पहाड़ी भाषा में है विपुल सृजन की जरूरत

By: Nov 19th, 2017 12:05 am

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने डॉ. शंकरलाल वासिष्ठ के कविता संग्रह ‘स्पंदन’ की पड़ताल की तो काव्य के कई पहलू सामने आए…

कुल पुस्तकें           :           14

कुल पुरस्कार         :           20

कुल शोध              :           04

साहित्य सेवा          :         41 वर्ष

प्रमुख किताबें         : दो कविता संग्रह- स्पंदन व दोटूक, इसके अलावा कई पुस्तकों का संपादन

जब रू-ब-रू हुए…

दिहि : ‘स्पंदन’ के माध्यम से आडंबरों पर चोट लकीर के फकीर समाज को कितना बदल पाएगी?

डॉ. वासिष्ठ : यद्यपि पाठकों का अभाव है, पर जहां मानवीय सोच बाहरी आडंबरों व भौतिक विकास के माध्यम से अपने सामाजिक-स्तर के अस्तित्व निर्माण में व्यस्त और त्रस्त है और परिणामतः निराश है, अवश्य लेखनी की धार उसे आशा की किरण दिखाएगी और बदलाव भी आएगा। इतिहास इस बात का साक्षी है।

दिहि : ‘लादेन’ नामक कविता में वर्णित आतंक के विकृत चेहरों को क्या कलम के माध्यम से काबू किया जा सकता है?

डॉ. वासिष्ठ : आतंक के विकृत चेहरे अभी तक तो अपना साम्राज्य व अय्याशी का कभी न सुलझने वाला जाल बिछाते रहे, परंतु अनायास ही सभी बारूद के ढेर पर बैठ गए। अंततोगत्त्वा सभी को अपना भय सताने लगा है। अतः जिस दिन बारूद के धर्म का विध्वंसक परिणाम उनके मस्तिष्क में आ जाएगा, स्वतः अंकुश लगना प्रारंभ हो जाएगा।

दिहि : सत्ता के भूखे नेताओं की ‘बेशर्म श्वानों की टोली’ से तुलना कितनी जायज है?

डॉ. वासिष्ठ : वस्तुतः सत्ता की क्षुधा इतनी प्रबल और अंधी है कि इसका इच्छुक मानवीय संवेदनाओं को तिलांजलि व समस्त मान-मर्यादाओं को दरकिनार कर कुर्सी के पीछे भागता है। उसकी यह दुर्दशा कामासक्त श्वानों सदृश हो जाती है। तुलना मेरे विचार में पूर्ण रूप से तर्कसंगत है।

दिहि : मां शूलिनी, ठाकुर रवींद्रनाथ, डॉ. यशवंत परमार व लाल चंद प्रार्थी पर कविताएं लिखने की उपादेयता क्या है?

डॉ. वासिष्ठ : मां शूलिनी के प्रति अपार जनसमूह की श्रद्धा व स्थानीय लोगों का जनसमूह के प्रति आतिथ्य-भाव कहीं न कहीं हमारी श्रेष्ठ संस्कृति का स्मरण करवाता है जो आज कल्पना लगता है। ठाकुर रवींद्रनाथ, डॉ. यशवंत सिंह परमार, लाल चंद प्रार्थी की उपादेयता आज अधिक प्रासंगिक और स्मरण करने योग्य है। रवींद्र ने नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर देश-विदेश में भारत की प्रतिष्ठा को बढ़ाया है, उनके सुकृत्यों से संसार भारत की ओर आकर्षित हुआ है। स्व. डॉ. यशवंत परमार हिमाचल के निर्माता के रूप में स्मरण करने योग्य हैं। उनकी दूरदर्शी सोच व प्रदेश के निर्माण की कल्पना किसी से छुपी नहीं है। उनका सारल्य, त्याग व कर्मठता आज मील का पत्थर है जो अनुकरणीय है। स्व. लाल चंद प्रार्थी समस्त संपन्न रहे हैं, कवि भी थे, संगीतज्ञ भी, आयुर्वेद के ज्ञाता और मानवीय संवेदना के प्रति जागरूक भी थे। महानुभावों की उपादेयता सदा रहती है।

दिहि : ‘मेरा गांव’ में गांव से पलायन की उभरी टीस को कैसे मरहम लगाया जा सकता है?

डॉ. वासिष्ठ : मेरा गांव में पलायन की टीस पर मरहम तभी लग सकता है जब शहरों और कस्बों में मिलने वाली समस्त सुविधाओं का मुख गांव की ओर होगा, क्योंकि सुविधाओं का अभाव ही तो उन्हें सालता है।

दिहि : आपके लिए ‘खूबसूरत जिंदगी’ के क्या मायने हैं?

डॉ. वासिष्ठ : खूबसूरत जिंदगी के मायने अपेक्षा रखते हैं स्वस्थ चिंतन, कुंठारहित जीवन, जीवनोपयोगी साधन संपन्नता, संतोष व बोझरहित जिजीविषा की। सकारात्मक सोच व सर्वजन हिताय का ध्येय लेकर जिंदगी स्वतः खूबसूरत बन जाती है।

दिहि : ‘विपाशा’ में नदी का घुटने टेक देना पाठक को किस तरह का एहसास दिलाता है?

डॉ. वासिष्ठ : विपाशा रोहतांग उपत्यका से निकलती है, ऋषि व्यास कुंड से छोटा सा नल शैशव काल का स्मरण करवाता है। शनैः शनैः पानी की धारा चलती है, आनंदित करती है, मन मोहती है, मानो बालक अठखेलियां करता, लुढ़कता-मचलता नीचे की ओर ओर उतर रहा है। वहीं मनाली के पास नदी यौवन को प्राप्त हो जाती है और उसका उग्र यौवन न जाने कितने प्राणियों को लील जाता है। लेकिन उपत्यका पर उसके बाल्य काल का एहसास होता है।

दिहि : एक ओर ‘द्वंद्व’ का लिप्साग्रस्त मानव, दूसरी ओर भारतीय समाज में ढोंगी बाबाओं की मौजूदगी, ऐसी स्थिति में कैसे मिलेगा आध्यात्मिक मोक्ष?

डॉ. वासिष्ठ : इसमें कोई संदेह नहीं कि आज मानव अंतहीन लिप्सा में लीन है। भौतिक विकास के माध्यम से अपनी स्वार्थ पूर्ति ही उसका अभीष्ट है। नैतिकता का ह्रास हो रहा है। इस ह्रास के कारण आज मानव सब कुछ होते हुए भी नैराश्य भाव में जीवनयापन कर रहा है क्योंकि वह अपने दुःखों से दुःखी नहीं, अपितु दूसरों के सुखों से पीडि़त है, डाह से जल-भुन रहा है। अतीत में हम नैतिकता संपन्न थे व संतुष्ट थे। हमारा धन त्याग, तपस्या व बलिदान था जो आज दूर की कौड़ी हो गया है। व्यथित समाज ढोंगी बाबाओं के चक्कर में परमानंद की स्थिति को प्राप्त करने में लगा है। गुरु अज्ञान व ज्ञान के बीच का सेतु है, अंधकार और प्रकाश के बीच का सेतु  है, पर ढोंगी बाबाओं ने ऐसी रचना रची कि समाज गुरु रूपी सेतु को ही सब-कुछ समझ बैठा और सेतु पर ही ठहर गया। फलतः परमानंद से कोसों दूर हो गया। आज आवश्यकता है ढोंग से हटकर सत्य की ओर जाने की। श्रद्धा और आस्था के साथ-साथ तर्कसंगत होने की, तभी हम मुमुक्षु बन सकते हैं क्योंकि मानव को ईश्वर ने दिमाग दिया है।

दिहि : ‘परंपरा’ में बांस की टीस समझ में आती है, लेकिन सही अर्थों में बुराई पर अच्छाई का साम्राज्य कब स्थापित होगा?

डॉ. वासिष्ठ : परंपरा में बांस की टीस के माध्यम से एक संदेश समाज को है कि महान विद्वान, सर्वगुण संपन्न एवं शक्तिशाली व्यक्ति भी अगर कोई कुकृत्य करता है तो उसका वही हश्र होता है जो रावण का हुआ था। दशहरे में हम प्रतिवर्ष न जाने कितना बांस फूंक डालते हैं, परंतु आज सामाजिक प्रवृत्तियां रावण से कम नहीं हैं, हमारे आचरण में कोई परिवर्तन नहीं है, हम भी वही कर रहे हैं जो रावण ने किया। ऐसे में सब कुछ निरर्थक हो जाता है। बुराई पर अच्छाई का साम्राज्य तभी होगा, जब हम मनाए जाने वाले उत्सवों से सीख लेंगे, आचरण करेंगे और सद्गुणों को आत्मसात करेंगे।

दिहि : ‘विधान व गरीब’ नामक कविता में मुखर यथार्थ की छाया से छुटकारे के लिए किस तरह के शासक वर्ग की जरूरत है?

डॉ. वासिष्ठ : विधान व गरीब कविता में मुखर यथार्थ की छाया से छुटकारा पाने के लिए राष्ट्र को आवश्यकता है ऐसे संवेदनशील शासकों की जो समाज कल्याणार्थ योजनाओं का कर्त्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी व पक्षपात रहित रहकर कार्यान्वयन करें। हालांकि राजनीतिक पूर्वाग्रह और स्वार्थी परिवेश में आज यह असंभव है। इसके लिए दृढ़ संकल्प व निर्भीकता का वातावरण बनाना पडे़गा।

दिहि : कोई ऐसी साहित्यिक कृति, जिसमें छिपा दर्द आपको बार-बार सालता है?

डॉ. वासिष्ठ : मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित गोदान, जो सामाजिक विषमता व अन्याय का दर्पण है तथा तत्कालीन समाज की दुर्दशा से मन को व्यथित कर देता है। आज तक भी हम उन कुरीतियों के जाल से पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो पाए हैं।

दिहि : साहित्य के क्षेत्र में आपका मार्गदर्शक कौन है और क्यों?

डॉ. वासिष्ठ : साहित्य क्षेत्र में पे्ररणा के मेरे स्रोत कालिदास, पे्रमचंद व जयशंकर प्रसाद रहे हैं। इन्होंने सामाजिक अवस्था-दशा को कहीं अंदर तक जाकर महसूस किया है। वेदना से पीडि़त होकर अपने काव्य शिल्प से उसे सौष्ठव बनाया और भावी पीढ़ी को स्वादिष्ट व्यंजन की तरह परोसा है। इनका साहित्य उत्कृष्ट और ग्राहृ है।

दिहि : साहित्य रचना में जुटे आज के लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

डॉ. वासिष्ठ : साहित्य संरचना में लगे लेखकों से यही अपेक्षा है कि संवेदनशील होकर समाज की व्यथा-कथा को प्रथम अनुभूत करें, उसके कारण को सतह तक जाकर समझें, समझने के बाद अपने काव्य-कौशल से सकारात्मक विचारों व निदानात्मक युक्तियों से लेखनी की धार पैनी करें। खाली विदू्रपता का प्रदर्शन कर कुछ हाथ नहीं लगने वाला। परिवर्तन यथार्थ भावपूर्णता से ही होगा।

दिहि : समाज के दर्पण के रूप में पहाड़ी साहित्य का मूल्यांकन किस तरह करेंगे?

डॉ. वासिष्ठ : पहाड़ी साहित्य अभी समाज का दर्पण बनने में अक्षम है। पहाड़ी लेखन अभी छोटे-छोटे नालों की तरह निस्सृत हो रहा है। आवश्यकता है विपुल पहाड़ी साहित्य रचना की और वह भी संपूर्ण हिमाचल प्रदेश के समस्त क्षेत्रों से, तभी वह पहाड़ी समाज का दर्पण बन सकता है। अभी हमारा पहाड़ी लेखन राष्ट्रीय मानकों तक को पूरा नहीं कर पाया है। अतः इसके लिए अधिकाधिक पहाड़ी लेखन की आवश्यकता है।

दिहि : हिमाचल में कविता की चिंता और चिंता में कविता के सफर को कैसे देखते हैं?

डॉ. वासिष्ठ : लेखन या कविता वही कर सकता है जिसके अंदर मानवीय संवेदना के मूलभूत आदर्श हों, जो मानवता को संजीदा बनाते हों। घात-प्रतिघात, उल्लास या प्रसन्नता से जो उद्विग्न या आह्लादित नहीं होता है, वह कवि कर्म नहीं कर सकता। उपर्युक्त गुणों से युक्त पात्र कविता की चिंता में रहता है कि किस तरह मैं सुगम, सुबोध व लालित्यपूर्ण शब्दों में कविता करूं जो  साहित्यिक अपेक्षाओं को पूरा करती हो और समाज में ग्राहृ हो। लेकिन आज काव्य में सौंदर्य बोध का अभाव है, सारगर्भित संदर्भों में भी छिछलापन आ गया है। झरनों से झरने वाली सरिता का स्थान अब लोहे की पाइप ने ले लिया है। अतः कविता का सफर लालित्यपूर्ण न होकर अधिक नीरसता की ओर अग्रसर है।

दिहि : सृजन के ताप में कितने कुंदन हो सकते हैं विषय और समाज तक पहुंचने के लिए सेतु बनाने की प्रथम ईंट है क्या?

डॉ. वासिष्ठ : साहित्य सृजन की सार्थकता तभी है यदि वह भावपूर्ण है, शाब्दिक व्यर्थ संरचना तो पांडित्य मोह दर्शाती है। सृजन की भट्ठी में वही कुंदन बनकर निकल सकता है जो सामाजिक अंतर्व्यथा को समझने की क्षमता रखता हो, तद्नुरूप समाज को जागृत करने के लिए अपने तप व परिश्रम से समाज की दुखती रग को सहलाने वाली काव्य सरिता बहाने की क्षमता रखता हो, ताकि समाज उस व्यथा-कथा को अपना समझ सके। बिरला ही अध्यवसायी रह गया है जो विषय और समाज तक पहुंचने के लिए अपने प्रयास से सेतु की प्रथम प्रस्तरिका बनता हो।

दिहि : आपके लिए सृजन प्रतिक्रिया है या महज परिकल्पना?

डॉ. वासिष्ठ : सृजन मेरे लिए प्रथम प्रतिक्रिया है परंतु पदलालित्य हेतु कल्पना के पंख भी आवश्यक हैं।

दिहि : क्या सोशल मीडिया से सृजन का ठहराव छिन्न-भिन्न होगा या इनसान की बदलती फितरत में चिंतन गौण हो जाएगा?

डॉ. वासिष्ठ : सोशल मीडिया से सृजन छिन्न-भिन्न तो नहीं परंतु दिग्भ्रमित अवश्य होगा और आज की दौड़-धूप व चकाचौंध में गौण भी हो जाएगा जो साहित्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।

दिहि : परिस्थितियों की अनुकूलता या प्रतिकूलता में आपकी कविता कहां ज्यादा मौलिक रूप लेती है?

डॉ. वासिष्ठ : परिस्थितियों की प्रतिकूलता में मेरी कविता अधिक मौलिकता का रूप धारण करती है।

-मुकेश कुमार, कुनिहार, सोलन

यथार्थ घटना को दिया कविता का रूप

डॉ. शंकर वासिष्ठ हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। इनका जन्म 1954 में सोलन की अर्की तहसील के ग्राम कं सवाल में हुआ। इन्होंने हिंदी में दयानंद पीठ पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। इससे पूर्व इन्होंने शास्त्री, एमए हिंदी, बीएड तथा एमएड की उपाधियां विभिन्न विश्वविद्यालयों से प्राप्त की। डॉ. वासिष्ठ 36 वर्षों तक अध्यापन से जुड़े रहे। इन्होंने वर्ष 1976 में वीरप्रताप के माध्यम से ‘दहेज की अर्थी’ नामक कहानी के  साथ साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश किया। वीरप्रताप के तत्कालीन संपादक वीरेंद्र ने व्यक्तिगत रूप से चंबा में आर्यसमाज के समारोह में आशीर्वाद देकर इनकी सराहना की थी। इसी दशक में दूसरी कहानी ‘सुख के घाव’ वीरप्रताप में प्रकाशित हुई।

इसके पश्चात 1980 के दशक में इसी समाचार पत्र व अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन होने लगा। सन् 1981 में मां के स्वर्गवास के पश्चात डॉ. वासिष्ठ लेखन के प्रति उदासीन हो गए। इन्हें एकाकी जीवन सालने लगा। जीवन मां के प्यार क ी शांत छांव के बिना तपने लगा। मित्रों ने इस सत्स-तथ्य को भांपा और चंबा लोक संस्कृति से इन्हें जोड़ दिया। चंबा लोक संस्कृति में वासिष्ठ इतने रम गए कि 2-3 साल अथक परिश्रम किया और लोक संस्कृति के अटूट हिस्सा बन गए। परिणामस्वरूप केरल, तमिलनाडू, राजस्थान, गुजरात तथा दिल्ली आदि प्रदेशों में हिमाचल प्रदेश भाषा, संस्कृति एवं कला विभाग की सांस्कृतिक आदान-प्रदान योजना के अंतर्गत कई दलों के साथ जाकर सक्रिय भूमिका निभाई। सन् 1976 से सन् 1983 तक दयानंद मठ चंबा में स्वामी सुमेधानंद के सानिध्य में समाजोत्थान में इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। तत्पश्चात चंबा से ट्रांसफर होकर वह अपने गांव आ गए।

कुछ वर्ष व्यतीत करने के बाद जिला मुख्यालय सोलन चले गए। अंदर का कवि समाज में व्याप्त विसंगतियों से आक्रोशित होने लगा तथा अंतर्मन में विरोध के स्वर पुनः फूट कर बाहर आने लगे। वर्ष 1998 में अखिल भारतीय हिंदी सम्मेलन में प्रथम कविता संग्रह ‘दो टूक’ पाठकों को समर्पित किया। साहित्य क्षेत्र ने यह तथ्य स्वीकार किया कि डॉ. वासिष्ठ दैनिक जीवन में घटित हो रहे घटनाक्रम को कविता में व्यक्त करना बखूबी समझते हैं। इनका कविता संग्रह ‘दो टूक’ इस बात का द्योतक है। इसमें इनकी कविताएं समकालीन कविता का मुहावरा लिए हुए हैं। वर्ष 2015 में स्पंदन शीर्षक से दूसरा कविता संग्रह समर्पित हुआ। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त प्रो. केशव शर्मा आशीर्वचन में लिखते हैं-एक बात जो सर्वत्र उज्ज्वल पक्ष बन कर सामने आती है, वह है कवि के अंदर विद्यमान एक आशा व एक विश्वास। स्वर्गीय डॉ. विद्याचंद ठाकुर ने लिखा है कि कवि के मर्मभेदी व्यंग्य बाणों की गहरी चोट मानव मन को झकझोर करके मानव के तामसिक चिंतन को तिरोहित कर देती है। डॉ. वासिष्ठ अनेक स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में निबंधों, धार्मिक व शिक्षाप्रद लेखों तथा सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों में शोध-पत्रों के माध्यम से स्वीकार्य हस्तक्षेप रखते हैं। संपादन में भी डॉ. शंकर वासिष्ठ का पूर्ण अधिकार है। इस सफर में इन्होंने पुष्पगंधा (विद्यालयी पत्रिका), कल्याणी (धार्मिक द्विवार्षिक पत्रिका), सुभाष चंद्र बोस, हमारा सोलन, लोक संस्कृति के आइने में सोलन, अंतर्मन हिंदी कविता संग्रह तथा अनेक पुस्तकों में अपना प्रशंसनीय योगदान दिया है। क्षितिज, शब्दों के उपहार, परंपरा, कालजुए री बेदण (कविता संग्रह) तथा एक चट्टान अकेली सी (कहानी संग्रह) इनके प्रमुख योगदान हैं। डॉ. वासिष्ठ प्रादेशिक व राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन, आकाशवाणी-दूरदर्शन से प्रसारण, कवि सम्मेलनों व साहित्यिक गोष्ठियों में भागीदारी के जरिए सक्रिय भूमिका अदा करते रहे हैं।

डॉ. वासिष्ठ हिमाचन प्रदेश शिक्षा विभाग तथा एससीईआरटी के सेमिनारों में एक कुशल रिसोर्स पर्सन के रूप में भाग ले चुके हैं। वह सामाजिक सरोकार में भी सक्रिय किरदार निभाते रहे हैं। कई वर्षों तक वह कई सामाजिक व सांस्कृतिक संगठनों के पदाधिकारी रहे हैं। कवि की शैक्षणिक, सामाजिक, धार्मिक व साहित्यिक अभिरुचियों का मूल्यांकन करते हुए विद्यार्थी कल्याण परिषद ने इन्हें श्रेष्ठ अध्यापक सम्मान दिया। इसी तरह सनातन धर्म सभा सोलन द्वारा उत्कृष्ट कार्य सम्मान, सिरमौर कला मंच द्वारा कर्मवीर सम्मान, डॉ. यशवत सिंह साहित्यिक सम्मान, संयोग साहित्य मुंबई द्वारा काव्य प्रतिभा सम्मान तथा अनेक स्थानीय संस्थाओं द्वारा भी इन्हें सामाजिक व धार्मिक कार्यों के लिए सम्मानित किया जा चुका है। डॉ. वासिष्ठ कहते हैं कि विद्वानों का मानना है कि जहां इतिहासकार मात्र गढ़े मुर्दे उखाड़ता है और कंकाल मात्र प्रस्तुत करता है, वहीं साहित्यकार अस्थि-पंजर में मांस-मज्जा, जीवन-प्राण तथा रंग-रूप भरता है। साहित्यकार अन्वेषित सत्य को सजीव बनाकर तथा यथार्थ के नीरस ठूंठ को कल्पनागत आदर्श से पल्लवित, पुष्पित व हरा-भरा कर लहलहा भी देता है।


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