पद्मावती के बहाने इतिहास में दखल

By: Nov 26th, 2017 12:05 am

इतिहास के अनुसार रानी पद्मावती ने अपने पति राजा रतन सिंह के बंदी हो जाने के बाद मर्यादा को ध्यान में रखते हुए चित्तौड़ की अनेक वीरांगनाओं के साथ जौहर कर लिया था। प्रदर्शनकारी यह भी कह रहे हैं कि रानियां कभी नृत्य नहीं करती थीं। इस ऐतिहासिक तथ्य के विपरीत जाकर फिल्म बनाने (जैसा कि आरोप लग रहा है) से समुदाय विशेष अब आंदोलित है और वह ऐसे विवादास्पद दृश्यों को हटाने की मांग कर रहा है…

साहित्य से जुड़ा एक परंपरागत प्रश्न नए रंग-रूप व संदर्भ के साथ फिर जीवित हो उठा है। कला, कला के लिए है या फिर जीवन के लिए, यह प्रश्न साहित्य सृजन के उद्बोधन काल से ही पूछा जाता रहा है। इस पर वाद-विवाद और गहन चिंतन भी समय-समय पर होता रहा है। इस प्रश्न पर विचारक व चिंतक लगभग दो खेमों में बंटे देखे जा सकते हैं।  पहला खेमा वह है जो कला को कला के लिए मानता है और उसे सृजन की असीमित छूट देता है। दूसरा पक्ष वह है जो कला को जीवन के लिए मानता है और विचार प्रकट करता है कि मानव जीवन से जुड़े कई विषय प्रतिबंधक के रूप में काम करते हैं और सृजन को व्यावहारिक सीमाओं में रखते हैं।  यह खेमा सृजन की स्वच्छंदता उसी सीमा तक देता है जिस सीमा तक कोई कृति मानव मूल्यों तथा सामाजिक सीमाओं का सम्मान करती है। इस परंपरागत प्रश्न को विवाद बन चुकी हिंदी फिल्म पद्मावती के प्रसंग में इस तरह पूछा जा रहा है कि अभिव्यक्ति अथवा साहित्य, जिसमें फिल्म निर्माण भी शामिल है, का इतिहास में कितना दखल होना चाहिए।  भारतीय चिंतन बताता है कि कला के संपूर्ण विकास के लिए अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। तभी कोई कला संपूर्णता की पराकाष्ठा तक पहुंच सकती है। इसका यह अर्थ है कला, कला के लिए होनी चाहिए। अगर उसे जीवन से जोड़ दिया गया, तो सृजन की स्वतंत्रता सीमित हो जाएगी और कला अपना संपूर्ण विकास नहीं कर पाएगी। मानव जीवन से जुड़े मूल्यों व सामाजिक सीमाओं के दायरे में कला को लाकर हम एक तरह से स्वतंत्र विषय को बंधक बना लेंगे। कला का संपूर्ण विकास न होने से मानव जीवन व समाज को भी हानि ही होगी।  इसके बावजूद भारतीय चिंतन (यहां तक कि उदारवादी पाश्चात्य चिंतन भी) कहता है कि चूंकि मानव एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज में रहकर ही जन्म लेता है, वहीं पलता-बढ़ता है, इसलिए मानव जीवन व सामाजिक व्यवस्था को कला से अलग नहीं किया जा सकता है। कला को जीवन व समाज से अलग कर देने के कारण वह उच्छृंखल हो जाएगी जिससे समाज के साथ-साथ कला को भी नुकसान होगा। अतः सकारात्मक ढंग से सोचें तो कला को भी सामाजिक व मानवतावादी स्वरूप को अंगीकार करना चाहिए। उसे मानव मूल्यों व सामाजिक सीमाओं का सम्मान करना चाहिए। तभी कला का जीवन को लाभ मिल पाएगा। इसी के साथ कला का भी सकारात्मक ढंग से विकास हो पाएगा। वास्तव में कला लक्ष्यविहीन नहीं हो सकती, उसे मानव जीवन के विकास के लिए काम करना चाहिए। तभी कला की सार्थकता है, अन्यथा वह एक बेलगाम चीज बनकर अनुपयोगी हो जाएगी। व्यावहारिक स्तर पर देखें, तो लगभग सभी देशों ने अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति का अधिकार दे रखा है, पर साथ ही उस पर कुछ औचित्यपूर्ण प्रतिबंध भी लगा रखे हैं।  वास्तव में मानव जब सामूहिक रूप से एक समाज में रहता है, तो सामाजिक हित के लिए इस तरह की पाबंदियां भी लगानी पड़ती हैं। व्यावहारिक स्तर पर अभिव्यक्ति, साहित्य अथवा कला को यह पूर्ण आजादी नहीं है कि वह सामाजिक मान-मर्यादाओं से छेड़छाड़ करे। कला अथवा साहित्य को अभिव्यक्ति की आजादी उसी सीमा तक है जिस सीमा तक वह सामाजिक व्यवस्था, नैतिकता तथा शांति-कानून के साथ चलती है। वास्तव में किसी दूसरे को हानि पहुंचाने का हक अथवा आजादी तो हो ही नहीं सकती। कोई व्यक्ति उसी सीमा तक अपने विचार प्रकट कर सकता है, जिस सीमा में दूसरे के लिए कोई नुकसान न पहुंचे।  इस सामाजिक सार को देखें तो संजय लीला भंसाली से संवाद की चूक हुई है। तभी तो उनकी फिल्म पद्मावती को लेकर इतना हंगामा बरपा है। कई राज्यों में इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई है।  कई दलों के नेता भी इसके विरोध में उतर आए हैं। आरोप है कि इसमें रानी पद्मावती को नाचते दिखाया गया है, जो कि इतिहास के विपरीत है। इतिहास के अनुसार रानी पद्मावती ने अपने पति राजा रतन सिंह के बंदी हो जाने के बाद मर्यादा को ध्यान में रखते हुए चित्तौड़ की अनेक वीरांगनाओं के साथ जौहर कर लिया था। प्रदर्शनकारी यह भी कह रहे हैं कि रानियां कभी नृत्य नहीं करती थीं। इस ऐतिहासिक तथ्य के विपरीत जाकर फिल्म बनाने (जैसा कि आरोप लग रहा है) से समुदाय विशेष अब आंदोलित है और वह ऐसे विवादास्पद दृश्यों को हटाने की मांग कर रहा है।  यह भी जानने योग्य है कि संजय लीला भंसाली की ‘जोधा अकबर’ और ‘बाजीराव मस्तानी’ के निर्माण के दौरान संवाद के जरिए विवाद उठने से पहले ही सुलझा लिया गया था। दुर्भाग्य है कि इस बार इस तरह का संवाद देखने को नहीं मिला। इससे इतर देखें, तो भारतीय सिनेमा व विश्व सिनेमा में कई बार ऐसे अवसर आए हैं, जब इतिहास से छेड़छाड़ के आरोप में कई फिल्मों का जबरदस्त विरोध हुआ है। विरोध के बाद कई बार विवादास्पद दृश्य हटाए भी गए हैं। पद्मावती के प्रसंग में यही कहा जा सकता है कि फिल्म निर्देशक प्रदर्शनकारियों को जरूर विश्वास में लें और समुदाय विशेष की भावनाओं का सम्मान करें। तभी इस बवंडर को शांत किया जा सकता है। वास्तव में अभिव्यक्ति के समय इतिहास व कल्पना का सामंजस्य ध्यानपूर्वक व संवेदनशील होकर बैठाया जाना चाहिए। तभी समाज में शांति व व्यवस्था बनी रहेगी। कला के नाम पर अगर बार-बार बखेड़ा खड़ा होने लगे, तो उस पर संवेदनशील होकर चिंतन करने की जरूरत है। किसी की आस्था व विश्वास को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। …और यह भी कि आस्था का आधार तर्क नहीं, बल्कि भावना होती है।                                                                           -राजेंद्र ठाकुर


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