निज भाषा में न्याय की वकालत

By: Nov 4th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने केरल में न्यायविदों और न्याय व्यवस्था से जुड़े सभी पक्षों से बातचीत करते हुए कहा कि न्यायालयों को न्याय उन लोगों की भाषा में ही करना चाहिए, जो लोग न्याय पाने के लिए न्यायालय में आते हैं। राष्ट्रपति ने बात तो बहुत माकूल कही है। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि वह स्वयं भी जाने-माने वकील रहे हैं। उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक में वकालत कर चुके हैं, इसलिए इस प्रचलित न्याय व्यवस्था के गली-मोहल्लों को बखूबी जानते हैं…

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने केरल में न्यायविदों और न्याय व्यवस्था से जुड़े सभी पक्षों से बातचीत करते हुए कहा कि न्यायालयों को न्याय उन लोगों की भाषा में ही करना चाहिए, जो लोग न्याय पाने के लिए न्यायालय में आते हैं। राष्ट्रपति ने बात तो बहुत माकूल कही है। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि वह स्वयं भी जाने-माने वकील रहे हैं। उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक में वकालत कर चुके हैं, इसलिए इस प्रचलित न्याय व्यवस्था के गली-मोहल्लों को बखूबी जानते हैं। जाहिर है कि वह इस व्यवस्था के भीतर की कमजोरियों को भी बेहतर तरीके से जानते होंगे। बहुत अरसा पहले किसी ने बेहद सटीक टिप्पणी की थी कि भारत की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि अंग्रेजी में लिखे निर्णय को छाती से लगाकर फांसी के तख्तों पर लटक जाने की व्यवस्था तो यह न्याय प्रणाली किसी के लिए भी कर देती है, लेकिन लटकने वाले व्यक्ति को अपनी भाषा में यह पूछने का अधिकार नहीं देती कि उसे किसलिए फांसी पर लटकाया जा रहा है, उसे यह उसकी अपनी भाषा में समझा दिया जाए। यदि वह मरने से पहले यह समझना ही चाहता है, तो उसे इसके लिए भी पैसे देकर एक अंग्रेजी पढ़े-लिखे वकील की सहायता लेनी पड़ेगी। बहुत साल पहले की बात है। मैं उन दिनों जिला कचहरी में वकालत करता था। गांव में दो जाट आपस में लड़ पड़े और पुलिस ने 107/151 के तहत केस दर्ज कर लिया।

लड़ने वाली दोनों पार्टियां मेरे गांव की ही थीं। उनमें से एक ने मुझे वकील कर लिया और दूसरी पार्टी ने एक वरिष्ठ वकील की सेवाएं लीं। वरिष्ठ वकील ने उन दिनों भी अपने मुवक्किल से डेढ़ हजार रुपए लिए। मैं बड़ी मुश्किल से पांच सौ खींच पाया। मैंने काम भी नया-नया शुरू किया था। लेकिन जब हम दोनों वकील कचहरी में पेश होने लगे, तो उस अनुभवी वरिष्ठ वकील ने मुझे बुलाया और कहा, कहीं कचहरी में जज के सामने हिंदी या पंजाबी में मत बोलना शुरू कर देना। पांच-सात मिनट अंग्रेजी में बोलना। मैंने कहा, बाऊजी यह केस तो 107/151 का है। इसमें बोलना क्या है, इसमें तो जमानत ही होगी। यह बात जज भी जानता है और वकील भी। तब भी वरिष्ठ वकील बोला, जब यह बात वहां पंजाबी में बोलोगे, तो जाट को समझ नहीं आ जाएगा कि इस प्रकार के मामलों में क्या बोलना होता है। और जो बोलना है, वह बिलकुल ही मुश्किल नहीं है। आगे से जाट यह बात जज से खुद ही न कह देंगे? तो फिर मुझे और आपको ये जाट पैसा क्यों देंगे? इसलिए चार-पांच मिनट अंग्रेजी में बोल देना। बात मेरे पल्ले पड़ गई। न्यायालय में जो न्याय मांगने आए हैं, यदि उनकी भाषा में ही बातचीत शुरू कर दी जाए, तो आधे से ज्यादा झगड़े खत्म नहीं हो जाएंगे? यदि झगड़े खत्म होने लगे तो अंग्रेजी भाषा के बल पर न्याय का व्यापार करने वालों की दुकान बंद नहीं हो जाएगी? न्याय की पूरी व्यवस्था में पीडि़त पक्ष को अपनी भाषा में वेदना व्यक्त करने का अधिकार नहीं है। उससे न्याय की प्रक्रिया ही लंबी नहीं खिंचती, बल्कि न्याय मिलने की संभावना भी धूमिल होने लगती है।

अंग्रेजी भाषा की चक्की में पिसता न्याय सभी को दिखाई देता है, लेकिन फिर भी धृतराष्ट्र की तरह आंखों पर जो पट्टी ब्रिटिश हुक्मरान बांध गए थे, उसे उतारने की हिम्मत कोई नहीं करता। उसका भी कारण है। वह पट्टी उतार देने से ब्रिटिश व्यवस्था की सारी दीवारें हिलने लगती हैं। एक दीवार हिलती है, तो दूसरी की नींव भी हिलने लगती है। अब तक की सरकारें, इस देश में ब्रिटिश विरासत को संभाल कर उसी के आधार पर देश के विकास का प्रयास करती रही हैं। बंदरिया के मरे बच्चे वाला दृश्य था। उससे देश का विकास तो हुआ होगा, लेकिन देश का आम आदमी सरकार के साथ भावनात्मक लिहाज से जुड़ नहीं पा रहा था। लोकतंत्र तो आया, लेकिन उसके साथ लोक की भाषा नहीं आई। ब्रिटिश व्यवस्था ने जन भाषा को जन तंत्र में घुसने नहीं दिया। नौकरशाही ब्रिटिश विरासत को संभालने में लगी रही, क्योंकि उसको इसी से फायदा था और लोकशाही नौकरशाही से दबने लगी थी। कारण वही अंग्रेजी भाषा थी, जिसमें नौकरशाही दहाड़ती थी, तो लोकशाही सहम जाती थी। पहली बार देश के राष्ट्रपति ने ब्रिटिश विरासत की संस्कृति और व्यवस्था के ठीक मध्य में खडे होकर कहा कि भाई लोगो, आम लोग की भाषा में भी आम आदमी से बातचीत कर लिया करो। तभी तो आम आदमी को लगेगा कि यह न्याय व्यवस्था उसकी अपनी है।

यह स्थिति केवल न्याय व्यवस्था की ही नहीं है। शिक्षा व्यवस्था में तो और भी बुरी स्थिति है। न्याय व्यवस्था में प्रचलित विदेशी भाषा के कारण उन लोगों को ही नुकसान होता है, जो न्याय पाने के लिए कचहरी की शरण में जाते हैं। उनकी संख्या देश की कुल जनसंख्या के मुकाबले नगण्य ही है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था में तो प्रत्येक बच्चे को दाखिल होना ही है। वहां अंग्रेजी भाषा का अखंड साम्राज्य अभी भी विद्यमान है। व्यवस्था के अंदर घुसते ही छात्र की सारी ऊर्जा, मेधा और मौलिकता यह विदेशी भाषा ही चूस लेती है। ऐसा भी नहीं है कि राष्ट्रपति के कहने मात्र या केवल इच्छा जाहिर कर देने से न्याय व्यवस्था या शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन आ जाएगा और भारत का गणतंत्र भारतीय भाषाओं में बोलना शुरू कर देगा। इसका भी एक बड़ा कारण है। न्याय व्यवस्था के नायक और शिक्षा व्यवस्था पर गेंडुली मार कर बैठे लोग उसी व्यवस्था में पले-बढ़े हैं, जिस व्यवस्था की नींव विदेशी भाषा अंग्रेजी पर खडी है। इसी व्यवस्था ने इन्हें इस मुकाम पर पहुंचाया है। इसी व्यवस्था ने इन्हें अपने-अपने क्षेत्र में यश प्रदान किया है।

अब हम इन्हीं से आशा कर रहे हैं कि वे इस व्यवस्था को बदलें। जिस व्यवस्था ने इन्हें मान-सम्मान दिया और शिखर पर लाकर बिठा दिया, वे इस व्यवस्था को कैसे बदलने दे सकते हैं? क्योंकि व्यवस्था बदलने से ये स्वयं शून्य हो जाएंगे और नई भारतीय व्यवस्था से निकले लोग इनका स्थान ले लेंगे। इस व्यवस्था को बनाए रखने में इनका अपना निहित स्वार्थ है। यही कारण है कि जब भारतीय भाषाओं पर आधारित व्यवस्था की बात आती है, तो सबसे ज्यादा यही लोग चिल्लाते हैं कि भारतीय भाषाएं इसके योग्य नहीं हैं। इस बदलाव के विचार मात्र से उनका कलेजा दुखने लगता है। यह तर्क इनके अपने भय में से उपजता है, क्योंकि ये स्वयं भारतीय भाषाओं में काम करने योग्य नहीं हैं। इसलिए यदि हमें सचमुच पूरी व्यवस्था को भारतीयता के अनुरूप ढालना है, तो दूरगामी योजना बनानी होगी।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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