‘पद्मावती’: नाक की लड़ाई !

By: Nov 20th, 2017 12:05 am

इस सप्ताह कई मुद्दे हैं। भारत की अर्थव्यवस्था की नई अंतरराष्ट्रीय रेटिंग सामने आई है। राम मंदिर का मुद्दा भी नए सिरे से गरमा रहा है। गुजरात में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया और प्रचार खूब आक्रामक हैं। लेकिन संजय लीला भंसाली की नई फिल्म ‘पद्मावती’ पर तो शहर-दर-शहर सुलग उठे हैं। फिल्म अभी प्रदर्शित भी नहीं हुई, सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र अभी मिलना शेष है, लेकिन देश के कई हिस्सों में लट्ठमलठ जारी है। उत्तेजना और आक्रोश इस हद तक पहुंच गए हैं कि भंसाली का सरकलम करने पर पांच करोड़ रुपए का इनाम घोषित किया गया है। यह इनाम राजस्थान की करणी सेना या उसके समर्थकों ने तय किया है, यह दीगर बात है, लेकिन सवाल यह है कि हम लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं या किसी गुंडा, माफियास्तान में बसे हैं? ‘पद्मावती’ बेशक एक इतिहास हैं, राजपूताना और मेवाड़ का सम्मान उनकी कहानी से जुड़ा है। राजस्थान में पद्मावती को ‘देवी’ की तरह पूजा जाता है। मेरा दावा है कि 1540 के आसपास सूफी काव्य परंपरा के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य ‘पद्मावत’ की जो रचना मलिक मोहम्मद जायसी ने की थी, आज राजपूताना गरिमा, संस्कृति पर हिंसक हुई भीड़ ने वह महाकाव्य पढ़ा भी नहीं होगा। ‘पद्मावत’ हिंदी साहित्य के महानतम महाकाव्यों में शामिल है। उसका कथ्य भी अलाऊद्दीन खिलजी और महारानी पद्मावती के अप्रत्यक्ष, अदृश्य, काल्पनिक प्रेम, आकर्षण और महारानी के जौहर पर आधारित है, लेकिन इस महारचना पर कोई दंगा-फसाद या किसी के सरकलम अथवा अभिनेत्री की नाक काट देने की घटनाएं सामने नहीं आईं। कमोबेश जायसी को निशाना नहीं बनाया गया। जायसी साहित्यिक तौर पर सूफीवाद के ‘कबीर’ माने जाते रहे हैं। दक्षिण भारत में पद्मावती पर फिल्म बनी, जिसमें वैजयंती माला ने महारानी का किरदार निभाया। वैजयंती एक प्रख्यात नृत्यांगना भी रही हैं, लिहाजा फिल्म में नृत्य के दृश्य भी थे। तब किसी भी करणी सेनाई गुंडे ने नाक काटने की धमकी नहीं दी, जैसी दीपिका पादुकोण को दी गई है। हिंदी सिनेमा में ही ‘चित्तौड़ की महारानी पद्मावती’ और ‘रानी पद्मिनी’ सरीखी फिल्में बन चुकी हैं। वे भी रचनात्मकता की मिसाल रही हैं और मौजूदा फिल्म भी एक रचनाकार की रचना है। वह शुद्ध रूप से इतिहास नहीं हो सकती। रचना में यथार्थ के साथ-साथ कल्पना, फेंटेसी आदि भी अनिवार्य होते हैं। नहीं तो गद्य और पद्य में आस्वादन का फर्क क्या होगा? बेशक भंसाली विवादास्पद फिल्मकार रहे हैं। उनकी अन्य फिल्मों पर भी विवाद और हंगामे मचते रहे हैं, लेकिन उनके सशक्त, कल्पनाशील सृजन से इनकार नहीं किया जा सकता। भंसाली ने अच्छा किया कि कुछ चुनिंदा पत्रकारों को फिल्म दिखाई, क्योंकि उससे एक रचनात्मक सच भी सामने आया है। भंसाली ने खिलजी को एक हत्यारे, कामुक, पतित और बलात्कारी बादशाह के रूप में चित्रित किया है। उसे समलैंगिक भी बताया गया है, लेकिन खिलजी और पद्मावती के, कल्पना में भी, आपत्तिजनक और अंतरंग संबंधों का एक भी दृश्य नहीं है। फिल्म में घूमर नृत्य भी दीपिका ने बहुत खूबसूरती से निभाया है, जिसमें अश्लीलता तो बहुत दूर की बात है, अंगप्रदर्शन तक नहीं है। ऐसे नृत्य राजस्थान की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। घर-परिवार में किसी विशेष अवसरों पर ऐसे नृत्य आम देखे जा सकते हैं। तो फिर करणी सेना के ‘तालिबानों’ को क्या आपत्ति है। मान सकते हैं कि रानी पद्मिनी या उस दौर की महिलाएं सार्वजनिक तौर पर ऐसा नृत्य नहीं करती होंगी, लेकिन यह फिल्म है, कोई ऐतिहासिक वृत्तचित्र नहीं है। कमोबेश एक रचनाकार को इतनी छूट तो दी जानी चाहिए। बहरहाल यह देश ‘तालिबान’ नहीं हो सकता। देश के हर नागरिक को संविधान में मौलिक अधिकार दिए गए हैं। उनमें बोलने, लिखने और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार भी है। ‘पद्मावती’ के प्रदर्शन पर अंतिम निर्णय सेंसर बोर्ड का होगा। वह एक संवैधानिक संस्था है। चीखने, धमकियां देने और भारत बंद के खोखले जुमले उछालने से न तो भारत डरता है और न ही यहां की व्यवस्था। सरकलम और नाक काट देने के ऐलान आपराधिक हैं, लिहाजा किसी भी अपराध के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री इस संदर्भ में ‘पक्ष’ न बनें, क्योंकि किसी ने भी फिल्म नहीं देखी है। यदि इतिहास और काल के गर्त में प्राचीन अतीत हो चुकी पद्मावती की आन, बान, शान महत्त्वपूर्ण है, तो अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की जिंदगी और बतौर नागरिक उनकी अस्मिता भी अनमोल है। उसके सम्मान से भी खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।


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