त्रिगर्त राज्य का दूसरा नाम था जालंधर

By: Nov 22nd, 2017 12:02 am

जालंधर त्रिगर्त राज्य का दूसरा नाम तथा उसकी राजधानी थी। ह्वेनत्सांग के मतानुसार इस राज्य की पूर्व से पश्चिम की 67 मील लंबाई और उत्तर से दक्षिण को 133 मील चौड़ाई थी। अगर ये लंबाई-चौड़ाई किसी कद्र ठीक हो, तो जालंधर राज्य के भीतर उत्तर की ओर से चंबा, पूर्व की ओर से मंडी तथा सुकेत और दक्षिण- पूर्व की ओर से शतद्रु नामक राज्य भी शामिल रहे होंगे…

पूर्व मध्यकालीन हिमाचल

हर्षवर्धन का शासनकाल (606-47ई.) शांति और समृद्धि का काल था। उसी समय चीनी यात्री ह्वेनत्सांग भारत भ्रमण के लिए आया। उसने अपने समकालीन हिमालय में कश्मीर से लेकर ब्रह्मपुर (गढ़वाल, कुमाऊं) तथा नेपाल के मध्य भू-भाग में स्थित छोटे-छोटे राज्यों का थोड़ा बहुत वर्णन किया है।

वह कश्मीर होता हुआ आया। कश्मीर में वह दो वर्ष तक ठहरा। वहां से पुंछ और फिर रजौरी गया। ये राज्य कश्मीर के अधीन थे। ये राज्य आज के जम्मू प्रांत के पश्चिमी भाग में स्थित थे। रजौरी से ह्वेनत्सांग मद्रों की प्राचीन राजधानी साकल (स्यालकोट) होता हुआ चिनमुक्ति (कसूर) से 27 मील उत्तर- पूर्व और व्यास नदी से दस मील पश्चिम की ओर और फिर जालंधर पहुंचा।

जालंधर त्रिगर्त राज्य का दूसरा नाम तथा उसकी राजधानी थी। उसके मतानुसार इस राज्य की पूर्व से पश्चिम की 67 मील लंबाई और उत्तर से दक्षिण को 133 मील चौड़ाई थी। अगर ये लंबाई-चौड़ाई किसी कद्र ठीक हो, तो जालंधर राज्य के भीतर उत्तर की ओर से चंबा, पूर्व की ओर से मंडी तथा सुकेत और दक्षिण- पूर्व की ओर से शतद्रु नामक राज्य भी शामिल रहे होंगे।

यदि जालंधर राज्य में चंबा शामिल रहा हो तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि चीनी यात्री ने उस वंश के बारे में कोई वर्णन नहीं किया, जो उस समय चंबा पर राज्य करता रहा। उक्त काल चंबा राज्य की राजधानी ‘भरमौर’ (ब्रह्मपुर) थी। विभिन्न उपलब्ध शिलालखों तथा ताम्रपत्र लेखों से हमें शासकों की निम्नलिखित वंशावली का पता चलता है-

आदित्य वर्मन (सूर्यवंशी), बाला वर्मन, दिवाकर वर्मन, मेरु वर्मन (लगभग 700 ई.)

चूंकि पहले तीन शासकों के संबंध में कोई भी उल्लेख नहीं मिलता, इसलिए यह संभव हो सकता है कि वे सब जालंधर सम्राट के समांत रहे हों और मेरु वर्मन ही एक ऐसा पहला शासक हुआ हो, जिसने अपने वंश को ख्याति प्रदान की। यहां निरमंड (कुल्लू) के ताम्रपत्र लेख का उल्लेख, जो संभवतः समुद्रसेन के गद्दी पर बैठने के छठे वर्ष का है, करना अनुचित न होगा। महासामंत महाराजा समुद्रसेन के उस ताम्रलेख के संबंध में काफी मतभेद रहा है।

त्रिपाठी के विचार में यह लेख हर्षकालीन है, जबकि भंडारकर के अनुसार राजवंश जालंधर के शासकों के अधीन रहा प्रतीत होता है। ताम्र लेख पर छठा वर्ष अंकित है, जो संभवता समुद्रसेन के शासनकाल का छठा वर्ष है। जालंधर देश के साथ हर्ष का कुछ संबंध था या नहीं, इस विषय पर विद्वानों में मतभेद है।

इनके बारे में ह्वेनत्सांग ने लिखा है कि इस देश का एक पर्वतीय राजा बौद्ध धर्म का संरक्षक रह चुका है। उसने बौद्ध धर्म की शिक्षा-दीक्षा लेकर उस धर्म का पूरी तरह से पालन किया। ह्वेनत्सांग ने जालंधर के नगरधन विहार में चंद्र वर्मा नामक एक विद्वान के पास एक माह तक अध्ययन किया।                     — क्रमशः


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