‘पद्मावती’ विवाद के सबक

By: Nov 15th, 2017 12:05 am

देवेंद्रराज सुथार

लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

साहित्य की तरह फिल्में भी समाज का आईना होती हैं। जैसे साहित्यकार ऐतिहासिक रचना में कुछ नवीन मौलिकताएं लाता है, उसी प्रकार फिल्म निर्देशक भी अपनी फिल्मों में कुछ नया दिखाना चाहता है। साहित्यकारों की ये नवीन कल्पनाएं देश, काल और परिस्थिति के अनुकूल होती हैं और समाज के हित में होती हैं। साहित्यकारों से सीख लेते हुए फिल्म निर्देशकों को भी इतिहास और अपनी कल्पना का समन्वय करते समय ध्यान रखना चाहिए कि उनकी नवीन कल्पनाएं समाज के हित में हों, न कि समाज में नफरत व अलगाव की भावना फैलाने के लिए…

संचार क्रांति के वर्तमान युग में ऐसा कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि सिनेमा, समाज का दर्पण है। उदाहरण के लिए अभी हाल ही में रिलीज हुई दंगल, सुल्तान में जहां एक ओर हरियाणा की सामाजिक संरचना को बहुत ही सूक्ष्म तरीके से बड़े पर्दे पर उकेरा गया, वहीं पिंक, पार्च्ड जैसी फिल्मों में महिलाओं के प्रति हो रहे लैंगिक भेदभाव का मार्मिक अंकन किया गया। यदि बात संजय लीला भंसाली की की जाए, तो हम पाते हैं कि ये बालीवुड के सफल निर्देशक हैं। इन्होंने हम दिल दे चुके सनम, देवदास, ब्लैक, गोलियों की रासलीला-रामलीला, बाजीराव मस्तानी जैसी सफल फिल्मों का निर्देशन किया है। हालांकि देवदास, बाजीराव मस्तानी में इनके ऊपर इतिहास से छेड़छाड़ करने के आरोप पहले भी लगे हैं और अब अपनी फिल्म पद्मावती को लेकर विवादों में घिरे हुए हैं। पद्मावती फिल्म के विवाद की मुख्य वजह यह बताई जा रही है कि इन्होंने रानी पद्मावती के आदर्श राजपूत नारी के व्यक्तित्व से छेड़छाड़ कर फिल्म में उनके आदर्श चरित्र से विचलन दिखाया है।

राजपूत समाज और राज परिवार की क्षत्राणियों का कहना है कि फिल्म में रानी पद्मावती को अलाउद्दीन खिलजी के सपने में दिखाया गया है। इसमें सोलह हजार रानियों के साथ जौहर करने वाली रानी को नर्तकी के तौर पर पेश कर उनके सतीत्व का अपमान किया गया है। साथ ही राजपूती पोशाक का गलत रूप दिखाया गया है। इन सभी वजहों को लेकर राजपूत समाज के लोगों में फिल्म को लेकर काफी आक्रोश देखने को मिल रहा है। राजस्थान सहित देश के कई राज्यों में फिल्म का विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गया है। गौरतलब है कि फिल्म पद्मावती को सेंसर बोर्ड ने रिलीज करने की अनुमति दे दी है। आगमी महीने की पहली दिसंबर को फिल्म का रिलीज होना तय है। इसके उपरांत राजपूत समाज ने फिल्म रिलीज होने से पहले स्क्रीनिंग पर दिखाने की मांग की है, वहीं फिल्मकार संजय लीला भंसाली ने एक वीडियो के माध्यम से फिल्म में किसी की भावनाएं आहत होने से साफ इनकार किया है। दरअसल, यह भी सच है कि विवादों में रहने वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट हो जाती हैं।

इन्हें विदेशों में भी भारी संख्या में देखा और पसंद किया जाता है। इन सब से बेगैरत कुछ उद्दंड लोगों का गिरोह सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन के लिए हर समय उतावला दिखता है। अब जहां तक रानी पद्मावती की कहानी की बात है, तो उसे जानने के लिए हमारे पास ऐतिहासिक स्रोत तो हैं ही। साथ ही मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्मावत’ जैसा प्रामाणिक साहित्यिक स्रोत भी है। यदि इतिहास पर गौर करें तो हम पाते हैं कि रानी पद्मावती सिंघल द्वीप के राजा गंधर्वसेन और रानी चंपावती की पुत्री थी। रानी पद्मिनी बचपन से ही बहुत सुंदर थीं। बेटी के बड़ी होने पर उसके पिता ने रिवाज के अनुसार उसका स्वयंबर आयोजित किया। इस स्वयंबर में उसने सभी हिंदू राजाओं और राजपूतों को बुलाया। चित्तौड़गढ़ के राजा रतन सिंह भी स्वयंबर में गए थे। राजा रतन सिंह (भीम सिंह) ने स्वयंबर जीता और पद्मिनी से विवाह किया। विवाह के बाद पद्मिनी के साथ वापस चित्तौड़ लौट गए। एक अच्छे शासक और पति होने के अलावा रतन सिंह कला के संरक्षक भी थे।

उनके दरबार में कई प्रतिभाशाली लोग थे, जिनमें से राघव चेतन संगीतकार भी एक था। राघव चेतन एक जादूगर भी हैं, इस बारे में लोगों को पता नहीं था। वह अपनी प्रतिभा का उपयोग शत्रु को मार गिराने में करता था। कहा जाता है कि एक दिन राघव चेतन का बुरी आत्माओं को बुलाने का काम चल रहा था और वह रंगे हाथों पकड़ा गया। इस बात का पता चलते ही रावल रतन सिंह ने उसे अपने राज्य से निकाल दिया। रतन सिंह की इस सजा के कारण राघव चेतन उसका दुश्मन बन गया। अपने अपमान का बदला लेने के लिए राघव चेतन दिल्ली चला गया। उस समय दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था। राघव चेतन ने सुल्तान से रानी पद्मिनी की सुंदरता का बखान किया, जिसे सुनकर खिलजी के भीतर रानी पद्मिनी से मिलने की इच्छा जगी। राघव चेतन से तारीफ सुनने के बाद बेचैन सुल्तान खिलजी रानी पद्मिनी की एक झलक पाने को बेताब था। चित्तौड़गढ़ किले की घेरेबंदी के बाद खिलजी ने राजा रतन सिंह को यह कहकर संदेशा भेजा कि वह रानी पद्मिनी को अपनी बहन समान मानता है और उससे मिलना चाहता है, लेकिन रानी तैयार नहीं थी। रानी ने एक शर्त रखी। रानी पद्मिनी ने कहा कि वह अलाउदीन को पानी में परछाईं में अपना चेहरा दिखाएंगी। जब अलाउदीन को ये खबर पता चली कि रानी पद्मिनी उससे मिलने को तैयार हो गई हैं, वह अपने कुछ सैनिकों के साथ किले में गया। रानी पद्मिनी की सुंदरता को पानी में परछाईं के रूप में देखने के बाद अलाउदीन खिलजी ने रानी पद्मिनी को अपना बनाने की ठान ली।

वापस अपने शिविर में लौटते वक्त अलाउदीन खिलजी के साथ रतन सिंह भी थे। इस दौरान खिलजी के सैनिकों ने आदेश पाकर और मौका देखकर रतन सिंह को बंदी बना लिया। रतन सिंह की रिहाई की शर्त थी पद्मिनी। गोरा और बादल की बहादुरी और चालाकी से राजा रतन सिंह को खिलजी की कैद से मुक्त करवाया गया। अपने को अपमानित महसूस करते हुए सुल्तान ने गुस्से में आकर अपनी सेना को चित्तौड़गढ़ किले पर आक्रमण करने का आदेश दिया। रतन सिंह की सेना खिलजी की सेना के समक्ष बहुत छोटी थी, परंतु राजपूतों ने बहादुरी से अपने प्राणों की अंतिम सांस तक खिलजी के लड़ाकों का सामना किया और खुद रतन सिंह भी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यह सूचना पाकर रानी पद्मावती ने चित्तौड़ की औरतों से कहा कि अब हमारे पास दो विकल्प हैं। या तो जौहर कर लें या विजयी सेना के समक्ष अपना निरादर सहें। एक विशाल चिता जलाई गई और रानी पद्मिनी के बाद चित्तौड़ की सारी औरतें उसमें कूद गईं और इस प्रकार दुश्मन बाहर खड़े देखते रह गए। जिन महिलाओं ने जौहर किया, उनकी याद आज भी लोकगीतों में जीवित है।

यदि हम साहित्यिक स्रोत जायसी के पद्मावत का अध्ययन करें, तो भी हमें उपयुक्त जानकारी ही प्राप्त होती है। जायसी ने एकमात्र परिवर्तन किया है, रत्नसेन की मृत्यु को लेकर। जायसी के अनुसार रत्नसेन अलाउद्दीन से युद्ध करते हुए नहीं, बल्कि देवपाल से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त होते हैं। जायसी ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि जायसी अलाउद्दीन के हाथों रत्नसेन को मरने नहीं देना चाहते थे। ऐसा करने का अर्थ खलनायक के हाथों नायक की मौत दिखाना होता। वैसे भी पद्मावत इतिहास नहीं, साहित्य है और साहित्य का निर्माण तथ्यों से नहीं, कल्पनाओं से होता है। साहित्य की तरह फिल्में भी समाज का आईना होती हैं। जिस प्रकार साहित्यकार ऐतिहासिक रचना में कुछ नवीन मौलिकताएं लाता है, उसी प्रकार फिल्म निर्देशक भी अपनी फिल्मों में कुछ नया दिखाना चाहता है।  ध्यातव्य है कि साहित्यकारों की ये नवीन कल्पनाएं देश, काल और परिस्थिति के अनुकूल होती हैं और समाज के हित में होती हैं। साहित्यकारों से सीख लेते हुए फिल्म निर्देशकों को भी इतिहास और अपनी कल्पना का समन्वय करते समय ध्यान रखना चाहिए कि उनकी नवीन कल्पनाएं समाज के हित में हों, न कि समाज में नफरत व अलगाव की भावना फैलाने के लिए। संजय लीला भंसाली को भी यदि इतिहास का उपयोग करके फिल्में बनानी हैं, तो उनको चाहिए कि इसमें सकारात्मक दृष्टिकोण से कल्पनाओं को जोड़ना चाहिए। ऐसी कल्पनाएं जो मानव सभ्यता के लिए विकास का प्रतिमान स्थापित करें।


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