ध्यान में आसन सहज होना चाहिए

By: Nov 18th, 2017 12:05 am

सफलता का दूसरा नाम ही सिद्धि है। भारतीय मनोविज्ञान में ध्यान को चित्त की वृत्तियों के निरोध का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है। मन की अवस्थाएं दो प्रकार की होती हैं-गत्यात्मक व स्थिर। गत्यात्मकावस्था में मन चंचल होता है। स्थिर अवस्था ध्यान की अवस्था है। मनोवृत्तियां भी दो प्रकार की होती हैं-सत् और असत्। असत् में मन चंचल रहता है और सत् में मन शांत रहता है…

तंत्र साधना की सफलता के लिए ध्यान की एकाग्रता की बहुत आवश्यकता है। आध्यात्मिक ज्ञान तो बिना ध्यान के निश्चल हुए कदापि नहीं हो सकता। ध्यानपूर्वक विचार से ही हम किसी वस्तु के मूल स्वरूप और उसकी वास्तविकता को सही रूप में पहचान सकते हैं। यदि हमारा ध्यान इधर-उधर चलायमान रहता है, तो हम किसी भी विषय की गहराई में पैठकर यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर ही नहीं सकते। जिस प्रकार आतिशी शीशे से सूर्य की बिखरी किरणों को एकत्रित करके जब उसे किसी कागज या कपड़े पर फेंका जाता है, तो वह जलने लगता है, बिना एकत्रीकरण के उन बिखरी हुई किरणों में जलाने की सामर्थ्य नहीं होती। इसी प्रकार किसी समस्या विशेष पर गंभीरतापूर्वक विचार करने पर, एकाग्रतापूर्वक मनन करने पर उलझी गत्थियों को भी सरलता से हम सुलझा सकते हैं। हमें समस्या का समाधान मिल जाता है। एकता असीमित सामर्थ्य को एक निश्चित दिशा देती है। यह शक्ति सिद्धि का प्रमुख कारण है।

सफलता का दूसरा नाम ही सिद्धि है। भारतीय मनोविज्ञान में ध्यान को चित्त की वृत्तियों के निरोध का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है। मन की अवस्थाएं दो प्रकार की होती हैं-गत्यात्मक व स्थिर। गत्यात्मकावस्था में मन चंचल होता है। स्थिर अवस्था ध्यान की अवस्था है। मनोवृत्तियां भी दो प्रकार की होती हैं-सत् और असत्। असत् में मन चंचल रहता है और सत् में मन शांत रहता है। मन को एक साथ खाली नहीं किया जा सकता। उसे असत् कल्पनाओं से मुक्त करने के लिए ध्यान की आवश्यकता है। ध्यान का ज्ञान से संबंध बताते हुए कहा गया है कि व्यग्र ज्ञान एकाग्र ध्यान, अर्थात जो चंचल है, वह ज्ञान है और स्थिर ज्ञान ध्यान है। ध्यान जप से भी भिन्न है, जबकि जप में शब्द का उच्चारण होता है, ध्यान में शब्द का उच्चारण नहीं होता। वह मानसिक जप भी नहीं है क्योंकि मानसिक जप में उच्चारण न होते हुए भी पुनरावर्तन होता है। ध्यान में न उच्चारण होता है और न पुनरावर्तन होता है। ध्यान के आरंभ में मन को एक आलंबन पर टिकाया जाना चाहिए।

ध्यान मन का समाधान होता है। इसकी उच्चतम अवस्था को ही जैन दर्शन में समाधि कहा गया है। पातंजलि योगदर्शन में समाधि ध्यान के बाद की अवस्था है। ध्यान के लिए शरीर को स्थिर और शिथिल करने की आवश्यकता है। शरीर श्वास के शिथिल होने से मन शिथिल होने लगता है। अब मन को आलंबन पर लगाया जाना चाहिए। आंखों को अधखुली या मुंदी रखा जाए और यदि वे खुली हों तो नासाग्र पर केंद्रित किया जाए। ध्यान में आसन सहज होना चाहिए, जैसे पद्मासन आदि। साधारणतः जो भी आसन मन को स्थिर रखने में सहायक हो, वही आसन किया जाना चाहिए। फिर ध्यान के आलंबन से ध्याता को एकरूप करने का प्रयास किया जाना चाहिए। यह एकीकरण पूर्णतः हो जाना ही समाधि कहलाता है। साधक पर किसी भी प्रकार का बाहरी दबाव नहीं पड़ता। ध्यान में सफलता प्राप्त करने के लिए आहार भी अल्प व शुद्ध होना चाहिए। ध्यान का स्थान भी सब प्रकार के अनवधान से मुक्त होना चाहिए। ध्यान के लिए शरीर और मन का सब प्रकार के तनावों से उन्मुक्त होना आवश्यक है।


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