधारशिला है, आगे लोगों को यह बताने के लिए कि जिसकी लाठी उसी की भैंस। सब कब्जे करो, सरकार वोट बैंक के आगे झुककर सब नियमित कर देगी। सरकार ने नए-नए कालेज-स्कूल गली-नुक्कड़ में खोल दिए, जबकि उनका कोई अपना भवन नहीं है। ज्यादातर कालेज या तो पुराने स्कूलों में चल रहे हैं या किसी अन्य जर्जर भवनों में। इन कालेजों में जो मूलभूत सुविधाएं होनी चाहिएं, वे तो दूर-दूर तक नहीं दिखतीं। हिमाचल भारी  शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है और यह सब केवल वोट बैंक के लिए। एक बार इन नेताओं को प्रदेश के चार युवाओं को बुलाकर पूछना चाहिए कि क्या किसी कोने में बीए, बीएससी करवाने वाले कालेज की जरूरत है? कम से कम यही पता कर लीजिए कि अभी प्रति कालेज विद्यार्थी संख्या कितनी है। जिन नए कालेजों का ऐलान किया जाता है, वे वर्षों तक पहले तो किराए के भवन में चलते रहेंगे। न बच्चे पर्याप्त होंगे, न स्टाफ पूरा मिलेगा और न ही शिक्षा। मिलेगा तो बस तुष्टिकरण। ऊपर से यह चरमराती हुई शिक्षा व्यवस्था ताने मारती रहेगी और मजबूरी का उपहास उड़ाती रहेगी। खासकर तब, जब हमारे बच्चे क्लर्क का एग्जाम भी पास नहीं कर पाएंगे। आखिर कौन इसका जिम्मेदार हुआ? राजनीति के ये उस्ताद विजन के हिसाब से प्रदेश को कुछ नहीं दे पाए और न ही अब देने की सोच रहे हैं। ऐसे में जनता के द्वार पर चुनाव के रूप में एक अवसर है कि अपने लिए सहीं नुमाइंदे चुनें।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App