पहाड़ तक पहुंचा स्मॉग का धुंधलका

By: Nov 20th, 2017 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

स्मॉग के खतरे की धमक अब हिमाचल, उत्तराखंड जैसे स्वास्थ्यवर्द्धक स्थलों तक भी पहुंचने लगी है। हिमाचल के बिलासपुर, मंडी, हमीरपुर, कांगड़ा और चंबा जिला भी अब इसकी चपेट में आ गए हैं। इस वर्ष पिछले 20 दिनों से इन क्षेत्रों की सुनहली धूप और नीला आसमान गायब है। धुंधलका सा फैला है…

उत्तरी भारत में अक्तूबर-नवंबर में स्मॉग से बढ़ती परेशानी लगातार होने वाली घटना बनती जा रही है। राजनीतिक दल इस गंभीर मुद्दे पर एक-दूसरे पर दोषारोपण और हल्की राजनीति करने का अवसर तलाश रहे हैं, जबकि इस मुद्दे पर करोड़ों लोगों का स्वास्थ्य, सुरक्षा और आर्थिकी दांव पर है। यह देख कर बेहद अफसोस होता है कि इस मुद्दे को उद्योग, किसान, परिवहन और निर्माण कार्य के मध्य का संघर्ष बनाने की कोशिश हो रही है। यह भी हैरान करने वाला तथ्य है कि दिल्ली की स्मॉग तो मुद्दा बन रहा है, परंतु असली मुद्दा तो पूरे उत्तरी भारत का धीरे-धीरे स्मॉग की चपेट में आते जाना है। इस खतरे की धमक अब हिमाचल, उत्तराखंड जैसे स्वास्थ्यवर्द्धक स्थलों तक भी पहुंचने लगी है। हिमाचल के बिलासपुर, मंडी, हमीरपुर, कांगड़ा और चंबा जिला भी अब इसकी चपेट में आ गए हैं। इस वर्ष पिछले 20 दिनों से इन क्षेत्रों की सुनहली धूप और नीला आसमान गायब है। धुंधलका सा फैला है। कांगड़ा हवाई अड्डे में उड़ानों का संचालन भी इससे बाधित हुआ है। यह समस्या किसी एक वर्ग या राजनीतिक दल की फैलाई हुई तो है नहीं। इसका मूल कारण तो वर्तमान विकास मॉडल है। इस विकास मॉडल की सुविधाओं के तो सभी कायल हैं, परंतु इसके नुकसानों की ओर ध्यान देना नहीं चाहते। जब जान पर बन आई है, तो एक-दूसरे पर दोषारोपण करके अपनी-अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

आखिर इस जहरीली हवा में सांस लेने से कौन बच सकता है। रोजी-रोटी कमाने की मजबूरियां भी हैं, परंतु रोजी-रोटी के चक्कर में हम पूरे देश को गैस चैंबर तो नहीं बना सकते। इसलिए अपनी-अपनी कमजोरी को मन से मान कर समाधान की दिशा में काम करना शुरू करें। परिवहन गाडि़यों का धुआं, उद्योगों का धुआं, पराली जलाने का धुआं, जंगल जलाने का धुआं, खुले में कचरा जलाने, डंपिंग स्थलों में कचरा जलाने जैसे अनेक कारण इस स्थिति तक पहुंचने के लिए जिम्मेदार हैं। अतः सभी जागें और राजनीति त्याग कर सही दिशा तलाशें। अल्पकालीन और दीर्घकालीन योजनाएं एक साथ लागू करना आरंभ करें। परिवहन क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्र में धुआं रहित तकनीकों का बड़े पैमाने पर प्रयोग आरंभ हो। उत्सर्जन नियंत्रण नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाए। पराली जलाने को इतना बड़ा मुद्दा तो कंबाइन हार्वेस्टरों ने बनाया है। ये मशीनें आधे बीच से फसलों को काटती हैं और शेष लंबे तनों को जलाने का हानिकारक चलन चल पड़ा। आज अगर पंजाब के किसानों को पराली जलाने की नौबत आ रही है, तो इसी वजह से कि इस पराली का कहीं सदुपयोग नहीं हो पा रहा है।

प्रकृति का नियम है कि वह जैविक पदार्थों को सड़ाकर खाद बना देती है। किसान इन आधे बीच से काटे तनों को जुताई करके जमीन में सड़ाने की विधि निकालें। इसके लिए सरकार हैप्पी सीडर जैसी मशीनों या इससे भी बेहतर मशीनें मुफ्त उपलब्ध करवाकर शुरुआत करवाए। उत्तराखंड, देहरादून  में मैंने एक आदमी द्वारा चलाई जाने वाली दराती जैसी मशीन देखी, जो तने से फसल काटती है। मशीन 10-12 हजार रुपए की है और छोटे किसानों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। पराली को सीमित मात्रा  में पशु चारे के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं। मल्च करने लिए भी प्रयोग कर सकते हैं, जिससे फसल में घास भी कम आएगा और जैविक खाद भी बनती रहेगी। इसे बायलरों और ताप बिजली संयंत्रों में ईंधन के रूप में प्रयोग करके उत्सर्जन बहुत कम किया जा सकता है, क्योंकि आधुनिक कुशल प्रज्वलन तकनीकों का प्रयोग करके धुएं और गैसों को संयंत्र में ही जलाया जा सकता है। जहां पुरानी तकनीक के संयंत्र हैं, उन्हें आधुनिक तकनीक द्वारा उन्नत बनाया जाना चाहिए। विभिन्न उद्योगों और ईंट भट्ठों में धुआं और गैसों को चिमनी पर ही जला देने वाले आधुनिक उपकरण लगवाए जाने चाहिएं। स्वीडन से इस मामले में सीखा जा सकता है। इसी तरह अन्य ठोस कचरा, जो खुले में व्यक्तिगत तौर पर या डंपिंग स्थलों में खुले में जलाया जा रहा है, उस ज्वलनशील कचरे को अलग करके आधुनिकतम तकनीक से ताप बिजली संयंत्रों में जला कर बिजली बना लेनी चाहिए। पुराने ताप बिजली संयंत्रों का आधुनिकीकरण करना चाहिए। बहुत सा जैविक कचरा एनेरोबिक सड़न विधि द्वारा सड़ा कर उससे बायो गैस बनाई जा सकती है। गैस से बिजली बना लें या सीधे सिलेंडरों में भर कर उपयोग कर लें। सड़ा हुआ जैविक कचरा बढि़या जैविक खाद का काम देता है। परिवहन व्यवस्था वायु प्रदूषण का बड़ा कारण बन चुकी है। वाहनों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसे नियंत्रित करना जरूरी है या फिर धुआं रहित इलेक्ट्रिक वाहन, गैस से चलने वाले, सीएनजी से चलने वाले वाहनों को बड़ी मात्रा में प्रोत्साहित करना पड़ेगा।

मेडेलिन और रियो जैसे दक्षिण अमरीकी शहरों की तरह शहरों में केबल कार व्यवस्था से भी वाहन संख्या घटाने और जाम से मुक्ति की दिशा में काम करना चाहिए। जाम से निरर्थक ही बहुत वायु प्रदूषण होता रहता है। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सर्व सुलभ और आरामदायक बनाने का काम प्राथमिकता से करना होगा। समस्या को सभी पक्षों से दबोचने से ही सफलता मिलेगी। इसके लिए कृषि, उद्योग, परिवहन, ऊर्जा, स्थानीय निकाय और पंचायती राज मंत्रालयों के संयुक्त प्रयास की जरूरत होगी। इसके लिए तालमेल का स्थायी तंत्र योजना निर्माण से लेकर लागू करने के स्तर तक बनाया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर राजनीतिक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा तो हो, परंतु खोखली राजनीति जरा भी नहीं।


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